हिन्दी साहित्य का इतिहास-आधुनिक काल(नामकरण, समयसीमा, परिस्थितियां,भारतेंदु युग या पुनर्जागरण काल)(History of Hindi literature - modern period)

आधुनिक काल -भारतेंदु युग या पुनर्जागरण काल modern period)

भारतेंदु युग

नामकरण एवं समय सीमा-
             मिश्रबन्धु अपनी पुस्तक मिश्रबन्धु विनोद में हिन्दी साहित्य इतिहास के इस चतुर्थ काल खंड को वर्तमान काल नाम से अभिहित करते हुए इसका समय 1926वि. निर्धारित करते हैं।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य का इतिहास में गद्य की प्रमुखता के कारण इसे गद्य काल व समय 1900वि. से1980वि.(1843ई.-1923ई.)स्वीकार किया है।डॉ. रामकुमार वर्मा,डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त,आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे आधुनिक काल कहना ज्यादा उचित मानते है


धार्मिक परिस्थितियां:

           यह काल खण्ड धार्मिक दृष्टि से संक्रमण काल रहा।भारत का प्राचीन हिन्दू धर्म ईसाई धर्म व समाज सुधारकों के सम्पर्क में आकर एक नया कलेवर धारण कर रहा था।साथ ही साथ सहमति व असहमति दोनों बढ़ रही थी।पुरानी धार्मिक रूढ़ियाँ ध्वस्त हो रही थी।लेकिन अंग्रेजी शासकों की फुट डालो राज करो कि नीति के कारण हिन्दू-मुस्लिम मतावलंबियों में आपस में अविश्वास पैदा हो गया। फलस्वरूप भारत दो टुकड़ों में बंट गया । फिर भी लोगों में धर्म को लेकर एक नई सोच विकसित हुई । 

राजनैतिक परिस्थितियां:

                राजनैतिक रूप से भारत अंग्रजों का गुलाम था।देशी राजाओं की आपसी फूट का लाभ उठाकर ईस्ट इंडिया कम्पनी लगभग सम्पूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित कर चुकी थी।भारत का हर वर्ग अंग्रेजों के अत्याचारों से परेशान था । इसकी परिणीति 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में हुयी।इन सभी घटनाओं का प्रभाव हमें साहित्य में भी दिखाई देता है । भारतेन्दु व द्विवेदी युग के साहित्य साहित्य राजभक्ति व राष्ट्र भक्ति में द्वंद्व दिखाई पड़ता है।


आर्थिक परिस्थितियां:

              साहित्य इतिहास जनमानस की आर्थिक दशा व चिंतन शक्ति से प्रभावित होता है।1857 में कम्पनी शासन भारतीयों को दोहरी मार मार रहे थे।जिससे हमारी आर्थिक स्थिति गर्त में चली गई। भारतेन्दु लिखते हैं पे धन विदेश चली जाट यही ख्वारी। स्वदेशी आंदोलन की शरुआत हुई।साहित्य ने भी अपनी जिम्मेदारी को निभाया जनता की वस्तु स्थिति व उनकी मांग को निरन्तर विभिन्न माध्यमों से शासक वर्ग के सामने रखा ।आजादी के बाद स्थिति में कुछ परिवर्तन अवश्य आया है।लेकिन उतना नही जितना आना चाहिये।आज जब मैं इस लेख को लिख रहा हूँ सम्पूर्ण विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है।पिछले कुछ समय से जनता अपने घरों में कैद है।सभी आर्थिक गतिविधियां बन्द है।इससे सबसे ज्यादा प्रभावित समाज कक वो वर्ग है।जो रोज कुआ खोदता है रोज पानी पीता है।हमारे व सरकारों के सामने बहुत बड़ी चुनौती है कि हम किसी को भी भूख से न मरने दे।इस भीषण विभीषिका में हमें सामाजिक, सास्कृतिक एकता व धैर्य बनाकर चलना चाहिए।समस्त साहित्यकारों को भी जन जागरण जैसे महत्वपूर्ण कार्य मे योगदान देना चाहिए।



साहित्यिक परिस्थितियां:

