आधुनिक काल-छायावाद Modern periodicism(chhaayaavaad)

आधुनिक काल-छायावाद 
Modern periodicism(chhaayaavaad)

छायावाद

छायावाद का जन्म व परिसीमा
                 छायावाद का हिन्दी में उदय द्विवेदी युग के बाद हुआ।छायावादी काव्य की सीमा 1918-1936ई.तक मानी जा सकती । आचार्य शुक्ल छायावाद का आरंभ 1918ई. से मानते हैं, क्योंकि छायावाद के प्रमुख कवियों जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नन्दन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला,महादेवी वर्मा ने अपनी रचनाएं इसी समय के आसपास लिखनी शुरू की थी।1918 में प्रसाद का झरना, 1916 में जूही की कली निराला,1918 में पन्त पल्लव की कुछ कविताएं भी प्रकाशित हो चुकी थी।प्रसाद की कामायनी 1935ई.में प्रकाशित हुई तथा प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 1936ई. में हुई।इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर छायावाद की अंतिम सीमा 1936ई.मानना ही अधिक समीचीन है।

छायावाद का अर्थ और परिभाषा
                      मुकुटधर पाण्डेय ने श्री शारदा पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया जिस निबंध में उन्होंने छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग किया | कृति प्रेम, नारी प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण, कल्पना की प्रधानता आदि छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। छायावाद ने हिंदी में खड़ी बोली कविता को पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया। इसके बाद ब्रजभाषा हिंदी काव्य धारा से बाहर हो गई। इसने हिंदी को नए शब्द, प्रतीक तथा प्रतिबिंब दिए। इसके प्रभाव से इस दौर की गद्य की भाषा भी समृद्ध हुई। इसे 'साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्णयुग' कहा जाता है।

रामचंद्र शुक्ल के अनुसार-
              छायावादी शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम का अनेक प्रकार से व्यंजन करता है। इस अर्थ का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में होता है’।

नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार- 
                                 "प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
                                   “छायावाद के मूल में पाश्चात्य रहस्यवादी भावना अवश्य थी।इसकी मूल प्रेरणा अंग्रेजी रोमांटिक भावधारा की कविता थी।इसमें संदेह नही की छायावादी भावधारा की पृष्ठभूमि में ईसाई सन्तों की रहस्यवादी साधना अवश्य थी”।

नगेन्द्र के अनुसार-
                 "1920 के आसपास, युग की उद्बुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर, जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की, वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई।"

नामवर सिंह के अनुसार-
                         "छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो 1918 से 1936 ई. के बीच लिखी गईं।’ वे आगे लिखते हैं- ‘छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।"

जयशंकर प्रसाद के अनुसार- 
                              "काव्य के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया।" 

महादेवी वर्मा के अनुसार-
                             छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानती हैं और प्रकृति को उसका साधन। उनके छायावाद ने मनुष्य के ह्रृदय और प्रकृति के उस संबंध में प्राण डाल दिए जो प्राचीन काल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को प्रकृति अपने दुख में उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी।’ 

छायावाद के प्रमुख कवि व रचनाएं
      आचार्य शुक्ल के अनुसार छायावाद के जनक मुकुटधर पांडेय है।छायावाद के चार स्तम्भों में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नन्दन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला,महादेवी वर्मा की गणना होती है।

जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 – 15 नवंबर 1937)
           इन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। इनकी सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' 1914 ई. में इंदु में प्रकाशित हुई। ये छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी हैं।इन्होंने हिंदी में 'करुणालय' द्वारा गीत नाट्य का भी आरंभ किया। इन्होंने भिन्न तुकांत काव्य लिखने के लिये मौलिक छंदचयन किया और अनेक छंद का संभवत: उन्होंने सबसे पहले प्रयोग किया। प्रसाद जी ने नाटकीय ढंग पर काव्य-कथा-शैली का मनोवैज्ञानिक पथ पर विकास किया। साथ ही कहानी कला की नई टेकनीक का संयोग काव्यकथा से कराया। प्रगीतों की ओर विशेष रूप से उन्होंने गद्य साहित्य को संपुष्ट किया और नीरस इतिवृत्तात्मक काव्यपद्धति को भावपद्धति के सिंहासन पर स्थापित किया।

