हिन्दी साहित्य की गद्य विधाएं : उपन्यास (भाग-1)
Hindi prose genres: novels (PART-1)
हिन्दी साहित्य में उपन्यास
आधुनिक काल में विकसित गद्य विधाओं में उपन्यास का स्थान महत्वपूर्ण है। इस विधा का प्रथमतः बांगला और फिर उसके बाद हिन्दी में विकसित हुई । उपन्यास ' नॉवेल ' अग्रेजी के शब्द का ' हिन्दी पर्याय है । हिन्दी में ' उपन्यास ' शब्द व्युत्पत्ती और सार्थकता की दृष्टि से प्रयुक्त हुआ है । उपन्यास शब्द ' उप ' समीप तथा ' न्यास ' थाती के योग से निर्मित हुआ है । उपन्यास शब्द का मूल अर्थ है- निकट रखी हुई वस्तु । अर्थात हमारी कथा , भाषा , संस्कृती , प्रकृती को अपनी कहानी आदि को , अपनी जूबानी में व्यक्त करना उपन्यास कहलाता है। इसलीए प्रेमचंद ने उसकी परिभाषा देते हुए कहा है की , ' मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र मात्र समझता हूँ । मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है । " इस दृष्टि से उपन्यास की कथा मानव जीवन से जुड़ी और उसके व्यक्तित्व के रहस्यों को खोलने वाली होती है । वह कल्पनात्मक एवं यथार्थ होती है ।इसमें जीवन की सभी घटनाएं क्रमबद्ध रूप से पिरोई गयी होती है। दि न्यू इंग्लीश डिक्शनरी में इसी बात को पुष्ट किया गया है । उनके अनुसार ' नॉवेल ' गद्य में लिखी हुई पर्याप्त आकार की उस कल्पित कथा को कहते है जिसमें जीवन का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हुए पात्रों और कार्य - व्यापार कथानक के अन्तर्गत चित्रित हो । " बाबू गुलाबराय ने भी उपन्यास के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया है . " उपन्यास कार्यकारण श्रृंखला में बंधा हुआ वह गद्य - कथानक है जिसमें अपेक्षाकृत अधिक विस्तार तथा पेचीदिगी के साथ वास्तविक जीवन का प्रतिनिधित्व करनेवाले व्यक्तियों से संबंधित वास्तविक अथवा काल्पनिक घटनाओं द्वारा मानव जीवन के सत्य का रसात्मक रूप से उद्घाटन किया जाता है । " उसका मतलब यह है की उपन्यास की कथा वस्तुतः सत्य न होते , हुए भी सत्य प्रतीत होती है । इसीलिए उसे ' फिक्शन ' कहा गया है । भारत कथा आख्यान की परंपरा प्राचीन है परंतू उपन्यास ' नवीन ' ' नूतनता के अर्थ में आधुनिक है । इसका उदय युरोप में हुआ । जिसका प्रभाव बांग्ला ' से हिन्दी में आया , उन्नीसबी शताब्दी के प्रारंभ में नवजागरण के कालखंड में । सन 1877 को श्रद्धाराम फिलौरी ने ' भाग्यवती ' का लेखन किया परंतू आचार्य रामचंद्र शुक्ल अंग्रेजी ढंग का पहला मौलिक उपन्यास लाला श्रीनिवासदास के परीक्षागुरु' ( 1882) को मानते है । और यही मत स्वीकार्य : भी किया जाता है । भाग्यवती ' के भी पीछे जाकर कुछ विद्वान ' देवरानी - जेठानी की कहानी ' ( 1870 ) , वामा शिक्षक ( 1872 ) , को हिन्दी का पहला उपन्यास मानते हैं । बच्चन सिंह के अनुसार ' ये स्त्रीजनोजितशिक्षा - ग्रंथ है । इनमें औपन्यासिक तत्वों का आभाव है ।उपन्यास के विकास क्रम
- प्रेमचंद पूर्व युग ( 1877-1918 )
- प्रेमचंद युग (1918-1936)