                आचार्य शुक्ल के अनुसार साहित्य जनता की संचित चित्तवृत्तियों को प्रतिबिंबि होता है।समाज की सभी गतिविधियों का प्रभाव साहित्यकार के मस्तिष्क पर पड़ता है।वह इसी से प्रभावित होकर साहित्य सृजन करता है।आधुनिक काल मे भी पद्य के स्थान पर गद्य का आना।साहित्य में नवीनतम विधाओं का प्रवेश हुआ है।

हिंदी गद्य का उद्भव एवं विकास-

                   आचार्य शुक्ल के अनुसार आधुनिक काल मे गद्य का आना सबसे विचित्र घटना  है।पूर्व में गद्य लिखने का उचित प्रचार न होने के कारण ब्रजभाषा गद्य का पूरा विकास नही हो सका। खड़ी बोली हिंदी गद्य की महत्वपूर्ण पुस्तक कवि गंग रचित चन्द-छन्द बरनन की महिमा है।भाषा योगवासिष्ठ गद्य ग्रन्थ रामप्रसाद निरंजनी ने खड़ी बोली में लिखा आचार्य शुक्ल रामप्रसाद निरंजनी को ही प्रथम प्रौढ़ गद्य लेखक स्वीकार करते हैं।


खड़ी बोली हिन्दी की प्रारंभिक गद्य रचनाएं व रचनाकार-


चन्द-छन्द बरनन की महिमा-गङ्गकवि-सम्राट अकबर के समय(15वीं शती लगभग)।

भाषा योगवासिष्ठ-रामप्रसाद निरंजनी-1741ई.

पद्म पुराण का भाषानुवाद-पं दौलतराम-1766ई.

मंडोवर का वर्णन-अज्ञात-1773-1783ई.

सुखसागर-मुंसी सदासुखलाल-1818ई.

प्रेमसागर-लल्लूलाल-1800ई.

नासिकेतोपाख्यान-सदल मिश्र-1800ई.

रानीकेतकी की कहानी-इंशा अल्लाखां


भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से पहले हिंदी गद्य की दो शैलियां विद्यमान थी। एक उर्दू-फ़ारसी शब्दों से युक्त जिसका नेतृत्व राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद व दूसरी संस्कृत शब्दावली युक्त विशुद्ध हिन्दी जिसका नेतृत्व राजा लक्ष्मण सिंह जी की भाषा कर रही थी। भारतेंदुजी ने अपनी भाषा के लिये मध्यम मार्ग का अनुसरण किया।



                           भारतेंदु युग

आधुनिक काल को कई उपविभागों में बांटा गया है।
जो निम्न है-

भारतेन्दु युग(पुनर्जागरण काल)-1857-1900ई.
द्विवेदी युग(जागरण सुधार काल)-1900-1918ई.
छायावादी युग-1918-1938ई.
छायावादोत्तर काल-1938ई…………..
1. प्रगतिवादी युग
2. प्रयोगवादी युग
3. नवलेखन काल

हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के प्रथम चरण को "भारतेन्दु युग" की संज्ञा प्रदान की गई है और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। भारतेन्दु का व्यकितत्व प्रभावशाली था, वे सम्पादक और संगठनकर्ता थे, वे साहित्यकारों के नेता और समाज को दिशा देने वाले सुधारवादी विचारक थे, उनके आसपास तरुण और उत्साही साहित्यकारों की पूरी जमात तैयार हुई, अतः इस युग को भारतेन्दु-युग की संज्ञा देना उचित है।
 डा. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने लिखा है कि 'प्राचीन से नवीन के संक्रमण काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भारतवासियों की नवोदित आकांक्षाओं और राष्ट्रीयता के प्रतीक थे; वे भारतीय नवोत्थान के अग्रदूत थे।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने प्रभूत साहित्य रचा एवं अनेक साहित्यकारों को अपनी प्रतिभा से प्रभावित एवं प्रेरित किया। इन लेखकों में बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', राधाचरण गोस्वामी एवं रायकृष्णदास प्रमुख हैं। इन्होंने हिन्दी-साहित्य को समृद्ध बनाया। यही भारतेन्दु का समकालीन एवं सहयोगी साहित्यकार मण्डल 'भारतेन्दु मण्डल' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हिन्दी साहित्य में यह समय भारतेन्दु युग के नाम से अभिहित किया जाता है।

