हिन्दी कहानी भाग-1 Hindi story part-1
हिन्दी कहानी का विकास
गद्य की सबसे सशक्त विधा हिन्दी कहानी का वास्तविक प्रारंभ भारतेंदु काल के उपरान्त 20 वी शती के आरम्भ मे हुआ । इस युग से पूर्व ' बेताल पचीसी ' , ' सिंहासन बत्तीसी ' आदि कथाओं का संस्कृत से अनुवाद किया गया था । कुछ लोग गोकुलनाथ की ' चौरासी वैष्णवन की वाता ' को हिन्दी की पहली गद्य - कहानियों का संग्रह मानते है । जिसमें प्रमुख कृष्णभक्त वैष्णवों का जीवन - चरित दिया गया है । परन्तु इन्हे कहानी न मानकर पुरानी शैली के जीवन - चरित मानना ही अधिक उचित है । लल्लु लालजी , सदल मिश्र, इंशाअल्ला खाँ के ग्रन्थ एक प्रकार से विभिन्न कथाओं के संग्रह मात्र माने जा सकते है । अगर ' कहानी ' शब्द मात्र से कहानी का अर्थ लिया जाए तो ' रानी केतकी की कहानी हिन्दी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी मानी जानी चाहिए । इसमें कथा को छोड़कर कहानी के अन्य तत्वों का अभाव है । इसी प्रकार राजा - शिवप्रसाद सितार - ए - हिन्द ' द्वारा लिखित ' राजा भोज का सपना ' तथा ' वीरसिंह वृतान्त ' को भी पूर्ण रूप से कहानी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि इसमे चरित्र चित्रण और कथोपकथन अभाव है । भारतेंदु युग के अन्त मे उपन्यास तो लिखे जाने लगे थे परन्तु कहानियाँ लिखना आरम्भ न हो पाया था । उपन्यासो की भाँति भारतेंदु युग में बंग्ला , मराठी और अंग्रेजी से कुछ कहानियों का अनुवाद अवश्य किया गया । हिन्दी कहानी के विकास का अध्ययन करने के लिए यदि हम कथा सम्राट मुशी प्रेमचन्द को केन्द्र - बिन्दु मान लें तो उसे चार भागों में विभाजित कर सकते हैं
- प्रेमचन्द पूर्व कहानी
- प्रेमचन्द युगीन कहानी
- प्रेमचन्दोत्तर कहानी
- नई कहानी ( स्वातंत्र्योत्तर कहानी )
प्रेमचन्द पूर्व कहानी
इस काल मे हिन्दी कहानी अपना स्वरूप ग्रहण कर रही थी। सरस्वती पत्रिका ने हिंदी कहानी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसमें सबसे पहले किशोरीलाल गोस्वामी की ' इन्दुमती ' नामक कहानी प्रकाशित हुई ।' बंग महिला ' नामक एक महिला ने कूछ मौलिक कहानियाँ लिखी , जिसमें ' दुलाईवाली कहानी प्रसिद्ध है । इसी समय से श्री भगवानदास ने ' प्लेग की चुडैल ' , रामचन्द्र शुक्लजी ने ' ग्यारह वर्ष का समय ' तथा गिरिजादत्त याजपेयी ने पंडित और पंडितानी ' नामक कहानियाँ लिखी । इनमें से मार्मिकता की दृष्टि से ' इन्दुमती ' , ' ग्यारह वर्ष का समय ' तथा ' दुलाईवाली ' ही हिन्दी की मौलिक साहित्यिक कहानियाँ मानी जा सकती है । आचार्य शुक्ल ' इन्दुमती ' को हिन्दी की पहली सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते है । इसके के उपरान्त 1909 में जयशंकर प्रसाद की कहानियां ' इन्दु ' नामक पत्रिका में प्रकाशित होने लगी , जिसने हिन्दी कहानी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया । इसी पत्रिका में प्रसाद की प्रथम कहानी ' ग्राम ' प्रकाशित हुई । इसी समय प . विश्वम्बर नाथ शर्मा ने भी कहानी लिखना प्रारम्भ किया । उनकी पहली कहानी ' रक्षा बन्धन ' सरस्वती में छपी । इसी प्रकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की पहली कहानी ' कानों में कंगना ' ' इन्दु ' में प्रकाशित हुई ।इन्दु का योगदान