- प्रेमचंदोत्तर युग
प्रेमचंद पूर्व युग ( 1877-1918)
प्रेमचंद पूर्व युग को कुछ विद्वानों ने भारतेन्दु युग के नाम से अभिहित किया है । वस्तुतः यह युग भारत में दुसरे नवजागरण का युग है ।यह हिन्दी उपन्यास का आरम्भिक चरण था। हिन्दी उपन्यास अपना आकर ग्रहण कर रहा था । इस युग के उपन्यासों का मुख्य उद्देश्य उपदेश व सुधारवादी था । इस युग में प्रमुखतः तीन तरह के उपन्यास लिखे गए- सामाजिक तथा ऐतिहासिक उपन्यास
- तिलस्मी - ऐय्यारी
- जासुसी उपन्यास
सामाजिक - ऐतिहासिक उपन्यास
अंग्रेजी ढंग का हिन्दी का प्रथम मौलिक सामाजिक उपन्यास ' परीक्षा गुरु ' ( 1882 ) का लेखन लाला श्रीनिवासदास ने किया । वस्तुत : बांग्ला के समान ही हिन्दी में भी समाज की आलोचना के रुप में उपन्यास का प्रवर्तन हुआ किन्तु बाद में मनोरंजन आदि भाव इसमें बढ़ते गये । फिर भी उपन्यास की मुल प्रवृत्ति मात्र सामाजिक , आलोचन की ही रही है । इस श्रेणी में श्रध्दाराम फिलौरी का ' भाग्यवती ' लाला श्रीनिवासदास का परीक्षा गुरु बालकृष्ण भट्टक सनातनी दृष्टिकोन और दूसरा सुधारवादी ' देवरानी जेठानी ' , ' वामा शिक्षक ' आदि में स्त्री सुधार , बाल विवाह विरोध , स्त्रियों का झगडालू स्वभाव , अंधविश्वास , और उपदेश की भरभार आदि इनकी विशेषता है । गोपाल राय ने ठीक कहा है की ' वामा शिक्षक , देवरानी जेठानी की अनुकृति है , ' भाग्यवती ' में भी हिन्दू समाज की बुराइयों की आलोचना की गयी है । इसमें लेखक का सुधारवादी दृष्टिकोण रहा है बालकृष्ण भट्ट का ' नूतन ब्रह्मचारी ' ( 1886 ) ठाकुर जगमोहन सिंह का ' श्यामा स्वप्न , राधाकृष्णदास का ' निस्सहाय हिन्दू ' , पंडित ललाराम शर्मा के ' धूर्त रसिकलाल ' आदि महत्वपूर्ण सामाजिक उपन्यास इस काल में लिखे गये है । भारतेन्दु ने ' आपबीती जगबीती ' में अभिजात परिवारों की सच्चाई को रेखांकित किया है ।ऐतिहासिक उपन्यास
प्रेमचंद पूर्व काल में लिखे हिन्दी उपन्यासों का मुख्य विषय सामाजिक , घटनात्मक ही रहा है परंतू कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यासों का लेखन भी किया गया है । हिन्दी के प्रथम मौलिक ऐतिहासिक उपन्यासकार किशोरीलाल गोस्वामी ने तारा वा सत्र - कुल - कमलिनी ( 1902 ) , ' सुल्ताना रजिया बेगम वा रंगमहल में हलाहल ' - ( सन 1904 ) ,। अन्य उपन्यासकारों में महत्वपूर्ण है मथुराप्रसाद शर्मा का ' नूरजहाँ बेगम व जहाँगीर ' , जयरामदास गुप्त के ' नवायी परिस्तान वा वाजिदअलीशाह , ' कश्मीर पतन ' , रोशनआरा , ' रंग में भंग ' और ' मायारानी ' ब्रजनन्दन सहाय का ' लालचीन ' ( 1916 ) मिश्रबधुओं के , ' पुष्यमित्र ' , ' विक्रमादित्य ' , और ' वीरमणि ' (1927) गंगाप्रसाद गुप्त के नूरजहाँ वीरपत्नी , कुमारसिंह सेनापति . हम्मीर आदि प्रमुख है । इस युग के ऐतिहासिक उपन्यासों में उपदेशात्मकता , आदर्शात्मक मनोरंजन की प्रधानता रही है ।तिलस्मी , जासूसी उपन्यास