भारतेंदु मण्डल

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885)
बदरी नारायण प्रेमघन (1855-1923)
 प्रताप नारायण मिश्र (1856-1894)
राधाकृष्ण दास (1865-1907)
 अम्बिका दत्त व्यास (1858-1900)
 और ठाकुर जगमोहन सिंह (1857-1899)

आदि इस युग के प्रमुख कवि हैं। अन्य कवियों में रामकृष्ण वर्मा, श्री निवासदास, लाला सीताराम, राय देवी प्रसाद, बालमुकुन्द गुप्त, नवनीत चौबे आदि हैं।

भारतेन्दु युग के कवि और कृतियाँ-

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र(1850-1885)

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। हिंदी में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्यासुन्दर (1867) नाटक के अनुवाद से होती है। यद्यपि नाटक उनके पहले भी लिखे जाते रहे किन्तु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेन्दु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया।इन्होंने 'हरिश्चंद्र चन्द्रिका', 'कविवचनसुधा' और 'बाला बोधिनी' पत्रिकाओं का संपादन भी किया। ये एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार थे। इसके अलावा ये लेखक, कवि, संपादक, निबंधकार, एवं कुशल वक्ता भी थे।भारतेन्दु जी ने मात्र चौंतीस वर्ष की अल्पायु में ही विशाल साहित्य की रचना की। उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से इतना लिखा और इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक बन गया।

प्रमुख कृतियाँ

मौलिक नाटक-

वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873ई., प्रहसन)
सत्य हरिश्चन्द्र (1875,नाटक)
श्री चंद्रावली (1876, नाटिका)
विषस्य विषमौषधम् (1876 भाण)
भारत दुर्दशा (1880, नाट्य रासक),
नीलदेवी (1881, ऐतिहासिक गीति रूपक)।
अंधेर नगरी (1881, प्रहसन)
प्रेमजोगिनी (1875, प्रथम अंक में चार गर्भांक, नाटिका)
सती प्रताप (1883,अपूर्ण, केवल चार दृश्य, गीतिरूपक, बाबू राधाकृष्णदास ने पूर्ण किया)

अनूदित नाट्य रचनाएँ-

विद्यासुन्दर (1868,नाटक, संस्कृत 'चौरपंचाशिका’ के यतीन्द्रमोहन ठाकुर कृत बँगला संस्करण का हिंदी अनुवाद)
पाखण्ड विडम्बन (कृष्ण मिश्र कृत ‘प्रबोधचंद्रोदय’ नाटक के तृतीय अंक का अनुवाद)
धनंजय विजय (1873, व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद)
कर्पूर मंजरी (1875, सट्टक, राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद)
भारत जननी (1877,नाट्यगीत, बंगला की 'भारतमाता'के हिंदी अनुवाद पर आधारित)
मुद्राराक्षस (1878, विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद)
दुर्लभ बंधु (1880, शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद)

निबन्ध संग्रह-

कालचक्र (जर्नल)
लेवी प्राण लेवी
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?
कश्मीर कुसुम
जातीय संगीत
संगीत सार
हिंदी भाषा
स्वर्ग में विचार सभा
काव्यकृतियां-
भक्तसर्वस्व (1870)
प्रेममालिका (1871)
प्रेम माधुरी (1875)
प्रेम-तरंग (1877)
उत्तरार्द्ध भक्तमाल (1876)
प्रेम-प्रलाप (1877)
होली (1879)
मधु मुकुल (1881)
राग-संग्रह (1880)
वर्षा-विनोद (1880)
विनय प्रेम पचासा (1881)
फूलों का गुच्छा- खड़ीबोली काव्य (1882)
प्रेम फुलवारी (1883)
कृष्णचरित्र (1883)
दानलीला
तन्मय लीला
नये ज़माने की मुकरी
सुमनांजलि
बन्दर सभा (हास्य व्यंग)
बकरी विलाप (हास्य व्यंग)

कहानी-

अद्भुत अपूर्व स्वप्न

यात्रा वृत्तान्त-

सरयूपार की यात्रा
लखनऊ

आत्मकथा-

एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती

उपन्यास-

पूर्णप्रकाश
चन्द्रप्रभा

बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन(1855-1923ई.) 

