मैथिलीशरण गुप्त Maithilisharan Gupt
(3 अगस्त 1886 – 12 दिसम्बर 1964)
गुप्त जी द्विवेदी युग के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं । आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से ' साकेत ' जैसे महाकाव्य की रचना करने वाले गुप्त जी पहले ' वैश्योपकारक ' में अपनी रचनाएं छपवाते थे , किन्तु ' सरस्वती ' में अपनी रचना को प्रकाशित कराने की तीव्र आकांक्षा इनके हृदय में थी । उन्होंने ' रसिकेन्द्र ' उपनाम से ब्रजभाषा में लिखी कविता सरस्वती के लिए भेजी किन्तु इनकी वह कविता सरस्वती में नहीं छपी और द्विवेदी जी ने उन्हें पत्र लिखकर सूचित किया कि ' सरस्वती ' में हम बोलचाल की भाषा में लिखी गई कविताएं ही छापते हैं तथा यह भी लिखा कि ' रसिकेन्द्र ' बनने का जमाना अब गया । गुप्त जी पर इन दोनों बातों का विशेष प्रभाव पड़ा । इन्होंने खड़ी बोली में कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया और ' उपनाम ' से सदैव के लिए मुक्ति पा ली । तत्पश्चात् 1907ई. में इन्होंने ' हेमन्त ' नामक कविता सरस्वती के लिए खड़ी बोली में लिखकर भेजी , जो अनगढ़ एवं अस्त - व्यस्त थी किन्तु द्विवेदी जी ने उसका संशोधन करके सरस्वती में वह कविता छाप दी । यद्यपि कविता में इतना संशोधन परिवर्द्धन किया गया था कि वह एक नई रचना ही बन गई थी तथापि उसके नीचे नाम मैथिलीशरण गुप्त का ही दिया गया था । निश्चय ही आचार्य द्विवेदी मैथिलीशरण गुप्त के गुरु एवं प्रेरक थे , इसीलिए उन्होंने अपने महाकाव्य साकेत में उनकी प्रेरणा को स्वीकार करते हुए श्लिष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया
- करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद ?
- महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद ।
इनका प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग" तथा बाद में "जयद्रथ वध" प्रकाशित हुई। इन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया ।1911 में चिरगांव में साहित्य सदन नाम से स्वयं की प्रैस शुरू की । सन् 1912 - 1913 ई. में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती" का प्रकाशन किया , जिससे इनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई । 1931 के लगभग ये गांधी जी के सम्पर्क में आये । गांधी जी ने इन्हें "राष्टकवि" की संज्ञा प्रदान दी । 16 अप्रैल 1941 को वे व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए। पहले इन्हें झाँसी और फिर आगरा जेल ले जाया गया। आरोप सिद्ध न होने के कारण उन्हें सात महीने बाद छोड़ दिया गया। सन् 1948 में आगरा विश्वविद्यालय में इन्हें डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया । ये 1952-1964 तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुये । सन् 1953 ई. में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया । 1954 में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया । इन्होंने झांसी में 1954-55 में मानस-मुद्रण की स्थापना की । सन् 1962 ई. में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये । ये वहाँ मानद प्रोफेसर के रूप में नियुक्त भी हुए ।