आधुनिक कहानी के विकास की परम्परा ' इन्दु ' के प्रकाशन के साथ सन् 1909 से आरम्भ होती है । ' इन्दु ' ने एक ओर नवीन कहानीकारों को प्रोत्साहन प्रदान किया और , दूसरी ओर उसके कारण कहानी की कला में सुधार हुआ , साथ ही कहानी के उद्देश्य सामने आये । हिन्दी कहानी का भाग्य ‘प्रसाद’ के इस क्षेत्र मे पदार्पण करते ही चमक उठा । इन्होंने अनेक कहानियों का सृजन किया जिनमें आकाशदीप , छाया , प्रतिध्वनि, आँधी , इन्द्रजाल , स्वर्ग के खण्डहर आदि कहानियाँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। प्रसादजी की कहानियों ने कौतुहल की प्रधानता है । इनकी ओजपूर्ण संस्कृत - निष्ठ शैली कथा के अनुरुप उचित वातावरण उत्पन्न कर उसके प्रभाव को अत्यधिक धनीभूत बना देती है । अंतर्द्वंद्व और भावानुकूल प्रकृति चित्रण इनकी विशेषता है । चरित्र - चित्रण , कथोपकथन आदि के कलात्मक रूप ने इनकी कहानियों में अपूर्व नाटकीयता , रमणीयता का समावेश कर दिया है । राजा राधिकारमण प्रसादसिंह की ‘ कानों में कंगना ' नामक कहानी अत्यन्त लोकप्रिय हुई । विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक ' की पहली कहानी ' रक्षाबन्धन ' ' सरस्वती ' में प्रकाशित हुई । कौशिक की कहानियों में पारिवारिक जीवन का चित्रण विशेष रूप में हुआ है । इनका पारिवारिक जीवन अध्ययन , निरीक्षण , मनन गम्भीर और सूक्ष्म था । उनकी ताई ' नामक कहानी- इस दृष्टि से उल्लेखनीय है । इस युग के कहानी लेखकों में ज्यालादत्त शर्मा और चतुरसेन शास्त्री के नाम भी उल्लेखनीय है । सन् 1915 में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की प्रथम कहानी उसने कहा था ' प्रकाशित हुई । यह कहानी पवित्र प्रेम के लिए किये गए निस्वार्थ बलिदान की कहानी है । शुक्लजी के शब्दों में " इसमे यथार्थवाद के बीच सुरूचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यन्त निपुणता के साथ संपुटित है । इनकी घटनाएँ बोल रही है , पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं । ' इस कहानी ने गुलेरीजी को अमर बना दिया है । हिन्दी की यही सबसे पहली सागपूर्ण यथार्थवादी कहानी है जो कला के प्रत्येक अंग पर खरी उत्तरती है । वस्तुतः ' उसने कहा था ' से ही हिन्दी कहानी का वास्तविक विकास मानना चाहिए ।प्रेमचंद युग
