हरिवंशराय बच्चन
Harivansh Rai Bachchan
(27 नवम्बर 1907-18 जनवरी 2003)
हालावाद के प्रवर्तक हरिवंशराय बच्चन जी का जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद में एक कायस्थ परिवार मे हुआ । इनका वास्तविक नाम हरिवंश श्रीवास्तव था । इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव तथा माता का नाम सरस्वती देवी था। इन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू और फिर हिंदी की शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम॰ए॰ और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू॰बी॰ यीट्स की कविताओं पर शोध कर PH.D(पीएच.डी.) की । 1926 में 19 वर्ष की उम्र में इनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो उस समय 14 वर्ष की थीं। लेकिन 1936 में श्यामा की टीबी के कारण मृत्यु हो गई। पाँच साल बाद 1941 में बच्चन ने तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं।इसी समय उन्होंने 'नीड़ का निर्माण फिर' जैसे कविताओं की रचना की। तेजी बच्चन ने हरिवंश राय बच्चन द्वारा अनुदित शेक्सपियर के कई नाटकों में अभिनय का काम किया है । इनके पुत्र अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं।
बच्चनजी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन किया। 1955 में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। अनन्तर राज्य सभा के मनोनीत सदस्य भी रहे । जीवन के अंतिम क्षणों तक वह स्वतंत्र लेखन करते रहे। बच्चन जी की गिनती हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में होती है। इन्हें सोवियतलैंड तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘दशदवार से सोपान’ तक रचना पर इन्हें सरस्वती सम्मान दिया गया। इनकी प्रतिभा और साहित्य सेवा को देखकर भारत सरकार ने इनको पदमभूषण की उपाधि से अलंकृत किया।
18 जनवरी सन् 2003 में ये सांस की बीमारी के चलते इस संसार को छोड़कर चिरनिद्रा में लीन हो गए।
पुरस्कार/सम्मान
इनकी कृति दो चट्टानें को 1968 में हिन्दी कविता के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया । इसी वर्ष इन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउण्डेशन ने इनकी आत्मकथा के लिए इन्हें सरस्वती सम्मान दिया । बच्चन को भारत सरकार द्वारा 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
प्रमुख कृतियाँ
मधुकाव्य के रचयिता व हालावाद के प्रवर्तक हरिवंशराय बच्चन जी की प्रमुख कृतियां -
कविता संग्रह
तेरा हार (1929)
मधुशाला (1935),
मधुबाला (1936),
मधुकलश (1937),
आत्म परिचय (1937)
निशा निमंत्रण (1938),
एकांत संगीत (1939),
आकुल अंतर (1943),
सतरंगिनी (1945),
हलाहल (1946),
बंगाल का काल (1946),
खादी के फूल (1948),
सूत की माला (1948),
मिलन यामिनी (1950),
प्रणय पत्रिका (1955),
धार के इधर-उधर (1957),
आरती और अंगारे (1958),
बुद्ध और नाचघर (1958),
त्रिभंगिमा (1961),
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962),
दो चट्टानें (1965),
बहुत दिन बीते (1967),
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968),
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969),
जाल समेटा (1973)
नई से नई-पुरानी से पुरानी (1985)
आत्मकथा
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969),
नीड़ का निर्माण फिर (1970),
बसेरे से दूर (1977),
दशद्वार से सोपान तक (1985)
विविध
बच्चन के साथ क्षण भर (1934),
खय्याम की मधुशाला (1938),
सोपान (1953),
मैकबेथ (1957),
जनगीता (1958),
ओथेलो (1959),
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959),
कवियों में सौम्य संत: पंत (1960),
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960),
आधुनिक कवि (1961),
नेहरू: राजनैतिक जीवनचरित (1961),
नये पुराने झरोखे (1962),