' तिलस्म ' शब्द ऑक्सफार्ड डिक्शनरी के अनुसार ग्रीक भाषा का ' टेलेस्मा ' शब्द अरबी भाषा में ' तिलस्म ' बना , अंग्रेजी में टेलिस्मन ' है जिसका अर्थ है- ताबीज , तथा जादू के लेख जो जिसके अधिकार में हो उसे लाभ पहुंचाते हो । हिन्दी में उसका अर्थ है इन्द्रजाल , जादू . अलौकिक कारनामें । हिन्दी में तिलस्मी , ऐय्यारी उपन्यासों के जनक बाबू देवकीनंदन खत्री ( 1861-1913 ) माने जाते है । इन्होंने ' चन्द्रकांता’ सन 1888 का लेखन किया । इसकी सफलता को देखकर ' चंद्रकांता संतती ' के चौबीस भाग लिखे । दिन - दुनी रात चौगुनी की तरह इनकी लोकप्रियता भी बढी कई अहिन्दी भाषीयों ने उन्ही उपन्यासों को पढ़ने हेतू हिन्दी सिख ली ।जासुसी उपन्यास
तिलस्मी - ऐयारी से अलग किस्म के जासूसी उपन्यास परम्परा गोपालराम गहमरी ने हिन्दी को दी । इनके अनुदीत , प्रकाशित , मौलिक तथा जासुसी कथापुस्तकों की संख्या 200 है । लगभग 100 मौलिक मानी जाती है । ' अदभूत लाश ' गुप्तचर ( १८ ९९ ) , बेकसुर की फाँसी ( 1900 ) , सरकारी लाश ( 1900) , खुनी कोण ' . बेगुनाह का खून ' . ' जमुना की मूल ' , मयंकर चोरी , ' जासूस की ऐयारी ( 1914 ) आदि प्रसिध्द है । किशोरीलाल गोस्वामी के भी ' जिन्दे की लाश ' . " तिलस्मी शीशमहल ' , लीलावती , ' याकूती तख्ती ' आदि उल्लेखनिय है । गहमरी की परंपरा में रामप्रसाद लाल , जयरामदास गुप्त , रामलाल वर्मा , आदि आते हैं ।ये भी देखें
आदिकाल
भक्तिकाल
रीतिकाल
आधुनिक काल
प्रेमचंद युगीन हिन्दी उपन्यास (1918-1936)
इस युग का नामकरण प्रतिभाशाली उपन्यासकार व उपन्यास सम्राट जैसी उपाधि से विभूषित मुंशी प्रेमचंद के नाम पर रखा गया। इस युग में ही हिन्दी में पहली बार उपन्यास को मनोरंजन , रहस्यकथा की दुनिया से निकालकर सामाजिक यथार्थ की दुनिया में प्रतिष्ठित किया । समाज एवं व्यक्ति जींदगी के विभिन्न पहलुओं को सामने लाया । मुंशी प्रेमचंद ने उर्दू में कई उपन्यास लिखे - असहारे मआबिद (देवस्थान रहस्य ) ' हमखुर्मा व हमसवाब ' , किसना ' जलव ए ईसार ' आदि । पहला उपन्यास उन्होंने धनपतराय के नाम से , दूसरा नवाब राय के नाम से और अन्तिम ' प्रेमचन्द ' के नाम से लिखा । ' सेवासदन ' को प्रेमचंद का पहला हिन्दी उपन्यास माना जाता है । " यही से नये युग का प्रारंभ हो जाता है । बाद में ' प्रेमाश्रम ' (1922) तथा ' रंगभूमि ',’ कायाकल्प ', ' निर्मला ' गबन ' कर्मभूमि ' ' गोदान ' ( 1935 ) में आया । आज तक इनकी तीन सौ कहानियों , बारह उपन्यास , तीन नाटक , दो सौ से ऊपर लेख और लगभग एक दर्जन अनुवाद प्रकाशित हुए है । अपने लेखन के संदर्भ में उन्होंने पाठकों को अगाह किया था , " पहाडों की सैर के शैकीन सज्जनों को इस सपाट कहानी में आकर्षण की कोई चीज न मिलेगी। ' प्रेमचंद के संबंध में आचार्य हजारीप्रसाद दिवेदी ने कहा है- " प्रेमचंद शताब्दियों से पददलित , अपमानित और निष्वेषित कृषकों की आवाज थे ; । प्रेमचंद के समकालीन उपन्यासकारों में , जी . पी . श्रीवास्तव , जगदीश झा , विमल , मदारीलाल गुप्त , चंडी प्रसाद हृदयेश , बेवेन शर्मा ' उग्र ' , गिरिजादत्त शुक्ल , देवनारायण दिवेदी , प्रफुलचन्द्र ओझा ' मुक्त ' , शिवपुजन सहाय , परिपूर्णानंद वर्मा , ऋषभचरण जैन , विश्वनाथसिंह शर्मा , विश्वम्भरनाथ शर्मा ' कौशिक ' , जयशंकर प्रसाद , सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला ' आदि । कुछ महिला लेखिकाओं में भी महत्वपूर्ण उपन्यास को सृजन किया - " हिन्दी की पहली मौलिक उपन्यास लेखिका कोई ' साध्वी सती प्राण अबला ' थी जिन्होंने अपना वास्तविक नाम गुप्त रखकर , 1890 में ' सुहासिनी ' नामक उपन्यास लिखा और प्रकाशित कराया था । यदि यह ' अबला ' ब्रजरत्न दास के अनुसार मल्लिका देवी ही है , तो उन्ही को हिन्दी की पहली मौलिक उपन्यास लेखिका भी मानना होगा । " उसके बाद प्रेमचंद काल में रुक्मिणी देवी ने ' मेम साहब ' ( 1919) , कुन्ती ने ' सुन्दरी ' , विमला देवी चौधरानी ने ' कामिनी ' , रत्नवती देवी शर्मा ने ' सुमति ' ,शैलकुमारी देवी ने ' उमा सुन्दरी " , गिरिजा देवी ने ' कमल कुसुम , कुमारी तेजरानी दीक्षित ने ' हृदय का काँटा ' ,श्रीमती ज्योतिर्मयी ठाकुर ने ' मधुवन ' , प्रभावती भटनागर ने ' पराजय ' , जगदम्बा देवी ने ' हीरे की अंगूठी ' उषा देवी मित्रा ने ' वचन का मोल ' आदि । इन स्त्री लेखिकाओं ने हिंदू समाज में स्त्री की स्थिति को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया स्त्री स्वतंत्रता , शिक्षा का समर्थन उनका महत्वपूर्ण विचार है । प्रगतीशील दृष्टिकोण , जनवादी भावना का उभार इसी दौर में प्रारंभ हुआ । दलित एवं नारी के उत्थान के लिए पर्याप्त उपलब्धि इसी समय को मिली । वस्तुतः नारी अपने संपूर्ण स्थिति को लेकर इस काल के उपन्यासो में आयी है । भारत में " उपन्यास का जन्म मध्यवर्ग के कारण हुआ , मध्यवर्ग के लिए मध्यवर्ग ' ऐसा माना जाता है । परंतू डॉ . नामवर सिंह कहते है की भारत में उपन्यास का उदय मध्यवर्ग के महागाथा के रुप में नहीं , बल्कि किसान जीवन की महागाथा के रुप में हुआ ... भारत में मध्यवर्ग इस लायक नहीं था कि उन्नीसवी शताब्दी में किसी नई रुप विधा को जन्म दे सके और अपनी संस्कृति का विकास कर कर सके । "प्रेमचंदोत्तर हिन्दी उपन्यास
प्रेमचन्द के उपरांत हिंदी उपन्यास का विकास किसी एक दिशा में न होकर अनेक दिशाओं में हुआ। विषय की दृष्टि से ये निम्न प्रकार है-
- मनोविश्लेषणवादी उपन्यास
- प्रगतिवादी उपन्यास
- ऐतिहासिक उपन्यास
- आंचलिक उपन्यास
- प्रयोगवादी उपन्यास
प्रेमचंदोत्तर युग में हिन्दी उपन्यास का विकास तीव्र गति से हुआ । अनेक प्रतिभासंपन्न लेखकों ने नये विषयों को नया शिल्प - विधान देकर अभिव्यक्त किया । डॉ . नगेन्द्र ने इसको तीन भागों में बाँटा है-
- 1936-1950 तक के उपन्यास - फ्रायड और मार्क्स की विचारधारा से प्रभावित
- 1950-1960 तक के उपन्यास - प्रयोगात्मक विशेषताओं से प्रभावित
- साठोत्तरी उपन्यास - आधुनिकतावादी विचारधारा से प्रभावित
सामाजिक उपन्यास