मुंशी प्रेमचंद आरम्भ में उर्दू में कहानियों लिखते थे , जिनमें राष्ट्रीय भावना का उन्मेष रहता था । ' सोजे वतन ' ( सन 1907 में प्रकाशित ) उनका पहला उर्दू में लिखा बहुचर्चित कहानी संग्रह था । उसमें व्यक्त तीखी राष्ट्रीय भावना से नाराज होकर अंग्रेज सरकार ने इसे जब्त कर लिया । इसके बाद प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानियाँ लिखना प्रारंभ किया । हिन्दी कहानी के द्वितीय उत्थान के अन्तिम चरण में सामायिक , सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण करनेवाली प्रेमचंद की कहानियाँ प्रकाश में आई । प्रेमचंद के इस क्षेत्र में आने से हिन्दी कहानी - साहित्य में एक अपूर्व परिवर्तन आया । ये जनता के लेखक थे । अपनी कहानियों द्वारा इन्होंने किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व किया , जो पहले साहित्य अछूत माने जाते थे । इनकी कहानियाँ प्राय : घटना - प्रधान है । इनका सांसारिक जीवन का ज्ञान अत्यन्त विस्तृत और सूक्ष्म था । इसी से वे अपनी कहानियों में हमारी सामयिक , राजनीतिक , आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं एवं आन्दोलनों का सफल चित्रण करने में सफल हो सकें । कामना तरु ' , ' आत्माराम ' , ' कफन ' , ' पूस की रात ' , ' शतरंज के खिलाडी ' , ' बड़े घर की बेटी ' , आदि इनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से है । सुदर्शन को प्रेमचंद का उत्तराधिकारी माने जाता है । हिन्दी के लगभग सभी उपन्यासकारों ने कहानियाँ लिखी । कुछ कवियों ने भी कहानियाँ लिखी है , जैसे पंत , निराला , महादेवी , भगवतीचरण वर्मा आदि । जो कला और प्रभाव की दृष्टिसे बहुत ही सुन्दर कहानियाँ मानी गई है । - इस को प्रसाद - प्रेमचन्द्र युग कहा जाता है । प्रसादजी ने कुल मिलाकर लगभग 70 कहानियाँ लिखी । इनकी कहानियाँ भाव और शैली की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान रखती है । प्रेमचन्दजी ने लगभग 225 कहानियां लिखी जिनमें जीवन के विविध अंगो पर प्रकाश डाला गया तथा कथानक समाज के मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग के जीवन से लिये गए । इस प्रकार कहानी साहित्य का यह उत्थान सामाजिक तथा आदर्शवादी दृष्टिकोण लेकर आया । इस युग के अन्य प्रमुख कहानीकार है - विनोदशंकर व्यास , रामकृष्णदास , चण्डी प्रसाद हृदयेश , चतुर सेन शास्त्री , वाचस्पति पाठक , विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक ' सुदर्शन , जेनेन्द्र कुमार , पाण्डेय बेचन शर्मा ' उग्र ' यशपाल , भगवती प्रसाद बाजपेयी , शिवपूजन सहाय , पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी आदि ।ये भी देखें
प्रेमचन्दोतर युग
प्रेमचन्द के बाद के युग के कहानीकार पश्चिम के दो चिन्तको , कार्ल मार्क्स तथा फ्रायड से विशेष रूप से प्रभावित हुए । इस युग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कहानी के पात्र किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं । वे व्यक्ति के रूप में किसी न किसी मनोवैज्ञानिक समस्या से ग्रस्त दिखाई देते है । इस प्रकार की कहानी लिखने वालों में प्रमुख नाम है - जैनेन्द कुमार , रांगेय राघव , अज्ञेय तथा इलाचन्द जोशी । वैसे ये कहानीकार अपनी पूर्ववर्ती प्रसाद प्रेमचन्द्र परम्परा से भी सम्बद्ध दिखाई देते है । इस युग में दूसरे प्रकार के वे कहानीकार है जिन्होने प्रेमचन्द परम्परा को आगे बढ़ाया। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय नाम है - यशपाल , उपेन्द्र नाथ ' अश्क ' , चन्द्रगुप्त विद्यालंकार , विष्णू प्रभाकर , अमृतलाल नागर ,भगवती चरण वर्मा , वृन्दावन लाल वर्मा आदि । समाजवादी दृष्टिकोण से प्रभावित हिन्दी के अनेक कहानीकारों ने सामाजिक विसंगतियों को यथार्थपरक शैली में प्रस्तुत किया है । जैनेन्द्र एवं अज्ञेय का अधिक ध्यान सूक्ष्म चित्रवृत्तियों पर केन्द्रित था , जबकि समाजवादी लेखकों ने स्पष्ट रूप से समस्याओं का उद्घाटन किया है । मार्क्सवादी समाजवादी यशपाल ने अठारह कहानी संग्रह लिखे। यशपाल के लिए कहानी ' केवल मनोरंजक घटनाचक्र या विवरण नहीं है ' अपितु विचार की पुष्टि के लिए बुना गया दृष्टान्त है । यशपाल पात्र , खूटो पर टंगे हुए सत्य है । कुछ कहानियाँ ऐसी भी है जिनके पात्र लेखक पर हावी हो गये और उसके नियन्त्रण से बाहर हो जीवन की सीधी - सची बात कहते है । यशपाल एक क्रान्तिकारी प्रगतिवादी लेखक थे । लेखन उनके लिए आजीविका का साधन भी था और क्रान्ति का वाहक भी । उन्होंने समाज की गली - सड़ो मान्यताओं पर बड़े तीखे प्रहार किये । पिंजरे की उड़ान , वो दुनिया , तर्क का तुफान , फूलों का कुरता , उत्तमी की माँ आदि इनके प्रसिद्ध कहानी - संग्रह है । यशपाल की कहानियाँ उद्देश्यपरक , साफ - सुथरी और सशक्त है । मक्रील उत्तराधिकारी , चित्र का शीर्षक , प्रतिष्ठा का बोझ , एक प्याला , तुफान का दैत्य आदि इनको बहुचर्चित कहानियाँ है । चन्द्रगुप्त विद्यालंकार को कहानियाँ मे सामाजिक सरोकारों का चित्रण प्रभावी ढंग से हुआ है । चन्द्रकान्ता , भय का राज्य , अमावस ल्लेखनीय कहानी - संग्रह है । बालंकार की बाद की कहानियाँ प्रतीकात्मक है , जबकि पहले की कहानियाँ प्रेमचन्द्र परम्परा का अनुसरण करती है । मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित इस परम्परा के अन्य लेखकों में रांगेय राघव , अमृत , मनमथनाथ गुप्त , भैरव प्रसाद गुप्त के नाम अग्रगण्य है । रांगेय राघव की कहानी ' गदल ' एक अविस्मरणीय रचना है , जो एक गूजर स्त्री के पुरूष व्यक्तित्व एवं स्नेहिल जीवन की स्वच्छ धारा को रेखांकित करती है । स्वतन्त्रतापूर्व रचनाकारों में बहुत से ऐसे कहानीकार भी है , जो मार्क्सवादी नहीं है अपितु , सदाशय वृत्तियों का प्रतिपादन करते है । भगवतीचरण वर्मा ऐसे ही कहानीकार है । इनकी कहानियाँ इतिवृत्तात्यक शैली की है । ' प्रायश्चित ' इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कहानी है । गांधीवादी साहित्यकार विष्णू प्रभाकर की कहानियाँ सामाजिक सत्य को उद्घाटित करनेवाली उद्देश्यपरक कहानियाँ है । आम आदमी का दर्द इनकी कहानियों में एकाएक साकार हो उठता