प्रेमघन की रचनाओं का क्रमशः तीन खंडों में विभाजन किया जाता है :
 1. प्रबंध काव्य
2. संगीत काव्य
3. स्फुट निबंध।
ये कवि ही नहीं उच्च कोटि के गद्यलेखक और नाटककार भी थे। गद्य में निबंध, आलोचना, नाटक, प्रहसन, लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का निर्वाह किया है खड़ी बोली गद्य के ये प्रथम आचार्य थे। इन्होंने कई नाटक लिखे हैं जिनमें "भारत सौभाग्य" 1888 में कांग्रेस महाधिवेशन के अवसर पर खेले जाने के लिए लिखा गया था।

प्रेमघन जी का काव्यक्षेत्र विस्तृत है। वे ब्रजभाषा को कविता की भाषा मानते थे।प्रेमघन जी ने जिस प्रकार खड़ी बोली का परिमार्जन किया, उनके काव्य से स्पष्ट है। "बेसुरी तान" शीर्षक लेख में आपने भारतेन्दु की आलोचना करने में भी चूक न की। प्रेमघन कृतियों का संकलन उनके पौत्र दिनेशनारायण उपाध्याय ने किया है जिसका "प्रेमघन सर्वस्व" नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन ने दो भागों में प्रकाशन किया है। प्रेमघन, हिंदी साहित्य सम्मेलन के तृतीय कलकत्ता अधिवेशन के सभापति (सं. 1912) मनोनीत हुए थे।

कृतियाँ

भारत सौभाग्य
 प्रयाग रामागमन,
 संगीत सुधासरोवर,
भारत भाग्योदय काव्य।

गद्य पद्य के अलावा इन्होंने लोकगीतात्मक कजली, होली, चैता आदि की रचना भी की है जो ठेठ भावप्रवण मीरजापुरी भाषा के अच्छे नमूने हैं और संभवत: आज तक बेजोड़ भी। कजली कादंबिनी में कजलियों का संग्रह है।

पत्रिका –
 1881 को मिर्जापुर से 'आनन्द कादम्बनी'  संपादित की ।

प्रताप नारायण मिश्र(1856-1894ई.) 

प्रतापनारायण मिश्र भारतेंदु के विचारों और आदर्शों के महान प्रचारक और व्याख्याता थे। वह प्रेम को परमधर्म मानते थे। हिंदी, हिंदू, हिदुस्तान उनका प्रसिद्ध नारा था। समाजसुधार को दृष्टि में रखकर उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे हैं। बालकृष्ण भट्ट की तरह वह आधुनिक हिंदी निबंधों को परंपरा को पुष्ट कर हिंदी साहित्य के सभी अंगों की पूर्णता के लिये रचनारत रहे। एक सफल व्यंग्यकार और हास्यपूर्ण गद्य-पद्य-रचनाकार के रूप में हिंदी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है।

मिश्र जी की मुख्य कृतियाँ निम्नांकित हैं :

 नाटक-

गो संकट, भारत दुर्दशा,
 कलिकौतुक, कलिप्रभाव,
हठी हम्मीर। जुआरी-खुआरी (प्रहसन)।
 संगीत शाकुंतल (कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुंतलम' का अनुवाद)।

निबन्ध संग्रह-

निबंध नवनीत,
 प्रताप पीयूष,
 प्रताप समीक्षा

अनूदित गद्य कृतियाँ: 

राजसिंह, अमरसिंह,
इन्दिरा, राधारानी,
युगलांगुरीय, चरिताष्टक,
 पंचामृत, नीतिरत्नमाला,
बात

कविता 

 प्रेम पुष्पावली, मन की लहर,
 ब्रैडला स्वागत, दंगल खंड,
 तृप्यन्ताम्, लोकोक्तिशतक,
 दीवो बरहमन (उर्दू)।

जगमोहन सिंह(1857-1899ई.)

