हिन्दी व्याकरण – समास samaas ( Compound )
" समास" शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ' छोटा - रूप ' ‘संक्षिप्त’ । ‘समास’ शब्द दो शब्दों सम् + आस् से बना है । ' सम् ' का अर्थ है ' पास ' एवं ' आस् ' का अर्थ है- ' बैठना ' अर्थात् पास - पास बैठना या मिलना ।
‘अनेक पदानां एक पदी भवनं समास’ अर्थात अनेक पदों या शब्दों का मिलकर एक पद या शब्द हो जाना समास है ।
हिन्दी भाषा में समास प्रायः नए शब्द निर्माण हेतु प्रयोग में लिए जाते हैं ।शब्दों के संक्षिप्तिकरण करण हेतु समास आवश्यक हैं । ' जब परस्पर सम्बन्ध रखने वाले दो या दो से अधिक शब्द अपने संबंधित शब्दों को छोड़कर एक साथ मिल जाते हैं , तब उनके मेल को समास और उन मिले हुए शब्दों को सामासिक शब्द या पद कहते हैं ।‘ अर्थात जब दो या दो से अधिक शब्द ( पद ) अपने बीच की विभक्तियों का लोप कर जो छोटा रूप बनाते हैं , उसे समास , सामासिक शब्द या समस्त पद कहते हैं ।
जैसे
रसोई के लिए घर – रसोईघर
नीला है जो कमल – नीलकमल
क्रम के अनुसार – यथाक्रम
यहां शब्दों में से ' के लिए ' , ‘है जो’ , ‘के अनुसार’ आदि विभक्ति का लोप करने पर नये शब्द बने ' रसोई घर ' , ‘नीलकमल’ , ‘यथाक्रम’ आदि सामासिक शब्द है ।
समास विग्रह
किसी समस्त पद या सामासिक शब्द को उसके विभिन्न पदों एवं विभक्ति सहित पृथक् करने की क्रिया को समास का विग्रह कहते हैं ।जैसे
विद्यालय - विद्या के लिए आलय
माता – पिता - माता और पिता
चिड़ीमार - को मारने वाला
समस्त पद ( सामासिक शब्द ) का विग्रह करने पर समस्त पद के दो पद बन जाते हैं - पूर्व पद और उत्तर पद ।
जैसे
पाठशाला में पूर्व पद - पाठ व उत्तर पद - शाला है
सत्य - असत्य में पूर्व पद - सत्य व उत्तर पद -असत्य है ।
अपनी बात को संक्षिप्त में कह पाना किसी भी भाषा का एक महत्वपूर्ण गुण होता है । संस्कृत भाषा संक्षिप्तता पर विशेष जोर देती है । हिन्दी भी संस्कृत की अनुगामिनी होने के कारण समास समास का विशेष महत्व है । संस्कृत में समास के महत्व को दर्शाते हुए एक शुक्ति प्रचलित है –
द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः।
तत् पुरुष कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः॥
समास के भेद
संस्कृत में समास के चार भेद माने गए हैं । पर हिन्दी भाषा में समास के छः भेद मान्य हैं- अव्ययीभाव समास
- तत्पुरुष समास
- द्वन्द्व समास
- बहुब्रीहि समास
- द्विगु समास
- कर्म धारय समास
इन्हें काव्यात्मक रूप में भी हम इस तरह याद रख सकते हैं -
द्वन्द्व में और छिपे , द्विगु में गणना पद आवत है ।
बीच में कारक चिह्न छिपे , तत्पुरुष समास कहावत है ।