इसी वर्ष प्रयाग में "सरस्वती" की स्वर्ण जयन्ती समारोह का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता गुप्त जी ने की। सन् 1963 ई० में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने अपूर्णनीय आघात पहुंचाया । 12 दिसम्बर 1964 ई. को दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो गया ।
प्रमुख कृतियाँ
गुप्तजी हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। इनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी।सन 1954 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्त जी का सबसे बड़ा योगदान है।'साकेत' इनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
गुप्तजी ने 78 वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, 19 खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी ।
महाकाव्य
साकेत
यशोधरा
खण्डकाव्य
जयद्रथ वध
भारत-भारती
पंचवटी
द्वापर
सिद्धराज
नहुष
अंजलि और अर्घ्य
अजित
अर्जन और विसर्जन
काबा और कर्बला
किसान
कुणाल गीत
गुरु तेग बहादुर
गुरुकुल
जय भारत
युद्ध
झंकार
पृथ्वीपुत्र
वक संहार
शकुंतला
विश्व वेदना
राजा प्रजा
विष्णुप्रिया
उर्मिला
लीला
प्रदक्षिणा
दिवोदास
भूमि-भाग
नाटक
रंग में भंग
राजा-प्रजा
वन वैभव
विकट भट
विरहिणी
वैतालिक
शक्ति
सैरन्ध्री
स्वदेश
संगीत
हिड़िम्बा
हिन्दू
चंद्रहास
मैथिलीशरण गुप्त ग्रन्थावली (मौलिक तथा अनूदित समग्र कृतियों का संकलन 12 खण्डों में
काविता संग्रह
उच्छवास
पत्रों का संग्रह
पत्रावली
एडवर्ड फिट्जगेराल्ड द्वारा किए गए रुबाइयात उमर खय्याम के आंग्लिक अनुवाद का हिन्दी पद्यानुवाद किया ।
सम्मान
हिन्दुस्तान अकादमी पुरस्कार (साकेत के लिए- ₹500) (1935)
मंगलाप्रसाद पुरस्कार (साकेत के लिए), हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा (1937)[1]
साहित्यवाचस्पति (1946)
पद्मभूषण (1954)
काव्यगत विशेषताएँ
गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। इनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय इनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त जी का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ-वध और भारत भारती में कवि का क्रान्तिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, और विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आन्दोलनों के समर्थक बने।
गुप्त जी के काव्य की विशेषताएँ इस प्रकार उल्लेखित की जा सकती हैं -
वर्ण्य-विषय
मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की केन्द्रीय चिन्ता उनकी भारत भारती की निम्न पंक्तियों में व्यक्त हुई है
- हम कौन थे , क्या हो गए , और क्या होंगे अभी ,
- आओ विचारें आज मिलकर , यह समस्याएँ सभी ।
गुप्त जी के काव्य में अतीत का गुणगान , वर्तमान की दुर्दशा पर चिन्ता तया भविष्य निर्माण के प्रति आशावादी दृष्टिकोण सर्वत्र लक्षित होता है । पांच दशकों तक निरन्तर हिन्दी का साहित्य भण्डार भरने वाले गुप्त जी का काव्यादर्श निम्न पंक्तियों में व्यक्त हुआ है
- केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए ।
- उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए ।