अभिनव सोपान (1964)
चौंसठ रूसी कविताएँ (1964)
नागर गीता (1966),
बच्चन के लोकप्रिय गीत (1967)
डब्लू बी यीट्स एंड अकल्टिज़म (1968)
मरकत द्वीप का स्वर (1968)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
किंग लियर (1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ (1973)
साहित्यिक विशेषताएं
सहजता और संवेदनशीलता इनकी कविता का एक विशेष गुण है। यह सहजता और सरल संवेदना कवि की अनुभूति मूलक सत्यता के कारण उपलब्ध हो सकी। बच्चन जी ने बडे साहस धैर्य और सच्चाई के साथ सीधी सादी भाषा और शैली में सहज कल्पनाशीलता और जीवन्त बिम्बों से सजाकर सँवारकर अनूठे गीत हिन्दी को दिये। बच्चनजी ने व्यापक खिन्नता और अवसाद के युग में मध्यवर्ग के विक्षुब्ध, वेदनाग्रस्त मन को वाणी का वरदान दिया। इन्होंने सीधी, सादी, जीवन्त भाषा और सर्वग्राह्य, गेय शैली में, छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिधा के माध्यम से, अपनी बात कहना आरम्भ किया और हिन्दी काव्य रसिक सहसा चौंक पड़ा, क्योंकि उसने पाया यह कि वह भी उसके दिल में है। 'बच्चन' ने प्राप्त करने के उद्देश्य से चेष्टा करके यह राह ढूँढ निकाली और अपनायी हो, यह बात नहीं है, वे अनायास ही इस राह पर आ गये। उन्होंने अनुभूति से प्रेरणा पायी थी, अनुभूति को ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति देना इन्होंने अपना ध्येय बनाया।
बच्चन' की कविता के साहित्यिक महत्त्व के बारे में अनेक मत हैं। 'बच्चन' के काव्य की विलक्षणता ही उनकी लोकप्रियता है। यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि आज भी हिन्दी के ही नहीं, सारे भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में 'बच्चन' का स्थान सुरक्षित है। इतने विस्तृत और विराट श्रोतावर्ग का विरले ही कवि दावा कर सकते हैं।
राष्ट्रीयता
बचपन से ही बच्चनजी में राष्ट्र के प्रति सम्मान एवं प्रेम की भावना रही है । यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संबंधी विविध आन्दोलनों में हिस्सा लिया । स्कूली जीवन में इनका लिखा राष्ट्र गीत प्रसिद्ध हुआ " सर जाये तो जाये पर हिन्द आजादी पाये । ' इनमें राष्ट्रीयता का भाव प्रखर तो नहीं रहा लेकिन सूक्ष्म भाव यत्र तत्र सर्वत्र देखा जा सकता है । ' मधुशाला , ' बंगाल का काल ' , ' धार के इधर उधर ' , ' चार खम्भे चौसठ खूंटे ' , ' दो चट्टानें , ' बुद्ध और नाचघर ' , ' उभरते प्रतिमानों के रूप ' आदि रचनाओं में राष्ट्र प्रेम की कविताएँ खूब हैं ।
सामयिक बोध
बच्चन के परवर्ती काव्य में हमें समसामयिक परिवेश की अभिव्यक्ति भी मिलती है । ' बंगाल का अकाल ' , ' खादी के फूल ' , ' सूत की माला ' व ' बुद्ध और नाचघर जैसी रचनाओं में सामयिक परिवेश से जुड़ाव की अभिव्यक्ति मिलती है । दो चबाने ' व ' बहुत दिन बीतें में सामयिक बोध का चिन्तन अधिक प्रखर रूप में मिलता है । ' त्रिभंगिमा की एक कविता में मनुष्य की स्वार्थी वृत्ति व विकृत स्वभाव की अभिव्यक्ति प्रभावशाली ढंग से हुई है '
- भूमि आज खजूरधर्मी हो गई है
- कहीं कुछ बीजो लगाओ समय पाकर
- वह प्रलम्ब खजूर में ही बदल जाता
- भूमि भूला गगन से नाता बनाता
मानवतावाद
बच्चन काव्य में व्यापक मानव हित , आम आदमी के जीवन , शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति के स्वर सुनने को मिलते हैं । मानवतावाद ही प्रगतिवाद है , और यह बच्चन काव्य में उभरा है । बंगाल का काल मानवतावादी भाव से प्रेरित रचना है । कवि के अनुसार मानवता की उपेक्षा करके कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया जा सकता । ' बच्चन कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति इंसान से अपरिचित रहकर भगवान को पहचानने का दावा करता है तो यह झूठ को सिवा और कुछ नहीं है "
- जो नहीं इंसान को पहचानता
- भगवान को पहचानता ?