सामाजिक यथार्थ प्रेमचंद की देन रही है । ' गोदान ' उसी का महाकाव्य रहा है , और स्वयं होरी यथार्थ की ट्रेजडी । वर्गीय चरित्र की कल्पना कर उस यथार्थ को गोदान में प्रेमचंद ने विविध आयाम दिये है । वस्तुतः स्वंय प्रेमचंद ने नानाविध प्रवृत्तियों को जन्म दिया इसी अर्थ में वे कथा सम्राट हो जाते है । इन्हीं की परंपरा का विकास प्रसाद के कंकाल में उभरकर आया है । कलान्तर में निराला , उपेन्द्रनाथ अश्क , पाण्डेय बेचन शर्मा ' उग्र ' , चतुरसेन शास्त्री , वृन्दावनलाल वर्मा , भगवतीचरण वर्मा , विष्णु प्रभाकर , अमृतलाल नागर , नरेश मेहता आदि लेखकों ने उपन्यास विधा को समृध्द किया । इन सबके लेखन की अपनी - अपनी विशेषता है । परंतू सामाजिक दृष्टि से परिवर्तनकारी भावना ने जड एवं यथास्थितिवादी परंपरा , मूल्य , संस्कार की नींव हिलाकर रखनेवाले इनके उपन्यासों का महत्व अधिक है । इनका अवदान अनेक दृष्टिकोन से चिंतनपरक है । प्रेमचंद के अतिरिक्त सामाजिक उपन्यास का लेखन करनेवाले में प्रसाद उपेन्द्रनाथ अश्क , भगवतीप्रसाद वाजपेयी , भगतीचरण वर्मा , अमृतलाल नागर , पाण्डेय बेचन शर्मा ' उग्र ' आदि महत्वपूर्ण है । हिन्दी उपन्यास में प्रारंभ से ही सामाजिकता का स्वर अनुगूंज रहा है । प्रेमचंद युग के अनेक उपन्यास सामाजिक समस्याओं से पूरीत है । प्रेमचंद के प्रतिज्ञा में विधवा समस्या , सेवासदन में वेश्या समस्या , निर्मला में अनमेल विवाह और सौतेली माँ की समस्या , रंगभूमि में राजनीतिक तथ्य कायाकल्प , कर्मभूमि , और गोदाम में स्त्री एवं किसान समस्याओं का अंकन हुआ है । रंगभूमि में सुरदास जो जाति से चमार है , अंधा तथा भिखारी है उसे नायक बनाकर दलित जीवन की समस्या को सामने लाते है । ' गोदान ' तो भारतीय किसान का महाकाव्य ही अना है । होरी , धनिया , मालती , गोबर , झुनिया जैसे पात्रों द्वारा सामाजिक दर्द ही अभिव्यक्त हुआ है । प्रेमचंद की इसी परंपरा का विकास आगे चलकर प्रसाद ' कंकाल ' " तितली में लेखन हुआ था । ' कंकाल ' तो धर्म के नाम पर चलनेवाले व्याभिचार , उसके विधि निषेध पर चोट की है ।अत : यह कहा जा सकता है की प्रेमचंद के बाद सामाजिक उपन्यासों की सशक्त धारा उभरकर आयी ।1960 के बाद यह अधिक विस्तार पाती गयी परंतू बाद के सामाजिक उपन्यासों में समाज कम , यौन समस्याएँ अधिक मुखर हुई । उपन्यासों के विषय वैविध्य ने उसको अधिक विशाल बनाया ।
मनोवैज्ञानिक / मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास
प्रेमचंद ने ही जीवन की ओर देखने के दो दृष्टिकोण प्रस्तुत किये थे । एक सामाजिक और दुसरा मनोवैज्ञानिक । प्रेमचदोत्तर काल में यह दोनों धाराएँ स्वतंत्र रूप से विकसित हुई । प्रेमचंद के ही शिष्य जैनेन्द्र कुमार ने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया मन की सुक्ष्म , गंभीर , गहन भावों का अंकन इन उपन्यासों की विशेषता है । सन 1930 के बाद भारत में फ्रायड , एडलर , युंग की विचारधाराओं का व अस्तित्यवाद का प्रभाव बढ़ता गया । फ्रायड के चेतन , अवचेतन और अचेतन मन के भावों , स्वप्नों , इच्छाओं , वासनाओं का विस्तृत । चित्रण उपन्यासों में आया । आधुनिक युग में प्रेमचंद के अविर्भाव के साथ मनोविज्ञान का प्रवेश हिन्दी कथा साहित्य में हुआ । उनके उपन्यास जीवन का चरित्र मात्र है विचार ने पात्रों के मनोविज्ञान की परख शुरु की । जिसका भारतीय संस्करण वाला रुप जैनेंद्र कुमार के उपन्यासों में आया है । इनका प्रथम उपन्यास ' परख ' ( 1929 ) में आया । यह परख वस्तुत : एक गहरे नैतिक वृंद से गुजरने की तनावपूर्ण प्रक्रिया है जो मानस की गुद्धता , आचरण की । क्रिडागुढता को सामने लाती है । उसके बाद सुखदा , विवर्त , व्यतीत , जयवर्दन , मुक्तिबोध , अनन्तर , अनामस्वामी , दशार्क आदि मनोविष्लेशणात्मक उपन्यासों का सृजन किया । अन्य मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों में इलाचंद्र जोशी का ' घृणामयी यह उनका प्रथम उपन्यास है । उसके बाद संन्यासी , पर्दे की रानी , प्रेम और छाया , निर्वासित , मुक्तिपथ , सुबह के भूले आदि। मोहन राकेश का ' अंधेरे बन्द कमरे ' , ' अन्तराल ' , ' न आनेवाला कल ' , तथा स्वातंत्र्योत्तर कालखंड में प्रकाशित निर्मल वर्मा का ' ये दिन ' , रिपोर्टर , उषा प्रियंवदा का ' पचपन खम्भे , लाल दीवारें , महेन्द्र भल्ला का ' एक पति के नोटस ' कृष्ण सोबती का ' मित्रो मरजानी ' , राजेंद्र यादव का ' शह और मात ' , धर्मवीर भारती का ' गुनाहों का देवता ' और ' सूरज का सातवां घोडा ' , लक्ष्मीनारायण लाल का ' धरती की आँखे ' , ' बया का घोंसला और सांप ' , ' काले फुल का पौधा ' और ' रूपजीवा ' सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का ' सोया हुआ जल , प्रभाकर माचवे का ' सांचा ' , लक्ष्मीकांत वर्मा का ' खाली कुर्सी की आल्मा ' और ' टेरीकोट ' तथा मारतभूषण अग्रवाल का ' लौटती लहरों की बाँसुरी आदि महत्वपूर्ण है ।आंचलिक उपन्यास
आंचलिक उपन्यास का प्रथम आधार गोदान ही माना जाता है परंतू आंचलिकता की प्रमुख प्रवृत्ती फणीश्वर नाथ रेणू के ' मैला आँचल ' ( 1954 ) से चर्चा में आयी । कथा एवं चरित्र केंद्रित उपन्यासों के बाद कथा के केंद्र में ' आँचल ' ही प्रमुख हो उठा इसी कारण इन्हें आंचलिक उपन्यास कहा जाने लगा । वहाँ की भाषा , संस्कृति , परंपरा , रुद्धियाँ , अंधविश्वास , उत्सव , त्यौहार , अखाडे , गीत , धार्मिक , नैतिक , सामाजिक आचार - विचार , आस्था - विश्वास , मनोरजन , व्यवसाय , शिक्षा , स्वास्थ्य , व्यसन , जीवन दृष्टिकोन आदि को अभिव्यक्ति केंद्रिय रुप में आंचलिक उपन्यास में मिलने लगी । स्वतंत्रता के बाद बढ़ता नागरिकरण और उसका गाँव जीवन पर पड़ता प्रभाव पहली बार इन उपन्यासों में आया । विकास की योजनाओं ने एक ओर उनमें परिवर्तन की संभावना जगायी जो दुसरी ओर लड़ाई , झगडे , संघर्ष , हिंसा , लूट , भ्रष्टाचार , अनाचार , दुराचार , की बीभत्सता , कुत्सा को व्यक्त किया । धर्म के नाम पर चलनेवाले पाखंड , यौन शोषण , मानसिक गुलामी का थोपना , निरंतर जारी रहा तो इसके विरुध्द वैज्ञानिक साधनों से समाज को उन्नत बनाने के लिए शिक्षा , चिकित्सा का आग्रह भी रहा है । परिणामत : जनजीवन की सुक्ष्म अंकन , जीवंत हो गया । नागार्जुन , रेणू , उदयशंकर भट्ट , राही मासुम रजा , रामदरश मिश्र , शिवप्रसाद सिंह , राजेंद्र अवस्थी , शिवप्रसाद मिश्र ' रुद्र , शैलेश मटियानी , विवेकी राय , श्रीलाल शुक्ल , गोविंद मिश्र , कृष्ण बलदेव वैद्य आदि उपन्यासकारों ने नये अभिव्यंजन कौशल से इस धारा को समृध्द किया है । नागार्जुन : - के ' बलचनमा ' को हिन्दी का पहला आंचलिक उपन्यास माना जाता है । यह 1952 में प्रकाशित हुआ । ' मैला आँचल ' के कारण हिन्दी में आंचलिक उपन्यास धारा की स्थापना हुई परतू ' बलचनमा ' और ' मैलाआँचल के पूर्व अमृतलाल नागर का ' सेठ याँकमल ' और शिवप्रसाद मिश्र ' रुद्र ' का ' बहती गंगा ' में आंचलिकता के संकेत जरूर मिलते है परंतू नागार्जुन में वर्ग संघर्ष यथार्थ रुप से उभरकर आया है ' बलचनमा ' इसका उदाहरण है । ' नयी पौध ' , ' बाबा बटेसरनाथ ' , ' वरुण के बेटे ' , दुख मोचन ' , यह आँचलिक उपन्यास ही है ।ऐतिहासिक उपन्यास
हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यासों के प्रवर्तन श्रेय वृंदावनलाल वर्मा को जाता है । इनके पहले किशोरीलाल गोस्वामी , गंगाप्रसाद गुप्त , जयरामदास गुप्त आदि ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखे परंतू उन्हें " ऐतिहासिक रोमान्स ' कहा जाता है । ब्रजनंदन सहाय का ' लाल चीन ' है शेक्सपीयर के मॅकबेध से प्रभावित है । ऐसे में वृंदावनलाल वर्मा ने ' गढ़कुंडार ' ( 1927 ) से ऐतिहासिक लेखन का प्रारंभ किया । ऐतिहासिक उपन्यास लेखन के छह प्रकार है । अतीत का आभास देनेवाले जैसे , चित्रलेखा । ऐतिहासिक वातावरण मात्र प्रस्तुत करनेवाले- जैसे , " दिव्या , ' अमिता ' ' मुर्दो का टीला ' आदि । ऐतिहासिक यात्रोंपर सृजीत- जैसे , ' वैशाली की नगरवधू ' , ' आम्रपाली ' ' विराटा की पद्मीनी ' , ' बाणभट्ट की आत्मकथा ' आदि । ऐतिहासिक कथा के आधार पर लिखे गये- ' टूटे कांटे ' । ऐतिहासिक घटना को आधार मानकर लिखे गये ' अमिता ' , भुयनविक्रम ' आदि । और ऐतिहासिक वातावरण , कथा तथा पात्र से युक्त उपन्यास- इन्हे विशुध्द ऐतिहासिक उपन्यास कहा जाता है जैसे , ' झाँसी की रानी ' , ' अहल्याबाई ' , ' चाणक्य ' , ' शतरंज के मोहरे ' आदि । स्वतंत्रता पूर्व लिखे गये ऐतिहासिक उपन्यासों में आजादी के अंदोलन को प्रेरणा देने का भाव निहित था तो स्वातंत्र्योत्तर काल के ऐतिहासिक उपन्यासों में मानवीय सत्य और मूल्य को जगाने के रहे है । इसलिये इन उपन्यासों में ऐतिहसिक घटना की अपेक्षा कल्पना का प्राधान्य रहा है । कल्पना से बिखरी और मूल्यहीन घटनाओं को एक सुत्र में बांधकर वर्तमान मूल्य , प्रश्न , तर्क , वैज्ञानिक दृष्टिकोन का विकास किया है ।प्रगतीवादी , समाजवादी अथवा राजनीतिक उपन्यास