यही काव्यादर्श महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने युग के कवियों के सम्मुख प्रस्तुत किया था । गुप्त जी ने भारत में प्रचलित अधिकांश धर्मों पर काव्य लिखे । सबसे अधिक काव्य उन्होंने धर्म प्रवर्तकों और धार्मिक नेताओं पर लिखा । राम में इनकी गहरी आस्था है तथा उसमें संकीर्णता और कट्टरता के लिए कहीं स्थान नहीं है । गुप्त जी समन्वयवादी थे और गांधी जी के आदर्शों से प्रभावित भी थे । गुप्त जी के काव्य में रामायण से प्रेरित " साकेत , पंचवटी और प्रदक्षिणा ' काव्य थे तो महाभारत से प्रेरित जयद्रथ वध ' , ' वक संहार ' , ' वन - वैभव ' , ' नहुब , " हिडिम्बा ' , ' शकुन्तला ' , तिलोत्तमा और जय भारत ' काव्य है । महाभारत मूलत : अपने अधिकारों के लिए संघर्ष की गाथा है ओर गुप्तजी इस आदर्श को पराधीन भारत के समुख रखना चाहते थे जो कि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था । मध्यकालीन वीर राजपूतों को भी उन्होंने अपने काव्य का विषय बनाया क्योंकि स्वाधीनता के युद्ध में इनका आदर्श चरित प्रेरक हो सकता था । विशुद्ध राष्ट्रीय प्रेरणाओं और भावनाओं को व्यक्त करती रचनाएँ में गुप्त जी की ' भारत - भारती ' और ' वैतालिक ' प्रमुख हैं । सार रूप में कह सकते हैं कि गुप्त जी ने वीरता , त्याग और बलिदान का पाठ पढ़ाया और ऐसे उपेक्षित पात्रों और विषयों को भी साहित्य में स्थान दिया जो कि राष्ट्र जागरण के लिए आवश्यक थे ।
काव्य - शिल्प के क्षेत्र में भी गुप्त जी ने विविधता का परिचय दिया । मूलतः प्रबन्धकार होते हुए भी मुक्तक , गीत , नाट्य , गीति नाट्य तथा नाटक आदि क्षेत्रों में इन्होंने अनेक प्रयोग किए । ' पद्य प्रबन्ध ' , ' स्वदेश संगीत ' , ' मंगल घट ' , ' साकेत ' तथा ' कुणाल ' आदि में कुछ अंश गति शैली के उदाहरण हैं | तिलोत्तमा ' , ' चन्द्रहास ' , नाटक हैं और ' अनघ ' , को गीति नाट्य माना जाता है । ' पत्रावली ' में पत्र शैली का नमूना है |
राष्ट्रीय भावना
मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि हैं , अतः उनकी कविता में द्विवेदी युगीन कविता की समस्त विशेषताएं उपलब्ध होती हैं । इस काल में राष्ट्रीयता , समाज सुधार , नवजागरण , स्वातन्त्र्य चेतना , मानवतावाद , सामाजिक समता एवं गांधीवाद का बोलबाला था , अतः गुप्त जी ने भी अपनी रचनाओं में इन मूल्यों का समावेश करते हुए युगबोध एवं समसामयिकता की प्रवृत्ति का परिचय दिया । गुप्त जी की ' भारत - भारती ' राष्ट्रीयता एवं स्वातन्त्र्य चेतना ओतप्रोत ऐसी रचना थी जिस पर अंग्रेज सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था । इस रचना में उन्होंने देशवासियों को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्ति पाने का सन्देश देते हुए कहा
- शासन किसी परजाति का चाहे विवेक विशिष्ट हो ।
- सम्भव नहीं है किन्तु जो सर्वांश में वह इष्ट हो ।।
भारतवासियों के अहिंसापूर्ण आन्दोलनों एवं सत्याग्रह की शक्ति का उद्घोष करते हुए गुप्त जी ने तत्कालीन युग का चित्र इन पंक्तियों में अंकित किया
- अस्थिर किया टोप वालों को गांधी टोपी वालों ने ।
- शस्त्र बिना संग्राम किया है इन माई के लालों ने ।।
गांधी जी का सत्याग्रह आन्दोलन ' साकेत ' में कुछ इस रूप में दिखाई देता है
- जाओ यदि जा सको रौंद हमको यहां ।
- यों कह पथ में लेट गए बहुजन वहां ।।
भारत भारती में देश की वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए कवि ने देश के अतीत का अत्यंत गौरव और श्रद्धा के साथ गुणगान किया। भारत श्रेष्ठ था, है और सदैव रहेगा का भाव इन पंक्तियों में गुंजायमान है
- भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?
- फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ?
- संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
- उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।
गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के कवि हैं अतः उनके काव्य में द्विवेदीयुगीन समाज सुधार की भावना , राष्ट्रीयता , जन - जागरण की प्रवृत्ति एवं युगबोध विधमान है । उनकी कृति ' भारत - भारती ' में भारत के अतीत गौरव के साथ - साथ वर्तमान दुर्दशा की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है और परतन्त्रता की बेड़ियां तोड़ने का आह्वान है । इन्हीं कारणों से इस कृति को तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने बेन कर दिया था । इसके अतिरिक्त इनके अन्य काव्य - ग्रन्थों में भी राष्ट्र प्रेम , देश - सेवा , त्याग और बलिदान की प्रेरणा दी गई है । ' स्वदेश संगीत ' में उन्होंने परतन्त्रता की घोर निन्दा करते हुए भारत की सुप्त चेतना को जगाने का प्रयास किया तो ‘ अनघ ' में सत्याग्रह की प्रेरणा देते हुए राष्ट्र - सेवा , राष्ट्र रक्षा , आत्मोत्सर्ग की भावनाओं का निरूपण किया । ' वकसंहार ' में उन्होंने अन्याय दमन की प्रेरणा दी और ' साकेत ' में स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया । ' यशोधरा ' और ' द्वापर ' में उन्होंने नारी भावना की अभिव्यक्ति की तथा राष्ट्र और समाज को उसके कर्तव्य का बोध कराया ।
एक समुन्नत, सुगठित और सशक्त राष्ट्रीय नैतिकता से युक्त आदर्श समाज, मर्यादित एवं स्नेहसिक्त परिवार और उदात्त चरित्र वाले नर-नारी के निर्माण की दिशा में उन्होंने प्राचीन आख्यानों को अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाकर उनके सभी पात्रों को एक नया अभिप्राय दिया है। जयद्रथवध, साकेत, पंचवटी, सैरन्ध्री, बक संहार, यशोधरा, द्वापर, नहुष, जयभारत, हिडिम्बा, विष्णुप्रिया एवं रत्नावली आदि रचनाएं इसके उदाहरण हैं।
दार्शनिकता
गुप्त जी का दर्शन उनके कलाकार के व्यक्तित्व पक्ष का परिणाम न होकर सामाजिक पक्ष का अभिव्यक्तिकरण है। वे बहिर्जीवन के दृष्टा और व्याख्याता कलाकार हैं, अन्तर्मुखी कलाकार नहीं। कर्मशीलता उनके दर्शन की केन्द्रस्थ भावना है। साकेत में वे राम के द्वारा कहलाते हैं
- सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया
- इस भुतल को ही स्वर्ग बनाने आया ।
राम अपने कर्म के द्वारा इस पृथ्वी को ही स्वर्ग जैसी सुन्दर बनाना चाहते हैं। राम के वनगमन के प्रसंग पर सबके व्याकुल होने पर भी राम शान्त रहते हैं, इससे यह ज्ञान होता है कि मनुष्य जीवन में अनन्त उपेक्षित प्रसंग निर्माण होते हैं अतः उसके लिए खेद करना मूर्खता है। राम के जीवन में आनेवाली सम तथा विषम परिस्थितियों के अनुकूल राम की मनःस्थिति का सहज स्वाभाविक दिग्दर्शन करते हुए भी एक धीरोदात्त एवं आदर्श पुरुष के रूप में राम का चरित्रांकन गुप्त जी ने किया है। लक्ष्मण भी जीवन की प्रत्येक प्रतिक्रिया में लोकोपकार पर बल देते हैं। उनकी साधना 'शिवम्' की साधना है। अतः वे अत्यन्त उदारता से कहते है
- मैं मनुष्यता को सुरत्व की
- जननी भी कह सकता हूँ
