आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी
Acharya Mahavir Prasad Dwivedi
(15 मई 1864-21 दिसम्बर 1938)
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का जन्म उत्तर प्रदेश के (बैसवारा) रायबरेली जिले के दौलतपुर गाँव में 15 मई 1864 को हुआ । इनके पिता का नाम पं॰ रामसहाय दुबे था। धनाभाव के कारण इनकी औपचारिक शिक्षा अधिक नही हो पाई । इन्हें जी आई पी रेलवे में नौकरी मिल गई। कुछ समय रेल विभाग में नौकरी की परन्तु अपने उच्चाधिकारी से न पटने और स्वाभिमानी स्वभाव के कारण 1904 में झाँसी में रेल विभाग की 200 रुपये मासिक वेतन की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। नौकरी के साथ-साथ द्विवेदी अध्ययन में भी जुटे रहे और हिंदी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, संस्कृत आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
सन् 1903 में द्विवेदी जी ने सरस्वती मासिक पत्रिका के संपादन का कार्यभार सँभाला और उसे सत्रह वर्ष तक कुशलतापूर्वक निभाया। 1904 में नौकरी से त्यागपत्र देने के पश्चात स्थायी रूप से 'सरस्वती'के संपादन कार्य में लग गये । 1920 में संपादन-कार्य से अवकाश प्राप्त कर द्विवेदी जी अपने गाँव चले आए। अत्यधिक बीमार होने से 21 दिसम्बर 1938 को रायबरेली में इनका देहावसान हो गया ।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। इन्होने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। इनके इस अतुलनीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' (1900–1920) के नाम से जाना जाता है।इन्होंने सत्रह वर्ष तक हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती का सम्पादन किया। हिन्दी नवजागरण में इनकी उल्लेखनीय भूमिका रही। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति व दिशा देने में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा।द्विवेदी जी ने विपुल साहित्य रचना की। इनके छोटे-बड़े ग्रंथों की संख्या कुल मिलाकर 81 है। पद्य के मौलिक-ग्रंथों में काव्य-ग्रन्थों में काव्य मंजूषा, कविता देवी-स्तुति, शतक आदि प्रमुख है। गंगालहरी, ॠतु तरंगिणी, कुमार संभव सार आदि इनके अनूदित पद्य-ग्रंथ हैं।गद्य के मौलिक ग्रंथों में तरुणोपदेश, नैषध चरित्र चर्चा, हिंदी कालिदास की समालोचना, नाटय शास्त्र, हिंदी भाषा की उत्पत्ति, कालीदास की निरंकुशता आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अनुवादों में वेकन विचार, रत्नावली, हिंदी महाभारत, वेणी संहार आदि प्रमुख हैं ।
द्विवेदी जी हिन्दी के पहले लेखक थे, जिन्होंने केवल अपनी जातीय परंपरा का गहन अध्ययन ही नहीं किया था, बल्कि उसे आलोचकीय दृष्टि से भी देखा था। उन्होने अनेक विधाओं में रचना की। कविता, कहानी, आलोचना, पुस्तक समीक्षा, अनुवाद, जीवनी आदि विधाओं के साथ उन्होंने अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास आदि अन्य अनुशासनों में न सिर्फ विपुल मात्रा में लिखा, बल्कि अन्य लेखकों को भी इस दिशा में लेखन के लिए प्रेरित किया। द्विवेदी जी केवल कविता, कहानी, आलोचना आदि को ही साहित्य मानने के विरुद्ध थे। वे अर्थशास्त्र, इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र आदि विषयों को भी साहित्य के ही दायरे में रखते थे। वस्तुतः स्वाधीनता, स्वदेशी और स्वावलंबन को गति देने वाले ज्ञान-विज्ञान के तमाम आधारों को वे आंदोलित करना चाहते थे। इस कार्य के लिये उन्होंने सिर्फ उपदेश नहीं दिया, बल्कि मनसा, वाचा, कर्मणा स्वयं लिखकर दिखाया ।
इन्होंने वेदों से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक के संस्कृत-साहित्य की निरंतर प्रवहमान धारा का अध्ययन किया एवं उपयोगिता तथा कलात्मक योगदान के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टि अपनायी । इन्होंने श्रीहर्ष के संस्कृत महाकाव्य नैषधीयचरितम् पर अपनी पहली आलोचना पुस्तक 'नैषधचरित चर्चा ' नाम से लिखी , जो संस्कृत-साहित्य पर हिन्दी में पहली आलोचना-पुस्तक भी है। फिर इन्होंने लगातार संस्कृत-साहित्य का अन्वेषण, विवेचन और मूल्यांकन किया। उन्होंने संस्कृत के कुछ महाकाव्यों के हिन्दी में औपन्यासिक रूपांतर भी किये, जिनमें कालिदास कृत रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत , किरातार्जुनीय प्रमुख हैं।
संस्कृत, ब्रजभाषा और खड़ी बोली में स्फुट काव्य-रचना से साहित्य-साधना का आरंभ करने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत और अंग्रेजी से क्रमश: ब्रजभाषा और हिन्दी में अनुवाद-कार्य के अलावा प्रभूत समालोचनात्मक लेखन किया। उनकी मौलिक पुस्तकों में नाट्यशास्त्र , विक्रमांकदेव चरित , हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और संपत्तिशास्त्र प्रमुख हैं तथा अनूदित पुस्तकों में शिक्षा और स्वाधीनता प्रमुख हैं ।
प्रमुख कृतियाँ
मौलिक पद्य रचनाएँ
देवी स्तुति-शतक (1892 ई.)