प्रमुख रचनाएं

काव्य संग्रह

कानन कुसुम
महाराणा का महत्व
झरना(1918)
आंसू
लहर
कामायनी1935
प्रेम पथिक

कहानी संग्रह
छाया
प्रतिध्वनि
आकाशदीप
आंधी
इन्द्रजाल

उपन्यास
प्रसाद ने तीन उपन्यास लिखे हैं
 कंकाल
तितली
इरावती(अपूर्ण)

नाटक
       प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। 
स्कंदगुप्त
चंद्रगुप्त
ध्रुवस्वामिनी
जन्मेजय का नाग यज्ञ
राज्यश्री
कामना
एक घूंट

                निराला ने 1920 ई० के आसपास से लेखन कार्य आरंभ किया।इन्होंने कविता के अतिरिक्त कथासाहित्य तथा गद्य की अन्य विधाओं में भी खूब में लिखा।

     कृतियाँ

काव्यसंग्रह

अनामिका (1923)
परिमल (1930)
गीतिका (1936)
अनामिका (द्वितीय) (1939)
तुलसीदास (1939)
कुकुरमुत्ता (1942)
अणिमा (1943)
बेला (1946)
नये पत्ते (1946)
अर्चना(1950)
आराधना 91953)
गीत कुंज (1954)
सांध्य काकली
अपरा (संचयन)

उपन्यास

अलका (1933)
प्रभावती (1936)
निरुपमा (1936)
कुल्ली भाट (1938-39)
बिल्लेसुर बकरिहा (1942)
चोटी की पकड़ (1946)
काले कारनामे (1950) {अपूर्ण}
चमेली (अपूर्ण)
इन्दुलेखा (अपूर्ण)

कहानी संग्रह

लिली (1934)
सखी (1935)
सुकुल की बीवी (1941)
चतुरी चमार (1945) 
देवी (1948) 

निबन्ध-आलोचना

रवीन्द्र कविता कानन (1929)
प्रबंध पद्म (1934)
प्रबंध प्रतिमा (1940)
चाबुक (1942)
चयन (1957)
संग्रह (1963)

निराला रचनावली नाम से 8 खण्डों में पूर्व प्रकाशित एवं अप्रकाशित सम्पूर्ण रचनाओं का सुनियोजित प्रकाशन (प्रथम संस्करण-1983)

सुमित्रानंदन पंत (20 मई 1900 – 28 दिसम्बर 1977) 
                       प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त जी काव्य का विकास चार चरणों में हुआ।इनकी प्रमुख रचनाएं निम्न है-

छायावादी रचनाएं
उच्छ्वास 
पल्लव (1926)
वीणा (1927)
ग्रन्थि (1929)
गुंजन  (1932)

प्रगतिवादी रचनाएं
ग्राम्‍या
युगांत  
युगवाणी

अरविन्द दर्शन से प्रभावित स्वर्णकाव्य
स्वर्णकिरण 
स्वर्णधूलि 
उत्तरा
कला और बूढ़ा चाँद 
वाणी

नवमानवतावादी रचनाएं
लोकायतन 
सत्यकाम 
मुक्ति यज्ञ 
तारापथ 

काव्य नाटक
रजतशिखर 
शिल्पी 
सौवर्ण 
अतिमा
पतझड़ 
अवगुंठित 
ज्योत्सना 
मेघनाद वध 

चुनी हुई रचनाओं के संग्रह
युगपथ (1949)
चिदंबरा 
पल्लविनी 
स्वच्छंद 

अनूदित रचनाओं के संग्रह
मधुज्वाल  (उमर ख़ैयाम की रुबाइयों का फ़ारसी से हिन्दी में अनुवाद)

अन्य कवियों के साथ संयुक्त संग्रह
खादी के फूल (हरिवंशराय बच्चन जी के साथ संयुक्त संग्रह)




           आधुनिक कप की मीरा महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं।

कविता संग्रह
नीहार (1930)
रश्मि (1932)
नीरजा (1934)
सांध्यगीत (1936)
दीपशिखा (1942)
सप्तपर्णा (अनूदित-1959)

 गद्य साहित्य

रेखाचित्र
अतीत के चलचित्र (1941) और स्मृति की रेखाएं (1943),

संस्मरण:
 पथ के साथी (1956) और मेरा परिवार (1972) और संस्मरण (1983)

