अलंकार alankaar-1

 अलंकार alankaar-1

अलंकार

अलंकार शब्द का वाचिक अर्थ आभूषण है । आभूषण का अर्थ है -  शोभा बढ़ाने वाला या जिन्हें धारण कर भूषित किया जाता है । "न कान्तमपि निर्भूषम् विभाति वनिता मुखम् ।" साधारणतः जो शारीरिक शोभा को बढ़ाते हैं उन्हें अलंकार खहते हैं । साहित्य में अलंकार से तात्पर्य शब्दों के प्रयोग द्वारा उसके सौंदर्य में वृद्धि से है । जिस प्रकार आभूषण धारण करने से तन की शोभा बढ़ती है , ठीक उसी प्रकार काव्य में अलंकार से काव्य की शोभा बढ़ती है ।

अलंकार शब्द की व्युत्पत्ति

अलंकार शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की गई है - 

अलंक्रीयते अनेन इति अलंकार 

अलंकरोति इति अलंकार 


आचार्यों के मत में अलंकार

अलंकार सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य भामह और प्रतिष्ठाप्रदाता एवं पोषक आचार्य रुद्रट , जयदेव है ।

  • आचार्य भामह के अनुसार - अलंकार काव्य का मूल तत्व है । 
  • आचार्य दण्डी के अनुसार – “काव्य शोभाकरान धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते” अर्थात् काव्य की शोभा करने वाले धर्मों ( तत्त्वों ) को अलंकार कहते हैं ।
  • आचार्य रूद्रट के अनुसार – “अभिधान प्रकार विशेषा एव चालंकाराः” अर्थात् कथन ( अभिव्यक्ति ) के विशिष्ट प्रकार ही अलंकार हैं ।
  • आचार्य वामन के अनुसार -  “काव्य शोभायां कतरो धर्माः गुणाः” अर्थात काव्य की शोभा के करने वाले धर्मों को गुण कहते हैं । 
  • अग्निपुराण के अनुसार – “अर्थालंकार रहिता विधवैय सरस्वती” अर्थात अर्थालंकार के अभाव में कविता ( सरस्वती ) की स्थिति एक विधवा नारी के समान होती है ।
  • आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार -  “भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप गुण क्रिया का अधिक तीव्रता के साथ अनुभव कराने में सहायक उक्ति को अलंकार कहते हैं ।“
  •  डॉ . रामकुमार वर्मा के अनुसार – “अलंकारों के प्रयोग से भाषा और भावों की नग्नता दूर होकर उसमें सौन्दर्य और सुषमा की सृष्टि होती है ।“ 
  • डॉ . नगेन्द्र के अनुसार - “अलंकारोतीत्य अलंकार” ( जो सुशोभित करता है ) , “अलंक्रियतेडने नेत्यलंकार” ( जिसके द्वारा किसी की शोभा होती है ) को अलंकार माना है ।


सार 

  1. काव्य सौन्दर्य का मूल अलंकार है । 
  2. अलंकारों का मूल वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति है । 
  3. अलंकार और अलंकार्य में कोई भेद नहीं है । 
  4. स्वभावोक्ति अलंकार नहीं है . न ही काव्य है । वह केवल वार्ता , अकाव्य है । 
  5. अलंकार काव्य का शोभाधायक धर्म और उसका मूल सौन्दर्य है । 
  6. ध्वनि , रस , संधियों , वृत्तियों , गुणों , रीतियों को भी अलंकार की संज्ञा से अभिहित किया जाता है ।
  7. अलंकार काव्य के सहायक तत्त्व है । 

अलंकार प्रयोग का प्रयोजन

शिपले ने अलंकार प्रयोग के 9 प्रयोजन माने हैं – 

विषय का स्पष्टीकरण , सादृश्य प्रस्तुत करना , शक्तिमत्ता , सजीवता , साहचर्य जगाना , हास्य उत्पन्न करना , अलंकृति , सौन्दर्य और विशिष्ट में सामान्य का प्रदर्शन । 

आचार्य शुक्ल तो भावों का उत्कर्ष दिखाने , रूप , गुण , क्रिया को अधिक तीव्र कराने की युक्ति को अलंकार कहते है ।

अलंकारों का महत्व

  1. अलंकारों का प्रयोग काव्य की शोभा बढ़ाने का साधन रूप है , साध्य नहीं । 
  2. अलंकारों के प्रयोग से काव्य में चमत्कार की व्यंजना होती है ।
  3. अलंकारों के प्रयोग का सहज एवं स्वाभाविक रूप में प्रयोग ही ग्राह्य है ; कृत्रिम व अस्वभाविक रूप में प्रयोग से भौंड़ा व भद्दापन आ जाता है । 
  4. अलंकार नैसर्गिक सौन्दर्य की ही शोभा बढ़ा सकते हैं । किसी नैसर्गिक सौंदर्य से हीन वस्तु को हार एवं कंगन आदि पहनाना अलंकरण नहीं कहा जा सकता । 
  5. दोषयुक्त रसहीन कवि की वाणी की शोभा अलंकारों से अतिशयता को प्राप्त नहीं हो सकती । 