इनके तीन काव्यसंग्रह प्रकाशित हैं :

 "प्रेम-संपत्ति-लता" (सं. 1942 वि.),
 "श्यामालता", और
 "श्यामासरोजिनी" (सं. 1943)।

इसके अतिरिक्त इन्होंने कालिदास के "मेघदूत" का बड़ा ही ललित अनुवाद भी ब्रजभाषा के कबित्त सवैयों में किया है। हिंदी निबंधों के प्रथम उत्थान काल के निबंधकारों में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।

अम्बिकादत्त व्यास(1858-1900ई.)

इन्होंने कवित्त सवैया की प्रचलित शैली में ब्रजभाषा में रचना की। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकालीन हिन्दी सेवियों में पंडित अंबिकादत्त व्यास बहुत प्रसिद्ध लेखक और कवि हैं।

कृतियाँ

बिहारी बिहार (1878ई.)
पावस पचास,
ललिता (नाटिका)1884 ई.
गोसंकट (1887ई.)
आश्चर्य वृतान्त 1893 ई.
गद्य काव्य मीमांसा 1897 ई.,
हो हो होरी।

राधाकृष्ण दास(1865-1907ई.)

कृतियाँ

नागरीदास का जीवन चरित ,
 हिंदी भाषा के पत्रों का सामयिक इतिहास,
 राजस्थान केसरी वा महाराणा प्रताप सिंह नाटक,
भारतेन्दु जी की जीवनी, रहिमन विलास आदि हैं।
'दुःखिनी बाला ', 'पद्मावती ' तथा 'महाराणा प्रताप '
 नाटक बहुत प्रसिद्ध हुए।
 1889 में लिखित उपन्यास 'निस्सहाय हिन्दू ' में
हिन्दुओं की निस्सहायता और मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता का चित्रण है।
 भारतेन्दु विरचित अपूर्ण हिन्दी नाटक 'सती प्रताप ' को
 इन्होने इस योग्यता से पूर्ण किया है कि
 पाठकों को दोनों की शैलियों में कोई अन्तर ही नहीं प्रतीत होता।

नवनीत चतुर्वेदी(1868-1910ई.)

जगन्नाथ दास रत्नाकर के गुरु नवनीत जी की प्रसिद्ध कृति कुब्जा पच्चीसी है।


भारतेन्दुयुगीन कविता की मुख्य प्रवर्तियाँ

इस युग की अधिकांश कविता वस्तुनिष्ठ एवम् वर्णनात्मक है। छंद, भाषा एवम् अभिव्यंजना पद्धति में प्राचीनता अधिक है, नवीनता कम। खड़ी बोली का आन्दोलन प्रारम्भ हो चुका था किन्तु कविता के क्षेत्र में ब्रज ही सर्वमान्य भाषा रही।

देश-भक्ति और राष्ट्रीय-भावना : 

इस काल की कविता की मुख्य प्रवृति देशभक्ति की है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत का शासन कंपनी के हाथ ब्रिटिश सरकार ने ले लिया था। जिससे जनता को शांति और सुरक्षा की आशा बँधी। इसलिए कविता में राज-भक्ति का स्वर सुनाई पड़ता है। इसमें ब्रिटिश शासकों की गुलामी के साथ-साथ देश की दशा सुधारने की प्राथना भी है। जैसे,
करहु आज सों राज आप केवल भारत हित,
केवल भारत के हित साधन में दीजे चित। (प्रेमघन)
इस युग के कवि देश की दयनीय दशा से उत्पन्न क्षोभ के कारण ईश्वर से प्रार्थना करते हैं-

कहाँ करुणानिधि केशव सोए?
जानत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए। (भारतेन्दु)

तो कहीं-कहीं उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए स्वतंत्रता का महत्व बताया है-

सब तजि गहौ स्वतंत्रता, नहिं चुप लातै खाव।
राजा करै सो न्याव है, पाँसा परे सो दाँव।।