अव्ययी से अव्ययी भाव रहे , कर्मधारय विशेषण आवत है ।
बहुव्रीहि में अन्य प्रधान रहे , न कोई पद आवत है ।
अव्ययीभाव समास
अव्ययीभाव समास में प्रायः पूर्व पद प्रधान होता है । पूर्वपद या पूरा पद अव्यय होता है । ( वे शब्द जो लिंग , वचन , कारक , काल के अनुसार नहीं बदलते , उन्हें अव्यय कहते हैं ) । यदि एक ही शब्द की पुनरावृत्ति हो और दोनों शब्द मिलकर अव्यय की तरह प्रयुक्त हो , वहाँ भी अव्ययीभाव समास होता है । संस्कृत के उपसर्ग युक्त पद भी अव्ययीभव समास होते हैं ।
जैसे -
यथाशक्ति - शक्ति के अनुसार
यथाशीघ्र - जितना शीघ्र हो
यथाक्रम - क्रम के अनुसार
यथाविधि - विधि के अनुसार
यथावसर - अवसर के अनुसार
यथेच्छा - इच्छा के अनुसार
प्रतिदिन - प्रत्येक दिन / दिन – दिन / हर दिन
प्रत्येक - हर एक / एक - एक / प्रति एक
प्रत्यक्ष - अक्षि के आगे
घर – घर - प्रत्येक घर / हर घर / किसी भी घर को न छोड़कर
हाथों - हाथ - एक हाथ से दूसरे हाथ तक / हाथ ही हाथ में
रातों – रात - रात ही रात में
बीचों - बीच - ठीक बीच में
साफ – साफ - साफ के बाद साफ / बिल्कुल साफ
आमरण - मरने तक / मरणपर्यन्त
आसमुद्र – समुद्र पर्यन्त
अनुकूल - जैसा कूल है वैसा
यावज्जीवन – जीवन पर्यन्त
निर्विवाद - बिना विवाद के
दरअसल - असल में
तत्पुरुष समास
तत्पुरुष समास में दूसरा पद ( पर पद ) प्रधान होता है अर्थात् विभक्ति का लिंग , वचन दूसरे पद के अनुसार होता है । इसका विग्रह करने पर कर्ता व सम्बोधन की विभक्तियों ( ने , हे , ओ , अरे ) के अतिरिक्त किसी भी कारक की विभक्ति प्रयुक्त होती है तथा विभक्तियों के अनुसार ही इसके उपभेद होते हैं ।
जैसे –
कृष्णार्पण – कृष्ण को अर्पण
नेत्रसुख - नेत्रों को सुखद
वन – गमन - वन को गमन
जेब कतरा - जेब को कतरने वाला
प्राप्तोदक - उदक को प्राप्त
ईश्वर – प्रदत्त - ईश्वर से प्रदत्त
हस्त – लिखित - हस्त ( हाथ ) से लिखित
तुलसीकृत - तुलसी द्वारा रचित
दयार्द्र - दया से आर्द्र
रत्नजडित - रत्नों से जड़ित
हवन – सामग्री - हवन के लिए सामग्री
विद्यालय - विद्या के लिए आलय
गुरु – दक्षिणा - गुरु के लिए दक्षिणा
बलि-पशु - बलि के लिए पशु
ऋण – मुक्त - ऋण से मुक्त
पदच्युत - पद से च्युत
मार्ग भ्रष्ट - मार्ग से भ्रष्ट
धर्म – विमुख - धर्म से विमुख
देश निकाला - देश से निकाला
मन्त्रि – परिषद् - मन्त्रियों की परिषद्
प्रेम - सागर - प्रेम का सागर
राजमाता - राजा की माता
अमचूर - आम का चूर्ण
रामचरित - राम का चरित
वनवास - वन में वास
जीवदया - जीवों पर दया
ध्यान – मग्न - ध्यान में मग्न
घुड़सवार - घोड़े पर सवार
घृतान्न - घी में पक्का अन्न
कवि पुंगव - कवियों में श्रेष्ठ
जैसे
माता – पिता - माता और पिता