- मानवों का दुख , मुख बन भीति
- जाने प्रीति जो न , मुंह न खोले "
' बुद्ध और नाचघर ' में भी कवि ने भगवान के माध्यम से आज के मानव की विकृतियों को उजागर करके व्यापक मानव हित की बात की है । वे कहते हैं
- " मानवता है दान , दया , दम यहाँ कोई नहीं देता है ,
- दिया कहीं पाने का अब विश्वास मर गया ।
- जो देता है , यहीं कहीं उससे ज्यादा , पा लेने को । '
स्वच्छन्दतावाद
बच्चन का व्यक्तिगत जीवन भी काव्य जीवन के साथ स्वच्छन्दतावाद का अनुकर्ता रहा है । बच्चन की स्वच्छन्दता उनके वैयक्तिक प्रेम , सौन्दर्य एवं यौवन की उन्मुक्तता के रूप में देखी जा सकती है । बंधन बच्चन ने कभी नहीं स्वीकारे । उन्होंने किसी भी पारिवारिक , सामाजिक जातिगत , धर्मगत नियम - परम्परा को नहीं माना । वे उन्मुक्त गगन के स्वच्छन्द विहग हैं । मुक्ति और स्वच्छन्दता की वाणी के गीत उनकी अपनी पहचान है , उन्हें न तो समाज - भय था और न ही लोक - भय । वे तो अपनी सच्ची अनुभूति को , अपने हृदय की , शरीर की भूख - प्यास को , अपनी अतृप्ति के गान को सहजता व स्वच्छन्दता से गाने वाले गायक हैं ।
- ' वासना जब तीव्रतम थी
- बन गया था संयमी मैं ,
- है रही मेरी क्षुधा ही सर्वदा आहार मेरा ।
हालावाद
हालावाद फारसी सूफी दर्शन है । उमर खैयाम इसके प्रमुख दार्शनिक है , जिन्होंने ' रुबाइयाँ लिखी । इन रुबाइयों में उदास , निराश और खिन्न मन की अभिव्यक्तियाँ है । पलायनवाद इसका प्रमुख स्वर है । बच्चन ने खैयाम की रुबाइयों का अनुवाद किया है । ' हालावाद प्रत्येक क्षण में अधिकतम उपभोग का जीवन दर्शन है । हिन्दी साहित्य में बच्चन ही इसके प्रथम प्रयोक्ता हैं । इस क्षणवादी ,भोगवादी संस्कृति को हाला , वाला , मधुशाला , प्याला , साकीबाला , सुराही आदि माध्यमों से अभिव्यक्त किया गया । उपभोगवादी व क्षणवादी कल्पित लोक में युवकों को वर्तमान के दुख से मुक्ति मिली । इसीलिए यह वाद मनुष्य की जीवन के प्रति आसक्ति और जीवन की मनुष्य के प्रति उपेक्षा का गीत है । बच्चन की हालावादी रचनाओं में मधुशाला , सर्व प्रसिद्ध है । इसके अतिरिक्त ' मधुबाला व ' मधुकलश अन्य रचनाएँ हैं । कवि ने मधुशाला , हाला , मधुबाला , प्याला , सुराही आदि को प्रतीकार्य रूप में स्वीकारा , जिनके 10 - 10 तक अर्थ किए गए । ' हाला ' की खूबी बताते हुए बच्चन कहते हैं कि इसकी मादकता के कारण ही मनुष्य अपने सुखदुख को झेल पाता है ' मेरी मादकता से ही तो मानव सब सुख - दुःख सका झेल ' ' मधुशाला में वह गजब की शक्ति है जो एकता व समन्वय का कार्य करती है क्योंकि जहाँ मानव जाति विभाजन की दीवारें खींचती है ,वहीं मधुशाला मुक्त भाव से सबके लिए , चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो द्वार खुला रखती है
- " घृणा का देते हैं उपदेश
- यहाँ धर्मों के ठेकेदार
- खुला है सबके हित सब काल
- हमारी मधुशाला का द्वार '
इस प्रकार ' हालावाद ' बच्चन की प्रमुख काव्य - प्रवृत्ति है , जिसकी वजह से बच्चन हालावाद के प्रवर्तक कहलाये और ' मधुशाला रचना के माध्यम से देशभर के काव्य प्रेमियों के समकक्ष गजब की धूम मचाई ।