जनवादी विचारधारा : 

भारतेन्दुयुगीन कविता की दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति है- जनवादी विचारधारा। डॉ. रामविलास शर्मा के मतानुसार भारतेन्दु युग की जनवादी भावना उसके समाज-सुधार में समायी हुई है। इस युग का साहित्य भारतीय समाज के पुराने ढाँचे से संतुष्ट न होकर उसमें सुधार चाहता था। इस युग के कवियों ने समाज के दोष युक्त अंग की आलोचना की है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

भारतेन्दु युगीन कविता में साम्प्रत समाज की दशा का, विदेशी सभ्यता के संकट का, पुराने रोजगार के बहिष्कार का स्वर दिखाई देता है। इस युग में दो विचार-धाराएँ दिखाई देती हैं-
 1.पुराणवादी परंपरा के समर्थकों की और
2. आधुनिक व्यापक दृष्टि वालों की।
किन्तु भारतेन्दु ने मध्यम मार्ग अपनाया । भारतेन्दु ने सामाजिक दोषों, रूढ़ियों, कुरीतियों का घोर विरोध किया है। उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले ढोंग की पोल खोल दी है। छुआछूत के प्रचार के प्रति क्षोभ के स्वर कवि में हैं। प्रतापनारायण मिश्र स्त्रियों की शिक्षा के पक्षपाती हैं, बाल-विवाह के विरोधी तथा विधवाओं के दुख से दुखी है।

प्राचीन परिपाटी की कविता : भक्ति और शृंगार

- इस युग में प्राचीन परिपाटी का कविता का सृजन हुआ था। भक्ति और शृंगार की परंपराएं इस युग तक चलती रही, परिणाम भारतेन्दु तथा अन्य कवियों ने इसका अनुसरण किया। कुछ कवियों ने नख-शिख वर्णन किया तो कुछ ने दान-लीला, मृगया की रीतिकालीन पद्धति अपनायी। इस प्रकार इस युग की कविता में भक्ति, श्रृंगार एवम् प्रेम-वर्णन के सुंदर नमूने मिलते हैं। जैसे,
ब्रज के लता पता मोहि कीजै।
गोपी पद पंकज पावन की रव जायैं सिर घीजै।। (भारतेन्दु)
साजि सेज रंग के महल में उमंग भरी।
पिय गर लागी काम-कसक मिटायें लेत।

कलात्मकता का अभाव : 

भारतेन्दुयुगीन कविता की चौथी मुख्य प्रवृत्ति है- कलात्मकता का अभाव। नवयुग की अभिव्यक्ति करने वाली यह कविता कलात्मक न हो सकी। इस युग के कवि तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवम् भाषा संबंधी समस्याओं में इतने व्यस्त थे कि वे नवयुग की चेतना को कलात्मक एवम् प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त न कर सके और उसमें सर्वत्र यथार्थ की अनुभूति की सच्चाई सरल भाषा-शैली में अभिव्यक्त हुई। यह काल में विचारों का संक्रांति काल था जिसके कारण में इसमें कलात्मकता का अभाव रहा। इस युग में कवि समाचार-पत्रों द्वारा अपनी कविता का प्रचार करते थे, इसलिए उन्हें इसे काव्यपूर्ण बनाने की चिंता नहीं थी।भाषा का अस्तित्व और नागरी आंदोलन के कारण भी कविता कलात्मकता धारण न कर सकी। क्योंकि इस आंदोलन के लिए कवियों को जनमत जागरित करना था जो कि जनवाणी से ही संभव था।

खंडन-मंडन की बातें सब करते सुनी सुनाई।
गाली देकर हाय बनाते बैरी अपने भाई।।
हैं उपासना भेद न उसके अर्थ और विस्तार।
सभी धर्म के वही सत्य सिद्धांत न और विस्तारो।।
काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग : इस काल की भाषा प्रमुख रूप से ब्रजभाषा ही रही। खड़ीबोली गद्य तक ही रही थी। किन्तु इस युग के अंतिम दिनों में खड़ीबोली में कविता करने का आन्दोलन प्रारम्भ हो गया था, जिसके कारण द्विवेदी युग में कविता के क्षेत्र में खड़ीबोली का प्रयोग शुरू हो जाता है। बद्रीनारायण चौधरी, अंबिकादत्त व्यास, प्रतापनारायण मिश्र आदि कवियों ने भारतेन्दु काल में खड़ीबोली में कविता करने का प्रयास किया था। जैसे-