कान्यकुब्जावलीव्रतम (1898 ई.)
समाचार पत्र सम्पादन स्तवः (1898 ई.)
नागरी (1900 ई.)
कान्यकुब्ज-अबला-विलाप (1907 ई.)
काव्य मंजूषा (1903 ई.)
सुमन (1923 ई.)
द्विवेदी काव्य-माला (1940 ई.)
कविता कलाप (1909 ई.)
पद्य (अनूदित)
विनय विनोद (1889 ई.)- भर्तृहरि के 'वैराग्यशतक' का दोहों में अनुवाद
विहार वाटिका (1890 ई.)- गीत गोविन्द का भावानुवाद
स्नेह माला (1890 ई.)- भर्तृहरि के 'शृंगार शतक' का दोहों में अनुवाद
श्री महिम्न स्तोत्र (1891 ई.)- संस्कृत के 'महिम्न स्तोत्र' का संस्कृत वृत्तों में अनुवाद
गंगा लहरी (1891 ई.)- पण्डितराज जगन्नाथ की 'गंगालहरी' का सवैयों में अनुवाद
ऋतुतरंगिणी (1891 ई.)- कालिदास के 'ऋतुसंहार' का छायानुवाद
सोहागरात (अप्रकाशित)- बाइरन के 'ब्राइडल नाइट' का छायानुवाद
कुमारसम्भवसार (1902 ई.)- कालिदास के 'कुमारसम्भवम्' के प्रथम पाँच सर्गों का सारांश
मौलिक गद्य रचनाएँ
नैषध चरित्र चर्चा (1899 ई.)
तरुणोपदेश (अप्रकाशित)
हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना (1901 ई.)
वैज्ञानिक कोश (1906ई.)
नाट्यशास्त्र (1912ई.)
विक्रमांकदेवचरितचर्चा (1907ई.)
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति (1907ई.)
सम्पत्ति-शास्त्र (1907ई.)
कौटिल्य कुठार (1907ई.)
कालिदास की निरकुंशता (1912ई.)
वनिता-विलाप (1918ई.)
औद्यागिकी (1920ई.)
रसज्ञ रंजन (1920ई.)
कालिदास और उनकी कविता (1920ई.)
सुकवि संकीर्तन (1924ई.)
अतीत स्मृति (1924ई.)
साहित्य सन्दर्भ (1928ई.)
अदभुत आलाप (1924ई.)
महिलामोद (1925ई.)
आध्यात्मिकी (1928ई.)
वैचित्र्य चित्रण (1926ई.)
साहित्यालाप (1926ई.)
विज्ञ विनोद (1926ई.)
कोविद कीर्तन (1928ई.)
विदेशी विद्वान (1928ई.)
प्राचीन चिह्न (1929ई.)
चरित चर्या (1930ई.)
पुरावृत्त (1933ई.)
दृश्य दर्शन (1928ई.)
आलोचनांजलि (1928ई.)
चरित्र चित्रण (1929ई.)
पुरातत्त्व प्रसंग (1929ई.)
साहित्य सीकर (1930ई.)
विज्ञान वार्ता (1930ई.)
वाग्विलास (1930ई.)
संकलन (1931ई.)
विचार-विमर्श (1931ई.)