है । घरती अब भी घूम रही हैं , गृहस्थी , रहमान का बेटा , ठेका , जज का फैसला इनकी चर्चित कहानियाँ है । द्विजेन्द्रनाथ निर्गुण की कहानियाँ भावुक यथार्थ की रचनाएँ है । राधाकृष्ण की कहानियाँ व्यंग्य के तीखेपन के लिए ज्ञात है । ' रामलीला ' ऐसी ही कहानी है । महिला लेखकों में सुभद्राकुमारी चौहान की कहानियाँ सामाजिक यथार्थ की कहानियों है । इनके प्रमुख कहानी - संग्रह - है - बिखरे मोती और उन्मादिनी । नारी की समस्याएँ तथा भारतीय सन्दर्भ इनकी कहानियों में एकाएक मुखरित हो उठते हैं । इनकी ' पापी पेट ' कहानी बहुचर्चित रही है । शिवरानी देवी की कहानियाँ ' कौमुदी ' में संकलित है , जो उनके पति प्रेमचन्द की परम्परा का अनुसरण करती है । उषादेवी मिश्रा की कहानियाँ भावुकतापूर्ण है । मिश्र कहाँ , गोधुलि , मन का मोह आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ है । द्वितीय चरण में और भी कतिपय कहानिकार रहे है परन्तु अधिकांश ने प्रायः कहानी के उस स्वरूप को ही अपनाया है जो प्रेमचन्द , जैनेन्द्र अथवा अज्ञेय ने प्रसारित किया । सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कहानियाँ वस्तुत : एक कवि हृदय की कहानियाँ है । इस युग के अन्य उल्लेखनीय कहानीकार है , उमा नेहरु , शिवरानी देवी , उषादेवी मिश्रा , कमलादेवी चौधरी , शिवनाथ शर्मा , कृष्णदेव प्रसाद , गोरे बेडब बनारसी , अन्नपूर्णानन्द , अजीम बेग चुगताई , मोहन राकेश आदि ।नई कहानी
स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी कहानी को नए भारतीय परिवेश को प्रकट करने का सशक्त माध्यम बनाया गया और उसमें भाषा - शैली की विविधता आई । फलतः सन् 1950 के आस पास नयी कहानी के आन्दोलन की शुरुआत हुई और कहानी का नामकरण नयी कहानी कर दिया गया । नयी कहानी की प्रमुख विशेषता है - समाज के विभिन्न वर्गो एवं जीवन पक्षों का सूक्ष्म चित्रण । इस चित्रण में भाषा सम्बन्धी परिवर्तन भी आयके । सामाजिक सम्बन्धों में अलगाव एवं विखराव तथा व्यक्ति की विभिन्न मनःस्थितियों का चित्रण अनेक कहानियों में मिलता है । सन् 1960 के बाद की कहानियों का एक वर्ग आँचलिक कहानी के नाम से सामने आया । यह नामकरण उन कहानियों के लिए सार्थक हुआ जिनमे क्षेत्र विशेष की आधारभूत समस्याओं को स्थानीय भाषा भेद के साथ चित्रित किया गया । इन कहानियों में नव विकसित कस्बों की मनोवृत्तियोंको बड़ी ही मार्मिकता के साथ चित्रित किया गया । इन कहानियों में समाज के विभिन्न वर्गों में व्यक्त विशेषकर शासक - प्रशासक वर्ग में व्याप्त कमजोरियों का पर्दाफाश किया गया । अनेक हास्य - व्यग्य प्रधान कहानियाँ भी लिखी गई । नयी कहानी के प्रमुख लेखकों में निर्मल वर्मा , मोहन राकेश , राजेन्द्र यादव , भीष्म साहनी , कृष्ण बलदेव वैद , रमेश बरशी , मन्नू भण्डारी , उषा प्रियंवदा , शेखर जोशी , अमरकान्त , मार्कण्डेय , नरेश मेहता , ज्ञानरंजन , राजेन्द्र अवस्थी , रवीन्द्र कालिया , अनीता औलक के नाम उल्लेखनीय है ।प्रमुख कहानी आंदोलन