दाल – रोटी – दाल और रोटी
पाप – पुण्य - पाप या पुण्य / पाप और पुण्य
अन्न – जल - अन्न और जल
जलवायु - जल और वायु
फल – फूल - फल और फूल
भला – बुरा - भला या बुरा
रुपया – पैसा - रुपया और पैसा
अपना – पराया - अपना या पराया
नील – लोहित - नीला और लोहित ( लाल )
धर्माधर्म - धर्म या अधर्म
सुरासुर - सुर या असुर / सुर और असुर
शीतोष्ण - शीत या उष्ण
यशापयश - यश या अपयश
शीतातप - शीत या आतप
शस्त्रास्त्र - शस्त्र और अस्त्र
कृष्णार्जुन - कृष्ण और अर्जुन
जैसे
गजानन - गज का आनन है जिसका वह - गणेश
त्रिनेत्र - तीन नेत्र हैं जिसके वह - शिव
चतुर्भुज - चार भुजाएँ हैं जिसकी वह - विष्णु
षडानन - षट् ( छः ) आनन हैं जिसके वह - कार्तिकेय
दशानन - दश आनन हैं जिसके वह - रावण
घनश्याम - घन जैसा श्याम है जो वह - कृष्ण
पीताम्बर - पीत अम्बर हैं जिसके वह - विष्णु
चन्द्रचूड - चन्द्र चूड पर है जिसके वह - शिव
गिरिधर - गिरि को धारण करने वाला है जो वह - कृष्ण
मुरारि - मुर का अरि है जो वह - विष्णु
आशुतोष - आशु ( शीघ्र ) प्रसन्न होता है जो वह - शिव
वज्रपाणि - वज है पाणि में जिसके वह - इंद्र
सुग्रीव - सुन्दर है ग्रीवा जिसकी वह – बाली का भाई सुग्रीव
मधुसूदन - मधु को मारने वाला है जो वह - विष्णु
आजानुबाहु - जानुओं ( घुटनों ) तक बाहुएँ हैं जिसकी वह - विष्णु
नीलकण्ठ - नीला कण्ठ है जिसका वह - शिव
महादेव - देवताओं में महान् है जो वह – शिव
मयूरवाहन - मयूर है वाहन जिसका वह - कार्तिकेय
कमलनयन - कमल के समान नयन हैं जिसके वह - राम
जलज - जल में जन्मने वाला है जो वह - कमल
वाल्मीकि - वल्मीक से उत्पन्न है जो वह – महर्षि वाल्मीकि
दिगम्बर - दिशाएँ ही हैं जिसका अम्बर ऐसा वह - शिव
कुशाग्रबुद्धि - कुश के अग्रभाग के समान बुद्धि है जिसकी वह
मन्द बुद्धि - मन्द है बुद्धि जिसकी वह
जितेन्द्रिय - जीत ली हैं इन्द्रियाँ जिसने वह
चन्द्रमुखी - चन्द्रमा के समान मुखवाली है जो वह
अष्टाध्यायी - अष्ट अध्यायों की पुस्तक है जो वह
जैसे
दोराहा - दो राहों का समाहार
पक्षद्वय - दो पक्षों का समूह
सम्पादक द्वय - दो सम्पादकों का समूह
त्रिभुज - तीन भुजाओं का समाहार
त्रिलोक या त्रिलोकी - तीन लोकों का समाहार
त्रिरत्न - तीन रत्नों का समूह
संकलन त्रय - तीन का समाहार
भुवन - त्रय - तीन भुवनों का समाहार
चौमासा / चतुर्मास - चार मासों का समाहार
चतुर्भुज - चार भुजाओं का समाहार ( रेखीय आकृति )
चतुर्वर्ण - चार वर्णों का समाहार
पंचामृत - पाँच अमृतों का समाहार
पंचपात्र - पाँच पात्रों का समाहार
पंचवटी - पाँच वटों का समाहार
षड्भुज - षट् ( छः ) भुजाओं का समाहार
सप्ताह - सप्त अह्नों ( सात दिनों ) का समाहार
सतसई - सात सौ का समाहार
