भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
Bartend Harishchandra
(जन्म: 9 सितंबर 1850 - मृत्यु: 6 जनवरी 1885)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 9 सितम्बर 1850 में काशी के एक धनाढ्य परिवार में हुआ था | इनके पिता गोपालराम गिरधर ' भक्त और साहित्य प्रेमी थे । 11 वर्ष की अवस्था में भारतेन्दु ने कविता लिखनी प्रारम्भ की और 15 वर्ष की अवस्था में वे परिवार के साथ जगन्नाथ पुरी की यात्रा पर गए । यहीं पर इन्हें बांग्ला साहित्य की नवीनतम प्रवृत्तियों का परिचय प्राप्त हुआ | सरल , विनोदी स्वभाव के भारतेन्दु प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे । भारतेंदु सफल नाटककार , इतिहासकार , समालोचक , पत्र सम्पादक तथा कवि होने के साथ - साथ समाज - सुधारक , - राष्ट्रवादी नेता थी थे । जब अंग्रेज सरकार ने शिवप्रसाद सिंह को ' सितारे हिन्द ' उपाधि दी तो जनता ने अपने प्रिय नेता को ' भारतेन्दु ' की उपाधि से सम्मानित किया । भारतेन्दु का निधन 34 वर्ष की अल्पायु में 1885 को हुआ । अपनी मृत्यु पर उनका ही कथन -
बहेंगे नैन नीर भरि - भरि पाछे ,
प्यारे हरिचन्द्र की कहानी रह जायगी ।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में इनका बहुमूल्य योगदान रहा। हिंदी में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्यासुन्दर (1867) नाटक के अनुवाद से होती है। यद्यपि नाटक उनके पहले भी लिखे जाते रहे किन्तु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेन्दु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया।इन्होंने 'हरिश्चंद्र चन्द्रिका', 'कविवचनसुधा' और 'बाला बोधिनी' पत्रिकाओं का संपादन भी किया। ये एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार थे। इसके अलावा ये लेखक, कवि, संपादक, निबंधकार, एवं कुशल वक्ता भी थे।भारतेन्दु जी ने मात्र चौंतीस वर्ष की अल्पायु में ही विशाल साहित्य की रचना की। उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से इतना लिखा और इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक बन गया। भारतेन्दु के समस्त काव्य - ग्रन्थों का संकलन काशी नागरी प्रचारिणी सभा , काशी द्वारा ' भारतेन्दु ग्रंथावली ' के दूसरे खण्ड में हुआ है । इनके काव्य - ग्रन्यों की संख्या 70 है ।
प्रमुख कृतियाँ
मौलिक नाटक
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873ई., प्रहसन)
सत्य हरिश्चन्द्र (1875,नाटक)
श्री चंद्रावली (1876, नाटिका)
विषस्य विषमौषधम् (1876 भाण)
भारत दुर्दशा (1880, नाट्य रासक),
नीलदेवी (1881, ऐतिहासिक गीति रूपक)।
अंधेर नगरी (1881, प्रहसन)
प्रेमजोगिनी (1875, प्रथम अंक में चार गर्भांक, नाटिका)
सती प्रताप (1883,अपूर्ण, केवल चार दृश्य, गीतिरूपक, बाबू राधाकृष्णदास ने पूर्ण किया)
अनूदित नाट्य रचनाएँ
विद्यासुन्दर (1868,नाटक, संस्कृत 'चौरपंचाशिका’ के यतीन्द्रमोहन ठाकुर कृत बँगला संस्करण का हिंदी अनुवाद)
पाखण्ड विडम्बन (कृष्ण मिश्र कृत ‘प्रबोधचंद्रोदय’ नाटक के तृतीय अंक का अनुवाद)
धनंजय विजय (1873, व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद)
कर्पूर मंजरी (1875, सट्टक, राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद)
भारत जननी (1877,नाट्यगीत, बंगला की 'भारतमाता'के हिंदी अनुवाद पर आधारित)
मुद्राराक्षस (1878, विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद)
दुर्लभ बंधु (1880, शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद)
निबन्ध संग्रह
कालचक्र (जर्नल)
लेवी प्राण लेवी
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?