स्वातंत्रोत्तर युग में कई कहानी आन्दोलन सक्रिय हुए , जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है –सचेतन कहानी
नयी कहानी की प्रतिद्वंदिता में उभरा ' सचेतन कहानी आन्दोलन । कतिपय समीक्षकों का मानना है कि सचेतन कहानी का नारा उन कहानीकारों के द्वारा लगाया गया , जिनका नाम ' नयी कहानी ' के कर्णधारों और शिला - स्तम्भों की श्रेणी में आने से छूट गया था । इनमें आनन्द प्रकाश जैन , महीप सिंह , राजीव सक्सेना तथा श्याम परमार के साथ - साथ मनहर चौहान , योगेश गुप्त , वेद राही , सुरणबीर , जगदीश चतुर्वेदी , हिमांशु जोशी , धर्मेन्द्र गुप्त , हृदयेश आदि कहानीकारों के नाम उल्लेखनीय हैं । सचेतन कहानी के सूत्रधार आनन्द प्रकाश जैन एवं महीप सिंह है । डॉ . महीप सिंह ने सन् 1964 में बीस सचेतन कहानियों का एक सचेतन काहानी विशेषांक निकाला था । डॉ . महीप सिंह ने सचेतन कहानी को इस प्रकार परिभाषित किया है । " सचेतनता एक दृष्टि है । वह दृष्टि जिसमें जीवन जिया भी जाता है और जाना भी जाता है । अपने सक्रान्ति काल में चाहे हमें अपना जीवन अच्छा लगे या बुरा लगेपरन्तु जीवन से हमारी सम्पृक्ति टूटती नहीं । मनुष्य की प्रकृति जीवन से भागने की नहीं रही है । जीवन की ओर भागना ही उसकी नियति है । और जब जीना ही उसकी नियति है तो वह कैसे जिये सचेतना शायद इसका उत्तर है । "सहज कहानी
' सहज कहानी के प्रवर्तक अमृत राय हैं । सातवें दशक के प्रारम्भ में कविता की तर्ज पर अमृतराय ने ' सहज कहानी ' शब्द का प्रयोग किया और घोषित किया कि कहानी का लक्ष्य अपने कहानीपन को खोकर जीवन की प्रस्तुति सहज रुप में करते हुए जीवन से व्यवस्था की भ्रष्टता को उजागर करना है ।सक्रिय कहानी
सक्रिय कहानी आंदोलन के प्रवर्तक राकेश वत्स है । इस कहानी - परम्परा के रचनाकारों में रमेश बतरा , सुरेन्द्र सुकुमार , राकेश वत्स , सचिदानन्द घूमकेतु , कुमार सम्भव आदि के अतिरिक्त श्रवणकुमार , भीष्म साहनी , मणि मधुकर के नाम सम्मिलित हैं ।अ – कहानी
जिस प्रकार कविता में क्रमश : नयी कविता के पश्चात् ' अकविता ' का आगमन हुआ , लगभग उसी प्रकार कहानी में भी नयी कहानी के बाद ' अकहानी का प्रादुर्भाव हुआ । नयी कहानी और नयी कविता का व्यक्तिनिष्ठ यथार्थवाद अकविता और अ - कहानी में आकर घोर व्यक्तिवाद , अति यथार्थवाद और उच्छृखल यौनवाद में परिवर्तित हो गया । इस आन्दोलन से जुड़े हुए कहानीकारों में प्रमुख है - गंगा प्रसाद विमल , जगदीश चतुर्वेदी , श्याम परमार , दूधनाथ सिंह आदि । अ - कहानियों में अधिकांश कहानियाँ स्त्री - पुरुष के प्रेम - सम्बन्धों को ही चित्रित करती हैं ।समान्तर कहानी