हमें जो हैं चाहते निबाहते हैं प्रेमघन,
उन दिलदारों से ही,मेल मिला लेते हैं। (प्रेमघन)
भारतेन्दु की खड़ी बोली का एक उदाहरण देखें-

साँझ सबेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है।
हम सब एक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार सबेरा है॥
इससे स्पष्ट है कि भारतेन्दु युग में खड़ी बोली में उच्चकोटि की रचना नहीं मिलती। इसका कारण स्पष्ट है कि इस युग ब्रज भाषा पर रिझे हुए थे। इस प्रकार भाव-व्यंजना का प्रधान माध्यम ब्रजभाषा ही रही।

हास्य-व्यंग्य एवम् समस्या पूर्ति :

इस युग में हास्य-व्यंग्यात्मक कविताएँ भी काफी मात्रा में लिखी गई। सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों तथा पाश्चात्य संस्कृति पर करारे व्यंग्य किए गए। इस दृष्टि से प्रेमघन और प्रतापनारायण मिश्र की रचनाएँ सर्वोत्तम हैं। समस्या-पूर्ति इस युग की काव्य-शैली थी और उनके मंडल के कवि विविध विषयों पर तत्काल समस्यापूर्ति किया करते थे। रामकृष्ण वर्मा, प्रेमघन, ब्रेनी ब्रज आदि कवि तत्काल समस्या-पूर्ति के लिए प्रसिद्ध थे।

प्राचीन छंद-योजना :

 भारतेन्दु युग में कवियों ने छन्द के क्षेत्र में कोई नवीन एवम् स्वतंत्र प्रयास नहीं किया। इन्होंने परम्परा से चले आते हुए छन्दों का उपयोग किया है। भक्ति और रीति काल के कवित्त, सवैया, रोला, दोहा, छप्पय आदि छंदों का इन्होंने प्रयोग किया। जब कि जातीय संगीत का सादारम लोगों में प्रचार करने के लिए भारतेन्दु ने कजली, ठुमरी, खेमटा, कहरवा, गज़ल, श्रद्धा, चैती, होली, सांझी, लावनी, बिरहा, चनैनी आदि छन्दों को अपनाने पर जोर दिया था।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस युग में परम्परा और आधुनिकता का संगम है। कविता की दृष्टि से यह संक्रमण का युग था। कवियों के विचारों में परिवर्तन हो रहा था। परम्परागत संस्कारों का पूर्ण रूप से मोहभंग हुआ भी न था और साथ में नवीन संस्कारों को भी वे अपना रहे थे। काशी नवजारण का प्रमुख केन्द्र था और यहां का साहित्यिक परिवेश भी सर्वाधिक जागरूक था। तत्कालीन परिवर्तनशील सामाजिक मूल्यों का भी उन पर प्रभाव पड़ रहा था।

भारतेन्दुकालीन साहित्य का विवेचन


उपन्यास

भारतेन्दु काल में हिन्दी की उप विधा का विकास हुआ। पण्डित बालकृष्ण भट्ट का 'सौ अजान एक सुजान' इस समय का उपदेश-प्रधान आदर्शवादी उपन्यास है। इसमें उस परिपूर्ण श्यामा-स्वप्न उपन्यास काव्य-सौन्दर्य से भरा हुआ है। अम्बिकादत्त व्यास का 'आश्चर्य वृत्तान्त', बालकृष्ण भट्ट का 'नूतन ब्रहमचारी' और राधाकृष्णदास का 'निःसहाय हिन्दू' इस काल के अन्य उपन्यास हैं।