सप्तशती - सप्त शतकों का समाहार
सप्तर्षि - सात ऋषियों का समूह
अष्ट – सिद्धि - आठ सिद्धियों का समाहार
नवरत्न - नवरात्र नौ रात्रियों का समाहार
दशक - दश का समाहार
शतक - सौ का समाहार
शताब्दी - शत ( सौ ) अब्दों ( वर्षों ) का समाहार
जैसे
पुरुषोत्तम - पुरुष जो उत्तम
नीलकमल - नीला जो कमल
नवरत्न - नौ रत्नों का समूह
महापुरुष – महान जो पुरुष
घनश्याम – घन जैसा श्याम
पीताम्बर – पिला है जो अम्बर ( वस्त्र )
महर्षि - महान है जो ऋषि
नराधम – अधम है जो नर
अधमरा – आधा है जो मरा
रक्ताम्बर – रक्त ( लाल ) है जो अम्बर
कुमति – कुत्सित है जो मति
कुपुत्र – कुत्सित है जो पुत्र
दुष्कर्म – दूषित है जो कर्म
चरम सीमा - चरम है जो सीमा
लाल - मिर्च - लाल है जो मिर्च
कृष्ण – पक्ष – कृष्ण ( कला ) है जो पक्ष
मन्द – बुद्धि – मन्द है जो बुद्धि
शुभागमन - शुभ है जो आगमन
नीलोत्पल - नीला है जो उत्पल ( कमल )
मृगनयन - मृग के समान नयन
चन्द्रमुख - चन्द्र जैसा मुख
राजऋषि - जो राजा भी है और ऋषि भी
नरसिंह - जो नर भी है और सिंह भी
वचनामृत - वचनरूपी अमृत
भव - सागर - भव रूपी सागर
चरण - कमल - चरण रूपी कमल
क्रोधाग्नि – क्रोध रूपी अग्नि
चरणारविन्द – चरण रूपी अरविन्द
विद्या - धन - विद्या रूपी धन
-
कर्म तत्पुरुष ( को )
कृष्णार्पण – कृष्ण को अर्पणनेत्रसुख - नेत्रों को सुखद
वन – गमन - वन को गमन
जेब कतरा - जेब को कतरने वाला
प्राप्तोदक - उदक को प्राप्त
-
करण तत्पुरुष ( से / के द्वारा )
ईश्वर – प्रदत्त - ईश्वर से प्रदत्तहस्त – लिखित - हस्त ( हाथ ) से लिखित
तुलसीकृत - तुलसी द्वारा रचित
दयार्द्र - दया से आर्द्र
रत्नजडित - रत्नों से जड़ित
-
सम्प्रदान तत्पुरुष ( के लिए )
हवन – सामग्री - हवन के लिए सामग्रीविद्यालय - विद्या के लिए आलय
गुरु – दक्षिणा - गुरु के लिए दक्षिणा
बलि-पशु - बलि के लिए पशु
-
अपादान तत्पुरुष ( से पृथक )
ऋण – मुक्त - ऋण से मुक्तपदच्युत - पद से च्युत
मार्ग भ्रष्ट - मार्ग से भ्रष्ट
धर्म – विमुख - धर्म से विमुख
देश निकाला - देश से निकाला
-
सम्बन्ध तत्पुरुष ( का , के , की )
मन्त्रि – परिषद् - मन्त्रियों की परिषद्प्रेम - सागर - प्रेम का सागर
राजमाता - राजा की माता
अमचूर - आम का चूर्ण
रामचरित - राम का चरित
-
अधिकरण तत्पुरुष ( में , पे , पर )
वनवास - वन में वासजीवदया - जीवों पर दया
ध्यान – मग्न - ध्यान में मग्न
घुड़सवार - घोड़े पर सवार
घृतान्न - घी में पक्का अन्न
कवि पुंगव - कवियों में श्रेष्ठ
द्वन्द्व समास
द्वन्द्व समास में दोनों पद प्रधान होते हैं । दोनों पद प्रायः एक दूसरे के विलोम होते हैं , सदैव नहीं । इसका विग्रह करने पर ' और ' , अथवा ' या ' का प्रयोग होता है ।जैसे