कश्मीर कुसुम
जातीय संगीत
संगीत सार
हिंदी भाषा
स्वर्ग में विचार सभा
काव्यकृतियां-
भक्तसर्वस्व (1870)
प्रेममालिका (1871)
प्रेम माधुरी (1875)
प्रेम-तरंग (1877)
उत्तरार्द्ध भक्तमाल (1876)
प्रेम-प्रलाप (1877)
होली (1879)
मधु मुकुल (1881)
राग-संग्रह (1880)
वर्षा-विनोद (1880)
विनय प्रेम पचासा (1881)
फूलों का गुच्छा- खड़ीबोली काव्य (1882)
प्रेम फुलवारी (1883)
कृष्णचरित्र (1883)
दानलीला
तन्मय लीला
नये ज़माने की मुकरी
सुमनांजलि
बन्दर सभा (हास्य व्यंग)
बकरी विलाप (हास्य व्यंग)
आत्मकथा
एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती
उपन्यास
पूर्णप्रकाश
चन्द्रप्रभा
कहानी
अद्भुत अपूर्व स्वप्न
यात्रा वृत्तान्त
सरयूपार की यात्रा
लखनऊ
भारतेंदु के काव्य की प्रवृतियां
भक्ति भावना
भक्ति के संस्कार इन्हें पिता से प्राप्त हुए थे । इनके ' भक्त सर्वस्व ' , ' कार्तिक स्नान ' , ' उत्तरार्ध भक्त माल ' जैसे ग्रन्थ भक्तिभाव से ओत - प्रोत हैं । अपने आप को राधाकृष्ण का अनन्य उपासक घोषित करते हुए इन्होंने लिखा –
मेरे तो राधिका नायक ही गति लोक दोऊ रही कै नसि जाओ । '
भक्त होने के नाते भारतेन्दु ज्ञान और कर्मकाण्डों उपेक्षा करते हैं और भक्ति को ही सर्वस्व मानते हुए लिखते हैं –
मेरे तो साधन एक ही हैं , जग , नन्दलाल वृषभानु दुलारी ।
भारतेन्दु के भक्ति काव्य में माधुर्य भाव भी है और कहीं - कही दैन्य भाव की भक्ति भी है ।
श्रृंगार – भावना
भारतेन्दु की अनेक रचनाओं - प्रेम सरोवर , प्रेमाशु , प्रेम - तरंग , प्रेम माधुरी आदि में विशुद्ध श्रृंगार -भावना की अभिव्यक्ति हुई है । प्रेम के विषय में उन्होंने लिखा –
जिहि लहि फिर कछु लहन की आस न चित्त में होय ।
जयति जगत पावन करन प्रेम वरन यह दोय ।। "
प्रेम वर्णन में विरह का आधिक्य है , मिलन श्रृंगार के दृश्य कम है । वय सन्धि की अवस्था को प्राप्त बाला का सूक्ष्म चित्रण भी किया है और मिलन श्रृंगार के चित्र भी अंकित किए है परन्तु उनमें मांसलता का अभाव है ।
राजभक्ति
भारतेन्दु का परिवार उस समय के अन्य रईसों की तरह राजभक्त था । मुगल काल की अव्यवस्था के पश्चात् अंग्रेज शासन की न्याय और शान्ति - व्यवस्था भी कहीं उन्हें आश्वस्त करती होगी । साथ ही वे यह भी देख रहे थे कि अंग्रेज भारत का शोषण कर रहे हैं । इस प्रकार दुविधा की मानसिकता उनकी अन्त तक बनी रही । उन्होने राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति को अलग करके देखने का प्रयास किया । अंग्रेजी शासकों की उन्होंने प्रशंसा की है और अंग्रेजी नीतियों का अनेक स्थलों पर विरोध किया है । भारतेन्दु ग्रंथावली में राजभक्ति की कविता के अनेक उदाहरण अंकित हैं और उन्होंने इस बात पर दुःख जताया है कि उनके विरोधी उन्हें राजद्रोही सिद्ध करने में लगे हैं । मुद्राराक्षस नाटक के अन्त में रानी विक्टोरिया की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा
" पूरी अमी की कटोरिया सी चिरजीओं सदा विकटोरिया रानी "
भारतेन्दु अंग्रेज राज के समर्थक क्यों थे इसका कारण उनकी ' भारत वीरत्व ’ रचना में है जहाँ वे लिखते हैं-
" जासु राज वस्यौ सदा भारत भय त्यागी ।
जासु बुद्धि नित प्रजा पुंज रंजन महं पागी ।
विक्टोरिया के शासन में देश समृद्ध होगा यह आशा उन्हें और उनके समकालीनों को थी ।
देशभक्ति