भाषणों का संकलन:
 संभाषण (1974)

निबंध
शृंखला की कड़ियाँ (1942), 
विवेचनात्मक गद्य (1942),
साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (1962),
संकल्पिता (1969)

ललित निबंध
क्षणदा (1956)

कहानियाँ
गिल्लू

संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह: 
हिमालय (1963),

बाल साहित्य
ठाकुरजी भोले हैं
आज खरीदेंगे हम ज्वाला


हरिवंशराय बच्चन(27 नवम्बर 1907-18 जनवरी 2003)
                मधुकाव्य के रचयिता व हालावाद के प्रवर्तक हरिवंशराय बच्चन जी की प्रमुख कृतियां

 कविता संग्रह
तेरा हार (1929)
मधुशाला (1935),
मधुबाला (1936),
मधुकलश (1937),
आत्म परिचय (1937)
निशा निमंत्रण (1938), 
एकांत संगीत (1939),
आकुल अंतर (1943),
सतरंगिनी (1945),
हलाहल (1946),
बंगाल का काल (1946),
खादी के फूल (1948),
सूत की माला (1948),
मिलन यामिनी (1950),
प्रणय पत्रिका (1955),
धार के इधर-उधर (1957),
आरती और अंगारे (1958),
बुद्ध और नाचघर (1958),
त्रिभंगिमा (1961),
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962),
दो चट्टानें (1965),
बहुत दिन बीते (1967),
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968),
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969),
जाल समेटा (1973)
नई से नई-पुरानी से पुरानी (1985)

आत्मकथा
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969),
नीड़ का निर्माण फिर (1970),
बसेरे से दूर (1977),
दशद्वार से सोपान तक (1985)

विविध
बच्चन के साथ क्षण भर (1934),
खय्याम की मधुशाला (1938),
सोपान (1953),
मैकबेथ (1957),
जनगीता (1958),
ओथेलो (1959),
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959),
कवियों में सौम्य संत: पंत (1960),
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960),
आधुनिक कवि (1961),
नेहरू: राजनैतिक जीवनचरित (1961),
नये पुराने झरोखे (1962),
अभिनव सोपान (1964)
चौंसठ रूसी कविताएँ (1964)
नागर गीता (1966),
बच्चन के लोकप्रिय गीत (1967)
डब्लू बी यीट्स एंड अकल्टिज़म (1968)
मरकत द्वीप का स्वर (1968)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
किंग लियर (1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ (1973)

छायावाद के अन्य प्रमुख कवियों में रामेश्वर शुक्ल अंचल,नरेन्द्र शर्मा,माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी,बालकृष्ण शर्मा नवीन,डॉ.रामकुमार वर्मा आदि ने भी छायावाद के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

छायावाद की मुख्य प्रवृत्तियाँ

आत्माभिव्यंजन
           छायावाद में सभी कवियों ने अपने अनुभव को मेरा अनुभव कहकर अभिव्यक्त किया है। इस मैं शैली के पीछे आधुनिक युवक की स्वयं को अभिव्यक्त करने की सामाजिक स्वतंत्रता की आकांक्षा है। कहानी के पात्रों अथवा पौराणिक पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्ति की चिर आचरित और अनुभव सिद्ध नाटकीय प्रणाली उसके भावों को अभिव्यक्त करने में पूर्णतः समर्थ नहीं थी। वैयक्तिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति की मुक्ति से संबद्ध थी। यह वैयक्तिक अभिव्यक्ति भक्तिकालीन कवियों के आत्मनिवेदन से बहुत आगे की चीज है। यह ऐहिक वैयक्तिक आवरणहीन थी। इसपर धर्म का आवरण नहीं था। सामंती नैतिकता को अस्वीकार करते हुए पंत ने उच्छवास और आँसू की बालिका से सीधे शब्दों में अपना प्रणय प्रकट किया है:- "बालिका मेरी मनोरम मित्र थी।" वैयक्तिक क्षेत्र से आगे बढ़कर निराला ने अपनी पुत्री के निधन पर शोकगीत लिखा और जीवन की अनेक बातें साफ-साफ कह डालीं। संपादकों द्वारा मुक्त छंद का लौटाया जाना, विरोधियों का शाब्दिक प्रहार, सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए एकदम नए ढंग से सरोज का विवाह करना आदि लिखकर सामाजिक क्षेत्र के अपने अनुभव सीधे-सीधे मैं शैली में अभिव्यक्त किए। 