मार्क्सवाद का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर 1930 से ही परिलक्षित होता नजर आता है । राजनीति के क्षेत्र में जिसे हम मार्क्सवाद कहते है , साहित्य के क्षेत्र में प्रगतीवाद , समाजवाद मानते है । मार्क्सवाद ने धर्म , अंधश्रध्दा , अस्था , जड एवं खोखली परंपरा , आर्थिक विषमता , सामाजिक शोषण आदि का विरोध करते हुए उसका सामाधान दद्वात्मक भौतिकवाद के सहारे वैज्ञानिक समाजवाद में में परिणीत करने हेतू साहित्य को प्रगतीशील होने का अव्हान किया । और कलाबादियों के दृष्टिकोन से कलात्मकता एवं कलाकार की हत्या हो गयी का स्वर बाद में उठाया गया । परंतू प्रगतीवाद के सामाजिक विभाजन , शोषण , आर्थिक विसंगतीयों पर निर्भय प्रहार कर उपन्यास को समाजोपयोगी विधा बनाया । और साहित्य परिवर्तन का साधन मानकर उसका उपयोग किया । इस प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण उपन्यास सामने आये । राहुल सांकृत्यायन राहुलजी पर बौध्द धर्म का प्रभाव था फिर भी उपन्यास लिखते समय बौध्दों की गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली को उन्होंने साम्यवादी बनाकर प्रस्तुत किया क्योकि उनपर 1917 की रुसी क्रांती का प्रभाव गहरा था । ' बाईसवीं सदी जिसे उपन्यास नहीं माना जाता , बकौल गोपाल राय । " लेकिन घटनाओं और पात्रों की उपस्थिति के कारण यह फैंटेसी के रूप में लिखित उपन्यास ही है । " जो मनुष्य के कल्याण , श्रम और भोग की समता के साथ एक वर्गमुक्त शोषणहीन समाज का सपना है , जो मानवीय श्रम और संघर्ष द्वारा यथार्थ में बदला जा चुका है । ' ' इनके ऐतिहासिक उपन्यासों में मार्क्सवादी दृष्टि । इनके उल्लेखनीय उपन्यासों में जीने के लिए ' , ' सिंह सेनापती ' , ' जय यौधेय ' , ' मधुर स्वप्न ' , " विस्मृत यात्री ' और ' दिवोदास ' आदि । बौध्द धर्म की वैश्विक मानवतावादी , करुणा , समता , गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली का गहण विवेचन इनके उपन्यासों में हुआ है । यशपाल इनका पहला उपन्यास ' दादा कॉमरेड ' ( 1941 ) में प्रकाशित हुआ उसके बाद ' देशद्रोही ' , ' दिव्या ' , ' पार्टि - कॉमरेड ' , ' मनुष्य के रूप ' , ' अमिता ' , ' झूठा - सच ' दो भाग आदि। नागार्जुन ग्रामांचल को केंद्र में रखकर नागार्जुन ने गाँव जीवन का यथार्थ उपन्यासों द्वारा अभिव्यक्त किया है । अंचल से अधिक महत्त्व वे पात्रों के चित्रण , संघर्ष , मनोविज्ञान , परिवेश और उससे प्राप्त चेतना , प्रेरणा , दर्शन को सार्थक ढंग से उकेरा है । ' रलिनाथ की चाची ' , बलचनमा , नई पौध , बाबा बटेसरनाथ आदि । रागेय राघव ' घरौदा ' ( 1946 ), ' विषादमठ ' इसके बाद ' मुर्दो का टीला , इन्होंने सामाजिक , ऐतिहासिक , जीवन चरितात्मक , नाटों लोह पीटों के समाज पर उपन्यास लिखे है । शहर जीवन संबंधी , ' घरौंदे ' , ' विषांदमठ ' , ' हुजूर ' , ' सीधा - सारा रास्ता ' आदि उल्लखनीय है । ' कब तक पुकारु रेणू के बाद की सफल आंचलिक उपन्यास माना जाता है । जो दलित जीवन संवेदना को सशक्त रुप से सामने लाता है ।उपर्युक्त वर्णन के आधार पर संक्षिप्त में हम कह सकते हैं कि हिन्दी उपन्यास ने उल्लेखनीय वृद्धि की है, जो कि निरन्तर प्रगतिशील है।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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