निराशावाद
जीवन में जहाँ उन्माद , मस्ती , प्रेम , आसक्ति , सुखानुभूति होती है , वहीं विवाद , कष्ट , विराग , अनासक्ति , दुख एवं घोर निराशा भी । बच्चन के जीवन में भी यह सब अनवरत गतिशील रहा | बच्चन के काव्य की निराशा और विवाद चेतना कोई उधार ली गई नहीं अपितु कड़े संघर्षों में भोगी गई है । बच्चन काव्य की सबसे बड़ी खूबी ही यही है कि यहाँ कोई मिलावट , आइम्बर या बनावट नहीं है । सब कुछ सहज , स्वाभाविक एवं अनुभूत कटु सत्य । युवा बच्चन की कुमारी मस्ती एवं मादकता का नशा जब कम होता है तो कवि मन व्याकुल होकर पुकार उठता है '
- अब वे मेरे गान कहाँ है ,
- टूट गई मरकत की प्याली
- लुप्त हुई मदिरा की लाली
- मेरा व्याकुल मन बहलाने वाले अब सामान कहाँ है ?
कवि की निराशा और व्याकुलता ' निशानिमन्त्रण ' एकान्त संगीत , हलाहल ' आदि रचनाओं में प्रतिध्वनित होता है । यह निराशा , टूटन और ऊब उनकी प्रथम पत्नी ' श्यामा के असामयिक निधन उत्पन्न थी । ' निशा निमन्त्रण ' तो ' सरोज स्मृति ( निराला कृत ) के बाद का सर्वश्रेष्ठ शोकगीत है ।
- ' कौन है जो दूसरे को दुख अपना दे सकेगा ।
- कौन है जो दूसरे से दुख उसका ले सकेगा ?
- क्यों हमारे बीच धोखे का रहे व्यापार जारी
- क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ? क्या करूँ ?
आशावाद
घनघोर निराशा के क्षणों में भी बच्चन हिम्मत नहीं हारे और परिस्थितियों से जूझते रहे , संघर्ष करते रहे । कवि ने सतरंगिनी में आशा भरे गीत गाकर निराशा के गहन अंधकार पर विजय प्राप्त की । कवि स्वयं कहता है- " सतरंगिनी अंधकार के ऊपर प्रकाश , विध्वंस के ऊपर निर्माण , निराशा के ऊपर आशा और मरण के ऊपर जीवन की जीत का गीत है । यह कोई सस्ता आशावाद नहीं है । यह अश्रु , स्वेद , रक्त का मूल्य चुकाकर प्राप्त किया गया है । बच्चन प्रकृति के माध्यम से स्वयं को समझाते हैं '
- जो बीत गई सो बात गई जी
- वन में एक सितारा था माना ,
- वह बेहद प्यारा था
- वह इब गया तो डूब गया
- अंबर के आनन को देखो
- कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे
- कब अम्बर शोक मनाता है
आत्माभिव्यक्ति
बच्चन - काव्य आत्माभिव्यंजन का काव्य है । आत्ममुक्त सुख - दुख की अभिव्यक्ति का काव्य है । पूर्ववर्ती काव्य में उनका यह आत्मतत्व यौवन के अनुराग - विराग व सुख - दुख और संघर्ष के रूप में व्यक्त हुआ है तो परवर्ती काव्य में यह आत्म तत्व या बच्चन की वैयक्तिकता समष्टि के साथ तदाकार होकर प्रस्तुत हुई है । बच्चन की सर्जना को उनकी आत्माभिव्यंजना का पर्याय कहा जा सकता है । उन्हें न लोक लाज की चिन्ता है और न ही किसी प्रकार का भय । इसीलिए वे कहते हैं
- ' मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
- शत्रु मेरा बन गया है छल - रहित व्यवहार मेरा
- कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा
बच्चन के काव्य में यौवन की वाणी , जीवन का उल्लास , विषाद , यौवन की मस्ती , अल्हड़ता , उमंग , जीवन की निराशा और जीवट , बेफिकरी व मस्ती सब एकमेक होकर उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से एकमेक हो गई है । ' मधुशाला से लेकर ' मधुबाला , ' मधुकलश , ' निशा निमन्त्रण ' , ' एकान्त संगीत ' , ' आकुल अन्तर ' , ' सतरंगिनी ' , ' हलाहल ' , ' मिलनयामिनी ' , " प्रणयपत्रिका ' व ' आरती और अंगार काव्य संकलनों की सभी रचनाएँ कवि के तिक्त और मधुर , विकट और सरल , मिलन और बिछुड़न ,राग और विराग , उल्लास और विषादयुक्त संवेदना की अन्त : स्फुरित आत्मवाणी है ।
- ' प्यास वारिधि से बुझाकर ,
- भी रहा अतृप्त हूँ मैं
- कामिनी के कुच - कलश से
- आज कैसा प्यार मेरा '
जीवन – संघर्ष
बच्चन के जीवन और काव्य दोनों में संघर्ष की प्रवृत्ति दिखाई देती है । संघर्षों में जन्में बच्चन के आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में अनेक झंझावत आये । लोगों ने उनके परिवार पर उन पर लांछन लगाये , लेकिन वे टूटे नहीं , हारे नहीं । उनका भीतरी लौह पुरुष टूटना और झुकना नहीं जानता था , इसीलिए वे सदैव विषम परिस्थितियों में भी अडिग रहे । कहते हैं
- जो अपने कंधों से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते है
- पथ की बाधाओं को जिनके पाँव चुनौती देते हैं ।
- जिनको बाँध नहीं सकती है लोहे की बेडी – जंजीर
- मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
काव्य भाषा
बच्चन के अनुसार- " भाषा वह बैल है , जिस पर जितना अधिक बोझा लादा जाए वह उतना ही मजबूत होता है । लेकिन फिर भी बच्चन उतना और वैसा ही बोझ ' भाषा ' के बैल पर लादने के पक्षधर रहे जो जनता की समझ में आए । बच्चन ने समाज के अनुरूप भाषा प्रयुक्त की । यही वजह रही कि वे आमजन के कवि हुए जनप्रिय हुए । बच्चन रचना करते समय भाव - विचारों की अभिव्यक्ति को ही ध्येय में रखते थे । इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बच्चन की सफलता और लोकप्रियता का श्रेय उनकी सहज , सरल भाषा ही है । बच्चन के पूर्ववर्ती एवं परवर्ती काव्य की भाषा और शिल्प प्रसंगानुसार व भावानुकूल बिल्कुल भिन्न है । एक और मधुकाव्य ( मधुशाला , मधुबाला , मधुकलश , मिलन यामिनी ) की प्रेमिल मधुर , सरस , रागपगी और हदय के तारों को झंकृत करने वाली मिठास भरी ' मालपुओं की भाषा है , वहीं दूसरी ओर परवर्ती काव्य में समसामयिक परिवेश , यथार्य और व्यंग्य को व्यंजित करने वाली ' करारे पापड़ की भाषा है ।
इनके काव्य में तत्सम शब्द सर्वाधिक प्रयुक्त हुए हैं । देशज व उर्दू शब्दों की भी बहुलता है । संप्रेषणीयता , व्यंजनात्मकता , ध्वन्यात्मकता ,शब्दानुशासन , चित्रात्मकता , वक्रता एवं मौलिकता आदि बच्चन काव्य की अनुपम विशेषताएँ हैं । कवि ने यथावश्यक विषयानुरूप जनभाषा लोक शब्दावली का भी प्रयोग किया है ।
छन्द-अलंकार