गद्य (अनूदित)
भामिनी-विलास (1891ई.)- पण्डितराज जगन्नाथ के 'भामिनी विलास' का अनुवाद
अमृत लहरी (1896ई.)- पण्डितराज जगन्नाथ के 'यमुना स्तोत्र' का भावानुवाद
बेकन-विचार-रत्नावली (1901ई.)- बेकन के प्रसिद्ध निबन्धों का अनुवाद
शिक्षा (1906ई.)- हर्बर्ट स्पेंसर के 'एजुकेशन' का अनुवाद
स्वाधीनता (1907ई.)- जॉन स्टुअर्ट मिल के 'ऑन लिबर्टी' का अनुवाद
जल चिकित्सा (1907ई.)- जर्मन लेखक लुई कोने की जर्मन पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद का अनुवाद
हिन्दी महाभारत (1908ई.)-'महाभारत' की कथा का हिन्दी रूपान्तर
रघुवंश (1912ई.)- कालिदास के 'रघुवंशम्' महाकाव्य का भाषानुवाद
वेणी-संहार (1913ई.)- संस्कृत कवि भट्टनारायण के 'वेणीसंहार' नाटक का अनुवाद
कुमार सम्भव (1915ई.)- कालिदास के 'कुमार सम्भव' का अनुवाद
मेघदूत (1917ई.)- कालिदास के 'मेघदूत' का अनुवाद
किरातार्जुनीय (1917ई.)- भारवि के 'किरातार्जुनीयम्' का अनुवाद
प्राचीन पण्डित और कवि (1918ई.)- अन्य भाषाओं के लेखों के आधार पर प्राचीन कवियों और पण्डितों का परिचय
आख्यायिका सप्तक (1927ई.)- अन्य भाषाओं की चुनी हुई सात आख्यायिकाओं का छायानुवाद।
साहित्यिक विवेचन
वर्ण्य विषय
हिंदी भाषा के प्रसार, पाठकों के रुचि परिष्कार और ज्ञानवर्धन के लिए द्विवेदी जी ने विविध विषयों पर अनेक निबंध लिखे। विषय की दृष्टि से द्विवेदी जी निबंध आठ भागों में विभाजित किए जा सकते हैं - साहित्य, जीवन चरित्र, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, उद्योग, शिल्प भाषा, अध्यात्म । द्विवेदी जी ने आलोचनात्मक निबंधों की भी रचना की। उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में संस्कृत टीकाकारों की भांति कृतियों का गुण-दोष विवेचन किया और खंडन-मंडन की शास्त्रार्थ पद्धति को अपनाया है ।
शैली
भावात्मक शैली
भावात्मक शैली का प्रयोग उनके प्रति सम्बन्धी निबन्धों में प्रचुरता से हुआ है । इसमें कोमलकान्त मधुर पदावली के साथ - साथ अनुप्रास की छटा सर्वत्र विद्यमान है । ऐसे स्थलों पर भाषा में आलंकारिकता का भी समावेश हुआ है ।
- " कुंकुम मिश्रित सफेद चन्दन के सदृश उन्हीं लालिमा मिली हुई सफेद किरणों से चन्द्रमा पश्चिम दिग्वधू का श्रृंगार सा कर रहा है । "
परिचयात्मक शैली
द्विवेदी जी ने नये-नये विषयों पर लेखनी चलाई। विषय नये और प्रारंभिक होने के कारण द्विवेदी जी ने उनका परिचय सरल और सुबोध शैली में कराया। ऐसे विषयों पर लेख लिखते समय द्विवेदी जी ने एक शिक्षक की भांति एक बात को कई बार दुहराया है ताकि पाठकों की समझ में वह भली प्रकार आ जाए। इस प्रकार लेखों की शैली परिचयात्मक शैली है।
आलोचनात्मक शैली
हिंदी भाषा के प्रचलित दोषों को दूर करने के लिए द्विवेदी जी इस शैली में लिखते थे। इस शैली में लिखकर उन्होंने विरोधियों को मुंह-तोड़ उत्तर दिया। यह शैली ओजपूर्ण है। इसमें प्रवाह है और इसकी भाषा गंभीर है। कहीं-कहीं यह शैली ओजपूर्ण न होकर व्यंग्यात्मक हो जाती है। ऐसे स्थलों पर शब्दों में चुलबुलाहट और वाक्यों में सरलता रहती है।
- 'इस म्यूनिसिपाल्टी के चेयरमैन (जिसे अब कुछ लोग कुर्सी मैन भी कहने लगे हैं) श्रीमान बूचा शाह हैं। बाप दादे की कमाई का लाखों रुपया आपके घर भरा हैं। पढ़े-लिखे आप राम का नाम हैं। चेयरमैन आप सिर्फ़ इसलिए हुए हैं कि अपनी कार गुज़ारी गवर्नमेंट को दिखाकर आप राय बहादुर बन जाएं और खुशामदियों से आठ पहर चौंसठ घर-घिरे रहें।'
विचारात्मक अथवा गवेषणात्मक शैली
गंभीर साहित्यिक विषयों के विवेचन में द्विवेदी जी ने इस शैली को अपनाया है। इस शैली के भी दो रूप मिलते हैं। पहला रूप उन लेखों में मिलता है जो किसी विवादग्रस्त विषय को लेकर जनसाधारण को समझाने के लिए लिखे गए हैं। इसमें वाक्य छोटे-छोटे हैं। भाषा सरल है। दूसरा रूप उन लेखों में पाया जाता है जो विद्वानों को संबोधित कर लिखे गए हैं। इसमें वाक्य अपेक्षाकृत लंबे हैं। भाषा कुछ क्लिष्ट है।