- किन्तु पतित को पशु कहना भी
- कभी नहीं सह सकता हूँ ।
रहस्यात्मकता एवं आध्यात्मिकता
गुप्त जी के परिवार में वैष्णव भक्ति भाव प्रबल था। प्रतिदिन पूजा-पाठ, भजन, गीता पढ़ना आदि सब होता था। यही कारण है कि गुप्त जी के जीवन में भी यह आध्यात्मिक संस्कार बीज के रूप में पड़े हुए थे जो धीरे-धीरे अंकुरित होकर रामभक्ति के रूप में वटवृक्ष हो गया।
'साकेत' की भूमिका में निर्गुण परब्रह्म सगुण साकार के रूप में अवतरित होता है । आत्मश्रय प्राप्त कवि के लिए जीवन में ही मुक्ति मिल जाने से मृत्यु न तो विभीषिका रह जाती है और न उसे भय या शोक ही दे सकती है। गुप्त जी ने ‘साकेत' में राम के प्रति अपनी भक्ति भावना प्रकट की है। ‘साकेत' में मुख्य रूप से उनका प्रयोजन उर्मिला की व्यथा को चित्रित करना था। पर साथ में ही राम की भक्ति भावना के गुण गाने में पीछे नहीं हटे। साकेत में हम जिस रामचरित के दर्शन करते हैं उसमें आधुनिकता की छाप अवश्य है, किन्तु उसकी आत्मा में राम के आधि दैविक रूप की ही झाँकी है और ‘साकेत' की मूल प्रेरणा है। जिस युग में राम के व्यक्तित्व को ऐतिहासिक महापुरुष या मर्यादा पुरुषोत्तम तक सीमित मानने का आग्रह चल रहा था गुप्त जी की वैष्णव भक्ति ने आकुल होकर पुकार की थी।
- राम, तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या?
- विश्व में रमे हुए नहीं सभी कही हो क्या?
- तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे,
- तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे ।
'साकेत' पूजा का एक फूल है, जो आस्तिक कवि ने अपने इष्टदेव के चरणों पर चढ़ाया है। राम के चित्रांकन में गुप्त जी ने जीवन के रहस्य को उद्घाटित किया है। राम के जन्म हेतु उन्होंने कहा है
- किसलिए यह खेल प्रभु ने है किया ।
- मनुज बनकर मानवी का पय पिया ॥
- भक्त वत्सलता इसी का नाम है।
- और वह लोकेश लीला धाम है ।
नारी सम्बन्धी विचार
अपने नारी सम्बन्धी विचारों को व्यक्त करते हुए गुप्तजी ने नारी के सम्पूर्ण जीवन को जिन दो पंक्तियों में व्यक्त किया है , वे उनकी नारी भावना को मार्मिकता से अभिव्यक्त करती हैं
- अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
- आंचल में है दूध और आंखों में पानी ।।
इन पंक्तियों में नारी को अबला कहते हुए उसकी असामर्थ्य एवं अक्षमता पर दुख व्यक्त किया गया है तथा उसमें मातृत्व भाव की प्रबलता को स्वीकार करते हुए उसके जीवन को दुःख भरा हुआ माना गया है । किन्तु ऐसा नहीं है कि गुप्तजी नारी को नर से हीन मानते हों । वे नारी को नर की तुलना में गरिमा देते उसे नर से श्रेष्ठ निरूपित करते हुए कहते हैं
- एक नहीं दो - दो मात्राएं नर से भारी नारी ।।
नारी पर अविश्वास करने वाला यह पुरुष भी नारी की कोख से उत्पन्न हुआ है । जाया और जननी होकर भी उसे ' पाप की पिटारी ' कहना कहां तक उचित है
- उपजा किन्तु अविश्वासी नर हाय ! तुझी से नारी ।
- जाया होकर जननी भी है तू ही पाप - पिटारी ॥
पतिवियुक्ता नारी का वर्णन