माता – पिता - माता और पिता
दाल – रोटी – दाल और रोटी
पाप – पुण्य - पाप या पुण्य / पाप और पुण्य
अन्न – जल - अन्न और जल
जलवायु - जल और वायु
फल – फूल - फल और फूल
भला – बुरा - भला या बुरा
रुपया – पैसा - रुपया और पैसा
अपना – पराया - अपना या पराया
नील – लोहित - नीला और लोहित ( लाल )
धर्माधर्म - धर्म या अधर्म
सुरासुर - सुर या असुर / सुर और असुर
शीतोष्ण - शीत या उष्ण
यशापयश - यश या अपयश
शीतातप - शीत या आतप
शस्त्रास्त्र - शस्त्र और अस्त्र
कृष्णार्जुन - कृष्ण और अर्जुन
बहुब्रीहि समास
बहुव्रीहि समास में कोई भी पद प्रधान नहीं होता । इसमें प्रयुक्त पदों के सामान्य अर्थ की अपेक्षा अन्य अर्थ की प्रधानता रहती है । इसका विग्रह करने पर " वाला , है , जो , जिसका , जिसकी , जिसके , वह आदि आते हैं तथा तीसरा ही अर्थ प्रकट होता है ।जैसे
गजानन - गज का आनन है जिसका वह - गणेश
त्रिनेत्र - तीन नेत्र हैं जिसके वह - शिव
चतुर्भुज - चार भुजाएँ हैं जिसकी वह - विष्णु
षडानन - षट् ( छः ) आनन हैं जिसके वह - कार्तिकेय
दशानन - दश आनन हैं जिसके वह - रावण
घनश्याम - घन जैसा श्याम है जो वह - कृष्ण
पीताम्बर - पीत अम्बर हैं जिसके वह - विष्णु
चन्द्रचूड - चन्द्र चूड पर है जिसके वह - शिव
गिरिधर - गिरि को धारण करने वाला है जो वह - कृष्ण
मुरारि - मुर का अरि है जो वह - विष्णु
आशुतोष - आशु ( शीघ्र ) प्रसन्न होता है जो वह - शिव
वज्रपाणि - वज है पाणि में जिसके वह - इंद्र
सुग्रीव - सुन्दर है ग्रीवा जिसकी वह – बाली का भाई सुग्रीव
मधुसूदन - मधु को मारने वाला है जो वह - विष्णु
आजानुबाहु - जानुओं ( घुटनों ) तक बाहुएँ हैं जिसकी वह - विष्णु
नीलकण्ठ - नीला कण्ठ है जिसका वह - शिव
महादेव - देवताओं में महान् है जो वह – शिव
मयूरवाहन - मयूर है वाहन जिसका वह - कार्तिकेय
कमलनयन - कमल के समान नयन हैं जिसके वह - राम
जलज - जल में जन्मने वाला है जो वह - कमल
वाल्मीकि - वल्मीक से उत्पन्न है जो वह – महर्षि वाल्मीकि
दिगम्बर - दिशाएँ ही हैं जिसका अम्बर ऐसा वह - शिव
कुशाग्रबुद्धि - कुश के अग्रभाग के समान बुद्धि है जिसकी वह
मन्द बुद्धि - मन्द है बुद्धि जिसकी वह
जितेन्द्रिय - जीत ली हैं इन्द्रियाँ जिसने वह
चन्द्रमुखी - चन्द्रमा के समान मुखवाली है जो वह
अष्टाध्यायी - अष्ट अध्यायों की पुस्तक है जो वह
द्विगु समास
द्विगु समास में प्रायः पूर्वपद संख्यावाचक होता है तो कभी - कभी परपद भी संख्यावाचक देखा जा सकता है । द्विगु समास में प्रयुक्त संख्या किसी समूह का बोध कराती है अन्य अर्थ का नहीं , जैसा कि बहुव्रीहि समास में देखा है । इसका विग्रह करने पर “ समूह ' या ' समाहार ' शब्द प्रयुक्त होता है ।जैसे