अलंकार के भेद

मूल रूप से अलंकार के दो भेद हैं - 

शब्दालंकार 

अर्थालंकार 


शब्दालंकार

जब काव्य में शब्दों के प्रयोग द्वारा चमत्कृति उत्पादित की जाती है अर्थात काव्य के सौंदर्य में वृद्धि की जाती है तो उसे शब्दालंकार कहते हैं ।

‘शब्दालंकार शब्द’ दो शब्द ‘शब्द+अलंकार’ से बना है । शब्द से तात्पर्य ध्वनि व अर्थ से होता है । इसी आधार पर ध्वनि को आधार बनाकर निर्मित अलंकार शब्दालंकार कहलाता है । काव्य में किसी विशेष ध्वनि का बार-बार प्रयोग करके चमत्कृति उत्पन्न की जाती है परंतु उस शब्द के स्थान पर्यायवाची रख देने पर उसका अस्तित्व नही रहता ।

उदाहरण

तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये । 

भगवान ! भक्तों की भयंकर भूरि भीति भगाइये । 

तीन बेर खाती थीं , वे तीन बेर खाती है । 


यहाँ ‘त’ , ‘भ’ व ‘तीन बेर’ का अधिक प्रयोग कर शब्दालंकार की सृष्टि की गई है ।


प्रमुख शब्दालंकार

अनुप्रास               पुनरूक्ति प्रकाश 

वक्रोक्ति                 लाटानुप्रास 

यमक                 पुनरूक्तिवदाभास

श्लेष  


अर्थालंकार 

शब्द में निहित अर्थ को आधार बनाकर अलंकार अर्थात् अलंकृति जब शब्दों के अर्थ में होती है और एक शब्द के स्थान पर उसका दूसरा पयार्यवाची शब्द रखने पर उसका चमत्कार या सौन्दर्य नष्ट नहीं होता है तब अर्थालंकार होता है । 

उदाहरण

मुख मयंक सम मंजु मनोहर - मुख को चन्द्रमा के समान सुन्दर कहा गया हैं मयंक के स्थान पर शशि चन्द्र लिखने से उपमा अलंकार नष्ट नहीं होता है । 

हरिमुख कमल विलोकिय सुन्दर - यहाँ मुख को कमल बताया गया है । 


प्रमुख अर्थालंकार

रूपक               प्रतीप                   संदेह 

उत्प्रेक्षा             भ्रांतिमान            व्यतिरेक 

दृष्टान्त        रूप कातिशयोक्ति         निदर्शना 

समासोक्ति          स्मरण

अन्योक्ति            अपहुति


अलंकार के अन्य प्रमुख भेद

  1. सादृश्य मूलक 
  2. विरोध मूलक 
  3. श्रृंखला मूलक 
  4. न्याय मूलक 
  5. गूढार्थ मूलक



सादृश्य मूलक अलंकार 

जिनमें सादृश्य न होने पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत के सादृश्य का निरूपण किया जाता है । किन्हीं दो वस्तुओं के गुण , धर्म , रूप की समानता के आधार पर चमत्कार की व्यंजना होती है । 


विरोधमूलक अलंकार

किन्हीं दो वस्तुओं के गुण , रूप , धर्म में विरोध की भावना प्रकट होती हो , एवं विरोध की भावना को ध्यान में रखते हुए चमत्कार की सृष्टि होती हो । 

प्रमुख विरोधमूलक अलंकार

विभावना                             विशेषोक्ति 

विरोधाभास                            असंगति

अधिक                                      अल्प 

विषम                                      व्याघात 


श्रृंखला मूलक अर्थालंकार 

जब दो या दो से अधिक वस्तुओं का एक विशेष क्रम से वर्णन किया जाता है । 

प्रमुख श्रृंखला मूलक अर्थालंकार

कारणमाला                एकावली                     

मालादीपक                   सार 


न्यायमूलक अर्थालंकार 

जब दृष्टांत ( उदाहरण ) युक्त वाक्य या उक्ति में तर्क लोक प्रमाण के द्वारा अर्थ चमत्कार की सृष्टि हो । 

प्रमुख न्यायमूलक अर्थालंकार 

काव्य लिंग               अनुमान

तद्गुण                    एतद्गुण           मिलित

उन्मीलित                सामान्य – विशेषक


गूढार्थ प्रतीतिमूलक अलंकार

जब व्यंग्य द्वारा प्रस्तुत कथन से नितांत विपरीत बात कहना वक्ता का उद्देश्य हो जैसे प्रशंसा के द्वारा निन्दा का भाव हो । 

प्रमुख गूढार्थ प्रतीतिमूलक अलंकार

सूक्ष्म            न्यायोक्ति

 

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