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता के विमर्श ने गुप्त जी को साकेत महाकाव्य लिखने के लिए प्रेरित किया। भारत वर्ष में गूंजे हमारी भारती की प्रार्थना करने वाले कवि कालान्तर में, विरहिणी नारियों के दुःख से द्रवित हो जाते हैं। परिवार में रहती हुई पतिवियुक्ता नारी की पीड़ा को जिस शिद्दत के साथ गुप्तजी अनुभव करते हैं और उसे जो बानगी देते हैं, वह आधुनिक साहित्य में दुर्लभ है। उनकी वियोगिनी नारी पात्रों में उर्मिला (साकेत महाकाव्य), यशोधरा (काव्य) और विष्णुप्रिया खण्डकाव्य प्रमुख है। उनका करूण विप्रलम्भ तीनों पात्रों में सर्वाधिक मर्मस्पर्शी बन पड़ा है। उनके जीवन संघर्ष, उदात्त विचार और आचरण की पवित्रता आदि मानवीय जिजीविषा और सोदेश्यता को प्रमाणित करते हैं। गुप्तजी की तीनों विरहिणी नायिकाएं विरह ताप में तपती हुई भी अपने तन-मन को भस्म नहीं होने देती वरण कुन्दन की तरह उज्ज्वल वर्णी हो जाती हैं।
साकेत की उर्मिला रामायण और रामचरितमानस की सर्वाधिक उपेक्षित पात्र है। इस विरहिणी नारी के जीवन वृत्त और पीड़ा की अनुभूतियों का विशद वर्णन आख्यानकारों ने नहीं किया है। उर्मिला लक्ष्मण की पत्नी है और अपनी चारों बहनों में वही एक मात्र ऐसी नारी है, जिसके हिस्से में चौदह वर्षों के लिए पतिवियुक्ता होने का दु:ख मिला है। उनकी अन्य तीनों बहनों में सीता, राम के साथ, मांडवी भरत के सान्निध्य में तथा श्रुतिकीर्ति शत्रुघ्न के संग जीवन यापन करती हैं। उर्मिला का जीवन वृत्त और उसकी विरह-वेदना सर्वप्रथम मैथिलीशरण गुप्त जी की लेखनी से साकार हुई हैं।
गुप्तजी ने अपने काव्य का प्रधान पात्र राम और सीता को न बनाकर लक्ष्मण, उर्मिला और भरत को बनाया है। गुप्तजी ने साकेत में उर्मिला के चरित्र को जो विस्तार दिया है, वह अप्रतिम है। कवि ने उसे 'मूर्तिमति उषा', 'सुवर्ण की सजीव प्रतिमा', 'कनक लतिका', 'कल्पशिल्पी की कला' आदि कहकर उसके शारीरिक सौन्दर्य की अनुपम झांकी प्रस्तुत की है। उर्मिला प्रेम एवं विनोद से परिपूर्ण हास-परिहासमयी रमणी है।
प्रकृति वर्णन
गुप्त जी द्वारा रचित खण्डकाव्य पंचवटी में सहज वन्य–जीवन के प्रति गहरा अनुराग और प्रकृति के मनोहारी चित्र हैं। उनकी निम्न पंक्तियाँ आज भी कविताप्रेमियों के मानस पटल पर सजीव हैं
- चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
- स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
- पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
- मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
भाषा शैली
मैथिलीशरण गुप्त की काव्य भाषा खड़ी बोली है। इस पर उनका पूर्ण अधिकार है। भावों को अभिव्यक्त करने के लिए गुप्त जी के पास अत्यन्त व्यापक शब्दावली है। इनकी प्रारम्भिक रचनाओं की भाषा तत्सम है। इसमें साहित्यिक सौन्दर्य कला नहीं है। 'भारत-भरती' की भाषा में खड़ी बोली की खड़खड़ाहट है, किन्तु गुप्त जी की भाषा क्रमशः विकास करती हुई सरस होती गयी। संस्कृत के शब्दभण्डार से ही उन्होंने अपनी भाषा का भण्डार भरा है, लेकिन 'प्रियप्रवास' की भाषा में संस्कृत बहुला नहीं होने पायी। इसमें प्राकृत रूप सर्वथा उभरा हुआ है। भाव व्यञ्जना को स्पष्ट और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए संस्कृत का सहारा लिया गया है। संस्कृत के साथ गुप्त जी की भाषा पर प्रांतीयता का भी प्रभाव है। उनका काव्य भाव तथा कला पक्ष दोनों की दृष्टि से सफल है।