दोराहा - दो राहों का समाहार
पक्षद्वय - दो पक्षों का समूह
सम्पादक द्वय - दो सम्पादकों का समूह
त्रिभुज - तीन भुजाओं का समाहार
त्रिलोक या त्रिलोकी - तीन लोकों का समाहार
त्रिरत्न - तीन रत्नों का समूह
संकलन त्रय - तीन का समाहार
भुवन - त्रय - तीन भुवनों का समाहार
चौमासा / चतुर्मास - चार मासों का समाहार
चतुर्भुज - चार भुजाओं का समाहार ( रेखीय आकृति )
चतुर्वर्ण - चार वर्णों का समाहार
पंचामृत - पाँच अमृतों का समाहार
पंचपात्र - पाँच पात्रों का समाहार
पंचवटी - पाँच वटों का समाहार
षड्भुज - षट् ( छः ) भुजाओं का समाहार
सप्ताह - सप्त अह्नों ( सात दिनों ) का समाहार
सतसई - सात सौ का समाहार
सप्तशती - सप्त शतकों का समाहार
सप्तर्षि - सात ऋषियों का समूह
अष्ट – सिद्धि - आठ सिद्धियों का समाहार
नवरत्न - नवरात्र नौ रात्रियों का समाहार
दशक - दश का समाहार
शतक - सौ का समाहार
शताब्दी - शत ( सौ ) अब्दों ( वर्षों ) का समाहार
कर्मधारय समास
कर्मधारय समास में एक पद विशेषण होता है तो दूसरा पद विशेष्य । इसमें कहीं कहीं उपमेय उपमान का सम्बन्ध होता है तथा विग्रह करने पर ' रूपी ' शब्द प्रयुक्त होता हैजैसे
पुरुषोत्तम - पुरुष जो उत्तम
नीलकमल - नीला जो कमल
नवरत्न - नौ रत्नों का समूह
महापुरुष – महान जो पुरुष
घनश्याम – घन जैसा श्याम
पीताम्बर – पिला है जो अम्बर ( वस्त्र )
महर्षि - महान है जो ऋषि
नराधम – अधम है जो नर
अधमरा – आधा है जो मरा
रक्ताम्बर – रक्त ( लाल ) है जो अम्बर
कुमति – कुत्सित है जो मति
कुपुत्र – कुत्सित है जो पुत्र
दुष्कर्म – दूषित है जो कर्म
चरम सीमा - चरम है जो सीमा
लाल - मिर्च - लाल है जो मिर्च
कृष्ण – पक्ष – कृष्ण ( कला ) है जो पक्ष
मन्द – बुद्धि – मन्द है जो बुद्धि
शुभागमन - शुभ है जो आगमन
नीलोत्पल - नीला है जो उत्पल ( कमल )
मृगनयन - मृग के समान नयन
चन्द्रमुख - चन्द्र जैसा मुख
राजऋषि - जो राजा भी है और ऋषि भी
नरसिंह - जो नर भी है और सिंह भी
वचनामृत - वचनरूपी अमृत
भव - सागर - भव रूपी सागर
चरण - कमल - चरण रूपी कमल
क्रोधाग्नि – क्रोध रूपी अग्नि
चरणारविन्द – चरण रूपी अरविन्द
विद्या - धन - विद्या रूपी धन
ये भी देखें
कर्मधारय समास और बहुब्रीहि समास में अंतर
कुछ शब्द कर्मधारय और बहुब्रीहि समास दोनों में समान रूप से प्राप्त होते हैं , इन दोनों में अंतर होता है । कर्मधारय समास में एक पद विशेषण या उपमान होता है और दूसरा पद विशेष्य या उपमेय होता है । इसमें शब्दार्थ प्रधान होता है । कर्मधारय समास में दूसरा पद प्रधान होता है तथा पहला पद विशेष्य के विशेषण का कार्य करता है ।जैसे –
नीलकंठ = नीला है जो कंठ