बच्चन काव्य के अलंकारों में शब्दालंकार के स्थान पर अर्थालंकारों का प्राधान्य है । इनमें उपमा , रूपक , मानवीकरण , विरोधाभास आदि प्रमुख हैं । प्रेमी दिलों के मन की राग को झंकृत कर देने की रागमयी रूपाराधना बच्चन ने अपनी ' प्रणय पत्रिका में निम्नलिखित रूपकालंकार में की है
- वह अगस्ती रात मस्ती की ,
- गगन में चाँद निकला था अधूरा
- किंतु मेरी गोद काले बादलों के बीच में था चाँद पूरा ।
बच्चन भावप्रवण एवं वैयक्तिक अनुभूतियों के कवि हैं । अत : उनका काव्य अलंकारों के बोझ से कहीं भी बोझिल या क्लिष्ट नहीं हुआ है । जहाँ भी उनके अप्रस्तुत या अलंकार प्रयुक्त हुए है वे सहज , स्वाभाविक तो हैं ही , साथ ही कविता कामिनी के रूप - गुण का अभिवर्द्धन भी करते है ।
बच्चन का आरम्भिक काव्य गेय छंदों में रचित है । बच्चन का काव्य गीतिप्रधान है । उनकी सर्व प्रसिद्ध रचना ' मधुशाला उर्दू के रुबाई छंद में रचित है । मिलन यामिनी ' और ' आरती और अंगारे में उन्होंने रोला छंद का प्रयोग किया है । ' आरती और अंगारे में हरिगीतिका छंद भी प्रयुक्त हुआ है । ' त्रिभंगिमा ' में सरसी छंद व ' मिलन यामिनी में अठारह मात्राओं वाला चामरी छंद इस्तेमाल में आया है । मुक्त छंद का प्रयोग ' बंगाल का काल ' में हुआ है । बच्चन के काव्य में ध्वनि की लय पर आधारित मुक्त छंदों का प्रयोग अधिक हुआ है । विदेशी छंद ' सॉनेट का प्रयोग निशा निमन्त्रण में हुआ है , जिसमें उन्हें विशेष सफलता मिली है । परवर्ती रचनाओं में लोकधुनों पर आधारित छंदों की रचनाएँ ' त्रिभंगिमा ' व ' चार खेमे चौसठ खूटे है ।
बिम्ब-प्रतीक
बच्चन के काव्य में प्रतीकों का प्रयोग बहुतायत से हुआ है ।इनके काव्य में प्रयुक्त प्रतीक सरल एवं सुबोध हैं । प्रतीकों के सम्बन्ध में बच्चन का कहना है कि ' काव्य में किसी भाव विशेष को कम शब्दों में प्रतीकों के प्रयोग से अभिव्यक्त किया जा सकता है , ये विचारों को मूर्त रूप प्रदान करते हैं । ' जाल समेटा ' में वे लिखते हैं - जीवन के सबसे गहरे सत्य प्रतीकों में बोला करते हैं । बच्चन का काव्य प्रतीकों से शोभित है । उनके काव्य में प्रतीकों के प्रयोग से कहीं भी जटिलता , दुरूहता और क्लिष्टता नहीं आ पाई है । अपितु हुआ यह है कि इनके सुष्ठ प्रयोग से अर्थ - विस्तार , अभिव्यक्ति में सशक्तता , व्यंग्य में तीखी कचोट एवं काव्य सौन्दर्य कई गुना बढ़ गया है । बच्चन के काव्य में प्राकृतिक प्रतीकों एवं जीवन व्यापार या परिवेश से सम्बन्धित प्रतीकों की अधिकता देखने को मिलती है ।
बच्चन के काव्य में प्रयुक्त बिम्ब सहज , सरल एवं स्वाभाविक है । भावपरक वियों के प्रस्तुतीकरण में बच्चन को बहुत अधिक सफलता मिली है जो कि उनके मधुकाव्य व प्रेमकाव्य ( आरम्भिक रचना ) में देखे जा सकते है ।इनके काव्य में भावपरक बिम्बों के साथ - साथ चाक्षुष बिम्ब , घ्राण बिम्ब , असंक्त बिम्ब , मानस बिम्ब , चिंतन बिम्ब , कन्द्रिय बिम्ब , पानि बिन आदि का भी प्रयोग हुआ है ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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