शनैः शनै : भारतेन्दु को लगने लगा था कि अंग्रेज राज शोषणकारी एवं दमनकारी है । ' भारत दुर्दशा " और " नीलदेवी " में अंग्रेजी राज से उनका मोहभंग स्पष्ट हो जाता है । ' भारत दुर्दशा में उन्होंने लिखा है –
" रोअहु सब मिलकै आवहु भारत भाई हा हा ! भारत दुर्दशा न देखी जाई । "
" वर्षा विनोद " तथा " अंधेर नगरी " में भी भारत की तत्कालीन दशा पर दुःख व्यक्त किया है । भारत की दुर्दशा का कारण राजा का विदेशी होना बताते हुए लिखते हैं –
" अंधाधुंध मच्यों " सब देसा |
मानहुँ राजा रहत विदेसा ।"
देश में अंधेरगर्दी का कारण यही है मानो राजा कहीं विदेश में रहता है । भारतेन्दु ब्रिटिश राज के सुशासन और शोषण में से चुनाव नहीं कर पाए इसी लिए उनकी दुविधा निम्न पंक्तियों में झलकती है
" अंगरेज राज सुख साज सजै सब भारी ।
पै धन बिदेस चलि जात इहै अति ख्वारी ।। "
भारतेन्दु 1857 की क्रान्ति की ओर आकृष्ट तो होते हैं परन्तु संकोच के साथ यथा –
" कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जल बल नासी ।
निज भय सिर न हिलाय सकत कहै भारतवासी । "
वास्तव में कंपनी राज के समाप्त होने पर रानी विक्टोरिया की घोषणा से उत्पन्न आशाएँ और ब्रिटिश राज में कानून का शासन होने की आशा से भारतेन्दु कालीन कवियों ने प्राय : अंग्रेजी राज की बुराई नहीं की है । 1857 की क्रांति के पश्चात् जैसा अमानवीय दमन हुआ था और सरकार सचेत हुई थी उससे भी साहित्य में शासन विरोधी स्वर आना कठिन था ।
हास्य - व्यंग्य
भारतेन्दु ने सोद्देश्य हास्य व्यंग्य परक काव्य का सृजन किया है । " उर्दू का स्यापा " में उनका हिन्दी - प्रेम छिपा है तो " बन्दर सभा " लिखकर उन्होंने भोंडे नाटकों का मजाक उड़ाया है । भारतेन्दु की मुकरियो तथा " अन्धेर नगरी जैसे नाटकों में व्यंग्य का स्वर पैना है । एक मुकरी अंग्रेजों विषयक दृष्टव्य है
" भीतर - भीतर सब रस चूसे , हँस - हँस कर तन मन धन मूसै ।
जाहिर वातन में अति तेज , क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज ।। "
समाज सुधार
भारतेन्दु के काव्य में समाज सुधार का स्वर मुखर है । भारतेन्दु आवश्यक आर्थिक सुधारों के पक्ष में थे । ' भारत दुर्दशा में भारतीय समाज में व्याप्त रुढ़ियों और कुरीतियों का चित्रण उन्होंने किया है । समुद्र - यात्रा निषेध पर उन्होंने लिखा
" रोकि विलासत गमन कूप मंडूक बनायो । "
जुआ , मांस - मदिरा सेवन आदि का विरोध करते हुए उन्होंने व्यंग्य पूर्वक अपने नाटक " वैदिक हिंसा " , हिंसा व भवति में लिखा
" यही असार संसार में चार वस्तु हैं सार ।
जुआ , मदिरा , मांस अरू नारी संग विहार ।। "
भारतेन्दु ने स्वदेशी आन्दोलन का पक्ष लेते हुए अपनी पत्रिका " कवि वचन सुधा में स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार का प्रतिज्ञा - पत्र छपवाया था । भारतेन्दु का दृष्टिकोण अत्यन्त ही उदार तथा व्यापक था । अपने बलिया वाले भाषण में उन्होंने धर्म निरपेक्ष भारत की इच्छा व्यक्त करते हुए कहा था
" इस महामंत्र का जाप करो , जो हिन्दुस्तान में रहे , चाहे किसी रंग , किसी जाति का क्यों न हो , वह हिन्दू है । हिन्दू की सहायता करो । बंगाली , मराठा , पंजाबी , मद्रासी , वैदिक , जैन , ब्रह्मो , मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो " ।
स्वदेशी वस्तुओं के समर्थन में उन्होंने लिखा था