- “अप्समार और विक्षिप्तता मानसिक विकार या रोग है। उसका संबंध केवल मन और मस्तिष्क से है। प्रतिभा भी एक प्रकार का मनोविकार ही है। इन विकारों की परस्पर इतनी संलग्नता है कि प्रतिभा को अप्समार और विक्षिप्तता से अलग करना और प्रत्येक परिणाम समझ लेना बहुत ही कठिन है।”
- " जो प्रतापी पुरुष अपने तेज से अपने शत्रुओं को पराभव करने की शक्ति रखते हैं , उनके अग्रगामी सेवळ भी कम पराक्रमी नहीं होते ।”
वर्णनात्मक शैली
द्ववेदी जी के वर्णनात्मक निबन्धों में इस शैली का प्रयोग किया गया है । किसी स्थान , घटना या तथ्य का वर्णन करना उनका उद्देश्य है , वहां वर्णनात्मकता की प्रमुखता है । आत्मकथात्मक निबन्धों में भी यही शैली दिखाई पड़ती है । ' दण्डदेव का आत्म निवेदन , हंस सन्देश ' नामक निवन्धों में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है ।
भाषा
द्विवेदी जी का सबसे बड़ा योगदान है खड़ी बोली हिन्दी को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करना । उन्होंने ब्रजभाषा में लिखी जाने वाली हिन्दी कविता को प्रोत्साहन नहीं दिया और इस बात पर बल दिया कि गद्य एवं पद्य की भाषा एक होनी चाहिए ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्विवेदी जी के गद्य - भाषा सुधार के विषय में कहते हैं “गद्य की भाषा पर द्विवेदी जी के इस शुभ प्रभाव का स्मरण जब तक भाषा के लिए शुद्धता आवश्यक समझी जाएगी , तब तक बना रहेगा।”
इन्होंने ' सम्पति शाख जैसा ग्रंथ लिखकर गद्य की मानक भाषा का उदाहरण रखा |
द्विवेदी जी सरल और सुबोध भाषा लिखने के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं सरल और प्रचलित भाषा को अपनाया। उनकी भाषा में न तो संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है और न उर्दू-फारसी के अप्रचलित शब्दों की भरमार है। वे गृह के स्थान पर घर और उच्च के स्थान पर ऊँचा लिखना अधिक पसंद करते थे। द्विवेदी जी ने अपनी भाषा में उर्दू और फारसी के शब्दों का निस्संकोच प्रयोग किया, किंतु इस प्रयोग में उन्होंने केवल प्रचलित शब्दों को ही अपनाया। द्विवेदी जी की भाषा का रूप पूर्णतः स्थिर है। वह शुद्ध परिष्कृत और व्याकरण के नियमों से बंधी हुई है। उनका वाक्य-विन्यास हिंदी को प्रकृति के अनुरूप है कहीं भी वह अंग्रेज़ी या उर्दू के ढंग का नहीं।
महत्वपूर्ण कार्य
द्विवेदी जी ने ' सरस्वती ' का सम्पादन कार्य सन् 1903 ई . में संभाला तथा 1920 ई . तक अनवरत रूप में इससे जुड़े रहे । इस दीर्घकालावधि में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए । एक ओर तो उन्होंने हिन्दी गद्य का संस्कार , परिष्कार एवं परिमार्जन किया तो दूसरी ओर लेखकों को उनकी कमियों से अवगत कराया तथा भाषा की व्याकरणिक भूलों को सुधार कर भाषा परिष्कार किया । वाक्य गठन में भी वे शुद्धता के पक्षपाती रहे तथा लेखकों को वाक्य गठन के दोषों से अवगत कराते हुए उनके परिमार्जन का प्रयास किया । द्विवेदी जी ने ' कवि कर्तव्य ' जैसे निबन्ध लिखकर कवियों को भाषा , शैली , छन्द योजना , विषय वस्तु सम्बन्धी अनेक निर्देश दिए , जिसने हिन्दी कविता की दिशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया । हिन्दी गद्य में विराम चिह्नों का सूत्रपात भी द्विवेदी जी के प्रयासों से ही हुआ । द्विवेदी जी का सबसे बड़ा योगदान है खड़ी बोली हिन्दी को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करना । द्विवेदी जी ने गद्य और पद्य की खड़ी बोली हिन्दी का परिमार्जन और मानकीकरण किया ।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी , सरस्वती मैं छपने वाली कविताओं तक की भाषा शुद्ध कर दिया करते थे अथवा अपने सुझावों सहित लौटा देते थे । उनमें इतना विवेक अवश्य था कि अवांछित परिवर्तन न किए जाएं । मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं उन्होंने सुधारी परन्तु निराला की कविताएं ज्यों की त्यों लौटा दी क्योंकि में भाषापरक परिवर्तन संभव नहीं था ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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