शैली
शैलियों के निर्वाचन में मैथिलीशरण गुप्त ने विविधता दिखाई, किन्तु प्रधानता प्रबन्धात्मक इतिवृत्तमय शैली की है। इनके अधिकांश काव्य इसी शैली में हैं- 'रंग में भंग', 'जयद्रथ वध', 'नहुष', 'सिद्धराज', 'त्रिपथक', 'साकेत' आदि प्रबंध शैली में हैं। यह शैली दो प्रकार की है- 'खंड काव्यात्मक' तथा 'महाकाव्यात्मक'। साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड काव्य के अंतर्गत आते हैं।
गुप्त जी की एक शैली विवरण शैली भी है। 'भारत-भारती' और 'हिन्दू' इस शैली में आते हैं।
तीसरी शैली 'गीत शैली' है। इसमें गुप्त जी ने नाटकीय प्रणाली का अनुगमन किया है। 'अनघ' इसका उदाहरण है।
आत्मोद्गार शैली गुप्त जी की एक और शैली है, जिसमें 'द्वापर' की रचना हुई है। नाटक, गीत, प्रबन्ध, पद्य और गद्य सभी के मिश्रण एक 'मिश्रित शैली' है, जिसमें 'यशोधरा' की रचना हुई है।
इन सभी शैलियों में गुप्त जी को समान रूप से सफलता नहीं मिली। इनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें इनका व्यक्तित्व झलकता है। पूर्ण प्रवाह है। भावों की अभिव्यक्ति में सहायक होकर उपस्थित हुई हैं।
युग-बोध
गुप्त जी के साहित्य में तत्कालीन समाज की दशा का निरूपण भी किया गया है । वे ऊंच - नीच की भावना के विरोधी हैं । समाज के दलित वर्ग को प्रतिष्ठा प्रदान करते हुए वे उन्हें पवित्र गंगा का सहोदर स्वीकार करते हैं
- उत्पन्न हो तुम प्रभु पदों से जो सभी को ध्येय हैं ।
- तुम हो सहोदर सुरसरी के चरित जिसके गेय हैं ।
गुप्त जी ने समाज में नारी की महत्ता का प्रतिपादन किया । नारी की विविधता का प्रतिपादन ' यशोधरा ' में वे इन शब्दों में करते हैं
- अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
- आंचल में है दूध और आंखों में पानी ॥
स्पष्ट ही द्विवेदी युग की सभी प्रतिनिधि विशेषताएं हमें गुप्त जी के काव्य में दिखाई पड़ती हैं । साकेत के राम समाज के तिरस्कृत , दलित , दीन - हीन , पीड़ित , दुःखी जनों की पीड़ा का हरण करने के लिए ही अवतीर्ण हुए हैं । वे अपने अवतार का प्रयोजन बताते हुए कहते हैं
- आया उनके हेतु कि जो तापित हैं ,
- जो विवश विकल बलहीन दीन शापित हैं ।
वस्तुतः गुप्त जी मानवतावाद के समर्थक थे और निष्काम कर्म , विश्वबन्धुत्व , सामाजिक समता , राष्ट्रीय चेतना एवं हिन्दू मुस्लिम एकता पर विशेष बल देते थे । वे जड़ता और निष्क्रियता को समाप्त कर आत्म गौरव की भावना जाग्रत करने में निश्चय ही जीवन पर्यन्त संलग्न रहे । उनकी कविता युग का स्वच्छ दर्पण है जिसमें हमें तत्कालीन युग समग्र रूप में प्रतिबिम्बित दिखाई पड़ता है ।
उपरोक्त्त वर्णन के आधार पर समग्र रूप से कह सकते हैं कि गुप्त जी की अभिव्यक्ति सरल , सहज एवं संवेध है ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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