अ - कहानी की भोगवादी प्रवृत्तियों की अतिशयता को लक्ष्य बनाते हुए कमलेश्वर ने धर्मयुग में ' ऐयाश प्रेतों का विद्रोह ' शीर्षक से लेखमाला के अन्तर्गत अ - कहानी के रचयिताओं की थोथी दार्शनिकता को उखाड़ फेंकने का नारा बुलन्द किया । समानान्तर का विचार - बीज लो सन् 1971 में बोया गया था। कामतानाथ , मधुकर सिंह इब्राहिम शरीफ , श्रवण कुमार , निरुपमा सेवती , मृदुला गर्ग आदि इस धारा के वरिष्ठ कहानीकार है ।आंचलिक कहानी
अनेक प्रकार के कहानी आन्दोलनों के समानान्तर ' आँचलिक ' कहानी भी अपनी चाल से बराबर गतिशील है । डॉ . शिवप्रसाद सिंह ने आंचलिक कहानी को इस प्रकार स्पष्ट किया है - " आँचलिक वे ही काहानियाँ कही जा सकती है , जो किसी जनपद के जीवन रहन - सहन , भाषा मुहावरे , को चित्रित करना ही अपना लक्ष्य मानें । आंचलिक तत्त्व ही उनके साध्य होते है । " सन् 1950 से आंचलिक कहानी लिखी जाती रही है और यह परम्परा निरन्तर प्रवहमान है क्योंकि यह कोई चकाचौंध उत्पन्न कर समाप्त होने वाला आन्दोलन नहीं है बल्कि यह तो ग्रामीण परिवेश की धड़कनों को चित्रांकित करने वाला अनुशासन है । तीसरी कसम , ठुमरी , रसप्रिया , लाल पान की बेगम ( फणीश्वरनाथ रेणु ) . हंसा जाई अकेला , सूर्या , माही ( मार्कण्डेय ) , बिन्दा महाराज , मुरदा सराय ( शिव प्रसाद सिंह ) , कपिला , हारा हुआ , भँवरे की जात ( शैलेश मटियानी ) , कोसी का घटवार ( शेखर जोशी ) , अँधेरे में ( मधुकर सिंह ) , करिए छिमा ( शिवानी ) , बैलेंस ( बदीउनमा ) , मकार ( इब्राहिम शरीफ ) , रथचक्र ( हिमांशु जोशी ) कचौध ( गोविन्द मिश्र ) , थूम्बू की राख ( खेमराज गुम सागर ) , नवमी की दहलीज ( किशोरीलाल वैद्य ) , पालनहारे ( बलराम ) , अलाव ( केशव ) , मीच्छर , दैट , फन्दा , मेमना ( सुशील कुमार फुल्ल ) . मंगलाचारी ( सुन्दर लोहिया ) , दंश ( सुदर्शन वशिष्ठ ) आदि चर्चित आंचलिक कहानियाँ है ।आज कहानी - क्षेत्र में कुछ महिलाएँ भी अपनी लेखनी का उपयोग कर रही है । इन में तेजरानी पाठक , कमला चौधरी , हेमवती , सत्यवती मलिक , शिवानी , मनु मंडारी , कृष्णा सोबती , मृणाल पांडे , सूर्यबाला , मेहरुन्निसा परवेज , दीप्ति खण्डेलवाल , ममता कालिया , शशीप्रभा शास्त्री , कृष्णा अग्निहोत्री , मालती जोशी , नासिरा शर्मा , नमिता सिंह , राजी सेठ , चन्द्रकान्ता , कुसुम अंसल , लता शुक्ल , सुनीता जैन , सुधा अरोरा , मंजुल भगत , अलका सराबगी , गीतांजलि श्री आदि प्रसिद्ध है । इसके अतिरिक्त पाश्चात्य कहानियों के कुछ अनुवाद भी किए है । इन कहानियों में कला के अनेक विधानो के साथ सामाजिक जीवन , इतिहास एवं संस्कृत के अनेक अंगो का स्पर्श किया है । बंगाल का अकाल , कलकत्ता और पंजाब के जनसंहार , युद्धकालीन अव्यवस्था , आर्थिक एवं नैतिक संघर्ष का चित्रण इन कहानियों में हुआ है । सस्ती व्यावसायिक मासिक पत्रिकाओं के कारण कहानी लेखकों की बाढ़ - सी आ गई है । हिन्दी कहानी आज भी कथ्य और शिल्प के नए प्रतिमान रचते हुए विकास की अनेक दिशाओं सें आगे बढ़ रही है ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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