कहानी

कहानी का क्रमबद्ध विकास भारतेन्दु युग से होता है। इस युग में केवल बंगला तथा अंग्रेजी कहानियों के अनुवाद हुए। मौलिक रूप में जो कहानियां लिखी गईं, उन पर इनका प्रभाव दिखाई देता है। भारतेन्दु जी ने एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न नामक कहानी लिखी, जिसे अधिकांश विद्वान हिन्दी की प्रथम साहित्यिक तथा मौलिक कहानी मानते हैं। सरस्वती पत्रिका के प्रकाशन के साथ-साथ हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियां प्रकाश में आयीं। सरस्वती के प्रारम्भिक कहानी लेखकों में किशोरीलाल गोस्वामी, पार्वतीनन्दन, बंग महिला, रामचन्द्र शुक्ल, डॉ0 भगवानदास आदि प्रमुख हैं।

नाटक

इस युग में मौलिक तथा अनूदित दोनों ही प्रकार के नाटक लिखे गये। भारतेन्दु के मौलिक नाटकों में चन्द्रावली, नीलदेवी, भारत-दुर्दशा प्रमुख हैं। अनूदित नाटकों में कुछ बंगला से और कुछ संस्कृत से अनूदित हैं। इस काल में प्रतापनारायण मिश्र ने गौ संकट, कलि प्रभाव, ज्वारी-ख्वारी, हमीर-हठ, राधाकृष्णदास ने महारानी पद्मावती, महाराणा पताप, दुखिनी बाला, बाबू गोकुलचन्द ने बूढ़े मुंह मुहासे, लोग चले तमाशे, आदि नाटक लिखे। श्रीनिवास दास, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, अम्बिकादत्त व्यास आदि इस काल के अन्य नाटककार हैं।

निबन्ध

हिन्दी में निबन्ध साहित्य का प्रारम्भ भारतेन्दु युग की पत्र-पत्रिकाओं से होता है। प्रायः तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में उनके सम्पादक उस समय की सांस्कृतिक तथा राजनीतिक समस्याओं पर लेख लिखा करते थे। भारतेन्दु ने सर्वप्रथम कविवचन सुधा तथा हरिश्चन्द्र मैगजीन में साहित्यिक ढंग से निबन्ध लिखे। इसके बाद पं प्रतापनारायण मिश्र तथा पं बालकृष्ण भट्ट तथा बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन ने क्रमषः हिन्दी प्रदीप, ब्राहमण तथा आनन्द कादम्बिनी नामक पत्रिकाओं में निबन्ध लिखे, जिन्हें साहित्यिक कोटि के निबन्ध कहा जाता है। इसी समय पं.बालकृष्ण भट्ट ने विनोदपूर्ण तथा गम्भीर षैली में विवेचनात्मक, आलोचनात्मक तथा भावात्मक निबंध लिखे। बालमुकुन्द गुप्त, प्रेमघन, अम्बिकादत्त व्यास, राधाचरण गोस्वामी इस युग के अन्य प्रसिद्ध निबन्ध लेखक हैं।

आलोचना

भारतेन्दु युग में गद्य के अन्य अंगों के साथ-साथ आलोचना विधा भी नया रूप धारण कर आगे बढ़ी। उसके स्वरूप और प्रकार में नये तत्वों का समावेश हुआ। साहित्यिक विवेचना में बौद्धिकता की प्रधानता हो गयी। उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक आदि के साथ-साथ उनकी आलोचनाएं भी लिखी जाने लगीं। इस नवीन आलोचना के विकास में तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं का प्रमुख हाथ रहा। इस समीक्षा के प्रवर्त्तकों में भारतेन्दु, प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट, श्री निवास दास, बालमुकुन्द गुप्त, प्रतापनारायण मिश्र, गंगाप्रसाद अगिनहोत्री आदि प्रसिद्ध हैं।'आनन्द कादम्बिनी' नामक पत्रिका के द्वारा प्रेमघन ने पुस्तकों की विस्तृत तथा गम्भीर आलोचना प्रारम्भ की। इन्होंने श्रीनिवास दास के संयोगिता स्वयंवर नाटक की बड़ी विशद् और कड़ी आलोचना लिखकर प्रकशित की।







                  

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