सौंदर्य चित्रण
          इसके आगे चलकर छायावाद अलौकिक प्रेम या रहस्यवाद के रूप में सामने आता है। कुछ आचार्य इसे छायावाद की ही एक प्रवृत्ति मानते हैं और कुछ इसे साहित्य का एक नया आंदोलन।नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण छायावादी कवियों ने नारी को प्रेम का आलंबन माना है। उन्होंने नारी को प्रेयसी के रूप में ग्रहण किया जो यौवन और ह्रृदय की संपूर्ण भावनाओं से परिपूर्ण है। जिसमें धरती का सौंदर्य और स्वर्ग की काल्पनिक सुषमा समन्वित है। अतः इन कवियों ने प्रेयसी के कई चित्र अंकित किये हैं। कामायनी में प्रसाद ने श्रद्धा के चित्रण में जादू भर दिया है। छायावादी कवियों का प्रेम भी विशिष्ट है।इनके प्रेम की पहली विशेषता है कि इन्होंने स्थूल सौंदर्य की अपेक्षा सूक्ष्म सौंदर्य का ही अंकन किया है। जिसमें स्थूलता, अश्लीलता और नग्नता नहींवत है। जहाँ तक प्रेरणा का सवाल है छायावादी कवि रूढ़ी, मर्यादा अथवा नियमबद्धता का स्वीकार नहीं करते। निराला केवल प्राणों के अपनत्व के आधार पर, सब कुछ भिन्न होने पर अपनी प्रेयसी को अपनाने के लिए तैयार हैं।इन कवियों के प्रेम की दूसरी विशेषता है - वैयक्तिकता। जहाँ पूर्ववर्ती कवियों ने कहीं राधा, पद्मिनी, ऊर्मिला के माध्यम से प्रेम की व्यंजना की है तो इन कवियों ने निजी प्रेमानुभूति की व्यंजना की है।इनके प्रेम की तीसरी विशेषता है- सूक्ष्मता। इन कवियों का श्रृंगार-वर्णन स्थूल नहीं, परंतु इन्होंने सूक्ष्म भाव-दशाओं का वर्णन किया है। चौथी विशेषता यह है कि इनकी प्रणय-गाथा का अंत असफलता में पर्यवसित होता है। अतः इनके वर्णनों में विरह का रुदन अधिक है। ह्रृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावनाओं को साकार रूप में प्रस्तुत करना छायावादी कविता का सबसे बड़ा कार्य है।


प्रकृति चित्रण
         छायावादी कवि  प्रकृति के भीतर नारी का रूप देखते हैं, उसकी छवि में किसी प्रेयसी के सौंदर्य-वैभव का साक्षात्कार करते हैं। प्रकृति की चाल-ढाल में किसी नवयौवना की चेष्टाओं का प्रतिबिंब देखते हैं। उसके पत्ते के मर्मर में किसी बाला-किशोरी का मधुर आलाप सुनते हैं। प्रकृति में चेतना का आरोपण सर्व प्रथम छायावादी कवियों ने ही किया है। जैसे,
बीती विभावरी जाग री,
अम्बर पनघट में डूबो रही
तारा घट उषा नागरी। (प्रसाद) 

दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से
उतर रही

वह संध्या सुंदरी परी-सी धीरे-धीरे। (निराला)

राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति
             छायावादी कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्त किया है। इस युग में वीरों को उत्साहित करने वाली कविताएँ लिखी गईं। देश के वीरों को संबोधित करते हुए जयशंकर प्रसाद लिखते है़ं-

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!


चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।(माखनलाल चतुर्वेदी)

रहस्यवाद
        आध्यात्मिक प्रेम-भावना या अलौकिक प्रेम-भावना का स्वरूप अधिकांश महादेवी जी की कविता में मिलता है। वे अपने को प्रेम के उस स्थान पर बताती हैं जहाँ प्रेमी और उसमें कोई अंतर नहीं। जैसे, तुममुझमें प्रिय फिर परिचय क्या ? रहस्यवाद के अंतर्गत प्रेम के कई स्तर होते हैं। प्रथम स्तर है अलौकिक सत्ता के प्रति आकर्षण। द्वितीय स्तर है- उस अलौकिक सत्ता के प्रति दृढ अनुराग। तृतीय स्तर है विरहानुभूति। चौथा स्तर है- मिलन का मधुर आनंद। महादेवी और निराला में आध्यात्मिक प्रेम का मार्मिक अंकन मिलता है। यद्यपि छायावाद और रहस्यवाद में विषय की दृष्टि से अंतर है। जहाँ रहस्यवाद का विषय - आलंबन अमूर्त, निराकार ब्रह्म है, जो सर्व व्यापक है, वहाँ छायावाद का विषय लौकिक ही होता है।

स्वच्छन्दतावाद
       स्वच्छदतावाद का प्रारंभ श्रीधर पाठक की कविताओं से होता है। पद्य के स्वरूप, अभिव्यंजना के ढंग और प्रकृति के स्वरूप का निरीक्षण आदि प्रवृत्तियाँ छायावाद में प्रकट हुई। साथ-साथ स्वानुभूति की प्रत्यक्ष विवृत्ति, जो व्यक्तिगत प्रणय से लेकर करुणा और आनंद तक फैली हुई है। आलोचकों ने छायावाद पर स्वच्छन्दता का प्रभाव बताया है तो दूसरी ओर इसका विरोध भी प्रकट किया है।स्वच्छन्दतावाद की यह प्रवृत्ति देशगत, कालगत, रूढियों के विरुद्ध हमेशा रहती हैं। जहाँ कहीं भी बंधन हैं, समाज, राज्य, कविता और जीवन- तमाम स्तरों पर इन रूढियों का स्वच्छन्दतावादी कवि विरोध करता है। अंग्रेजी साहित्य में स्वच्छन्दतावादी काव्य से पहले कठोर अनुशासन था और उसका रूप धार्मिक, नैतिक और काव्यशास्त्रीय भी था। अतः अंग्रेजी कवियों ने इन बंधनों का तिरस्कार किया। लेकिन छायावादी कवियों से पूर्व द्विवेदीयुग में नैतिक दृष्टि की प्रधानता मिलती है और छायावादी में उसका विरोध भी दिखाई देता है। छायावादी प्रवृत्ति स्वच्छन्द प्रणय की नहीं किन्तु पुनरुत्थानवादी ज्यादा थी। क्योंकि रीतिकालीन श्रृंगार-चित्रण का उस पर प्रभाव है। जहाँ दार्शनिक सिद्धांतों का संबंध है छायावादी काव्य में सर्ववाद, कर्मवाद, वेदांत, शैव-दर्शन, अद्वैतवाद आदि पुराने सिद्धांतों की अभिव्यक्ति मिलती है। जहाँ तक भाषा-शैली का सवाल है, छायावादी की अभिव्यंजना पद्धति नवीन और ताज़ा है।

कल्पना की प्रधानता
           द्विवेदीयुगीन काव्य विषयनिष्ठ (वस्तुपरक), वर्णन- प्रधान और स्थूल है तो छायावादी काव्य व्यक्तिनिष्ठ और कल्पना-प्रधान है। द्विवेदीयुगीन कविता में सृष्टि की व्यापकता और अनेकरूपता को समेटा गया है। उसी प्रकार छायावाद की कविता में मनोजगत की वाणी को प्रकट करने का प्रयत्न है। मनोजगत के सूक्ष्म सत्य को साकार करने के लिए छायावादी कवियों ने ऊर्वरा कल्पनाशक्ति का उपयोग किया है। इन्होंने केवल कल्पना पर भी कई गीत लिखे हैं। कल्पना शब्द का इनके यहाँ बहुत प्रयोग हुआ है।


शैलीगत प्रवृत्तियाँ
मुक्तक गीति शैली (गीति शैली के सभी तत्व -1.वैयक्तिक्ता 2.भावात्मकता 3.संगीतात्मकता 4.संक्षिप्तता 5.कोमलता छायावादी कवियों के काव्य में मिलते हैं।)
 प्रतीकात्मकता
प्राचीन एवं नवीन अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग (मानवीकरण, विरोधाभास, विशेषण विपर्यय)
कोमलकांत संस्कृतमय शब्दावली

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