" मारकीन मलमल बिना चलत कहू नहि काम परदेशी जुलाहन के मानहुँ भए गुलाम । "
भाषा प्रेम
भारतेन्दु की कविता की भाषा अधिकतर ब्रज भाषा है परन्तु कहीं - कहीं खड़ी बोली में भी उन्होंने कविता लिखी है । उनकी भक्ति और श्रृंगार की कविता ब्रज में है तथा प्रचारात्मक कविता का कुछ अंश खड़ी बोली में है । उन्हें भारतीय भाषाओं से प्यार था और अपना स्वभाषा - प्रेम व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा था –
निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के , मिटत न हिय को शूल । । "
हिन्दी की उन्नति पर एक बार बयान देते हुए उन्होंने कहा था –
" प्रचलित करहु जहान में , निज भाषा करि जतन ।
राजकाज दरबार में फैलावह यह रन । "
भारतेन्दु ने काव्य रचना के लिए सरल , सरस , प्रचलित ब्रजभाषा का प्रयोग किया । तद्भव शब्दों के अधिकाधिक प्रयोग द्वारा उन्होंने अपनी कविता को बोधगम्य बनाया । उर्दू शब्दों का प्रयोग भी इन्होंने खुलकर किया है-
" खाना - पीना नाच तमाशा ऐश - आराम सभी जैसे बिजन नमक बिना त्या राम बिना बेकाम सभी ।
अंग्रेजी शब्दों से भी उन्हें परहेज नहीं था –
" लहंगा दुपट्टा ठीक नहीं लागे ।
मेमन का गौन मंगायो नहीं देत्यो । '
भारतेन्दु मंडल
भारतेन्दु मण्डल का केन्द्र तो काशी था और महल के अधिकांश लेखक काशी में रहते थे , यथा - दामोदर शास्त्री सप्रे , मोहनलाल विष्णु पंडया , कार्तिक प्रसाद खत्री , अंबिकादत्त व्यास , रामकृष्ण वर्मा तथा सुधाकर द्विवेदी जैसे लोग काशी में ही थे । मिर्जापुर के बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन , इलाहाबाद के बालकृष्ण भट्ट , कानपुर के प्रतापनारायण मिश्र , वृंदावन के गोस्वामी राधाचरण तथा इलाहाबाद के लाला सीताराम इस मंडल में थे । संवेदनात्मक स्तर पर ये सभी लेखक एक दूसरे के निकट थे और भारतेन्दु का सहयोग एवं संरक्षण इन्हें प्राप्त था । इनमें से अधिकांश पत्रकार भी थे । भारतेन्दु की " कवि वचन सुधा " तथा " हरिश्चन्द्र चंद्रिका ' , ' प्रेमधन की आनंद कादंबिनी " , बालकृष्ण भट्ट का " हिन्दी प्रदीप " प्रतापनारायण मिश्र का " ब्राह्मण ' , लाला श्रीनिवास दास की " सदादर्शी " केशवचरण का " भारतेन्दु ' जैसे पत्र और पत्रिकाएँ इस मंडल के सदस्य निकालते थे । साहित्यिक पत्रकारिता के विकास के लिए भारतेंदु युग स्वर्णयुग था । एक बड़ा पाठकवर्ग इन पत्र - पत्रिकाओं ने तैयार किया ।
भारतेन्दु का मूल्यांकन
भारतेन्दु की कविता में कहीं अतीत गौरव की गर्वगाथा है , कहीं वर्तमान अधोगति का चित्रण है । कहीं भविष्य की चिन्ता है , कहीं भक्ति तथा श्रृंगार के पद और कवित्त सवैये हैं । प्रकृति वर्णन में भारतेन्दु बाह्य प्रकृति का चित्रण कम कर पाए आम्यांतर प्रकृति का चित्रण अधिक किया है । गंगा वर्णन में कृत्रिमता है । भारतेन्दु ने हिन्दी कविता मैं नवीन विषयों को प्रवेश करयाया और उसे जनता से जोड़ा । अठारह के लगभग नाटक उनके लेखन के केन्द्र में हैं । वे नाटक को निरक्षर और साक्षर , दोनों के लिए उपयोगी मानते थे । इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि भारतेंदु हिन्दी के आकाश में ध्रुव तारे की भांति सदैव जगमगाते रहेंगे ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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