नीलकंठ - नीले है कंठ जिसके वह – शिव
द्विगु समास और बहुब्रीहि समास में अंतर
द्विगु समास में पहला पद संख्यावाचक विशेषण होता है और दूसरा पद विशेष्य होता है जबकि बहुब्रीहि समास में समस्त पद ही विशेषण का कार्य करता है ।जैसे
चतुर्भुज -चार भुजाओं का समूह चतुर्भुज
चार हैं भुजाएं जिसकी
द्विगु और कर्मधारय समास में अंतर
द्विगु का पहला पद हमेशा संख्यावाचक विशेषण होता है जो दूसरे पद की गिनती बताता है जबकि कर्मधारय का एक पद विशेषण होने पर भी संख्यावाचक कभी नहीं होता है । द्विगु का पहला पद्द ही विशेषण बन कर प्रयोग में आता है जबकि कर्मधारय में कोई भी पद दूसरे पद का विशेषण हो सकता है ।जैसे
नवरात्र - नौ रात्रों का समूह
रक्तोत्पल - रक्त है जो उत्पल
अन्य समास
संयोगमूलक समास
संयोगमूलक समास को संज्ञा समास भी कहते हैं । इस समास में दोनों पद संज्ञा होते हैं अर्थात इसमें दो संज्ञाओं का मेल होता है ।जैसे
माँ - बाप
भाई - बहन
दिन - रात
माता - पिता
आश्रयमूलक समास
आश्रयमूलक समास को विशेषण समास भी कहा जाता है । यह प्रायः कर्मधारय समास होता है । इस समास में प्रथम पद विशेषण होता है और दूसरा पद का अर्थ बलवान होता है । यह विशेषण - विशेष्य , विशेष्य विशेषण , विशेषण , विशेष्य आदि पदों द्वारा सम्पन्न होता है ।जैसे
शीशमहल
घनस्याम
लाल – पीला
मौलवीसाहब
वर्णनमूलक समास
वर्णनमूलक समास के अंतर्गत बहुब्रीहि और अव्ययीभाव समास का ग्रहण होता है । इस समास में पहला पद अव्यय होता है और दूसरा पद संज्ञा ।जैसे
यथाशक्ति
प्रतिमास
घड़ी - घड़ी
प्रत्येक
भरपेट
समास और संधि में अंतर
संधि का शाब्दिक अर्थ होता है मेल । संधि में उच्चारण के नियमों का विशेष महत्व होता है । इसमें दो वर्ण होते हैं इसमें कहीं पर एक तो कहीं पर दोनों वर्णो में परिवर्तन हो जाता है और कहीं पर तीसरा वर्ण भी आ जाता है । संधि किये हुए शब्दों को तोड़ने की क्रिया विच्छेद कहलाती है । संधि में जिन शब्दों का योग होता है उनका मूल अर्थ नहीं बदलता ।जैसे
पुस्तक + आलय = पुस्तकालय ।
समास का शाब्दिक अर्थ होता है संक्षेप । समास में वर्गों के स्थान पर पद का महत्व होता है । इसमें दो या दो से अधिक पद मिलकर एक समस्त पद बनाते हैं और इनके बीच से विभक्तियों का लोप हो जाता है । समस्त पदों को तोड़ने की प्रक्रिया को विग्रह कहा जाता है । समास में बने हुए शब्दों के मूल अर्थ को परिवर्तित किया भी जा सकता है और परिवर्तित नहीं भी किया जा सकता है ।
जैसे
पीताम्बर – पिले हैं वस्त्र जिसके / पिले हैं जो वस्त्र ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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