सुभद्रा कुमारी चौहानSubhadra Kumari Chauhan(16 अगस्त 1904-15 फरवरी 1948)
सुभद्रा जी का जन्म नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में जमींदार रामनाथसिंह के घर में हुआ । सुभद्रा कुमारी चौहान, चार बहने और दो भाई थे। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह शिक्षा के प्रेमी थे और उन्हीं की देख-रेख में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। 1919 में खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ विवाह के बाद ये जबलपुर आ गई । ये बाल्यकाल से ही वे कविताएँ लिखने लगी थीं । 1913 में नौ साल की उम्र में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका मर्यादा में छपी जो 'सुभद्राकुँवरि' नाम से इन्होंने “नीम” के पेड़ पर लिखी थी । इनकी रचनाएँ राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण हैं । 1921 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वह प्रथम महिला थीं। ये दो बार जेल भी गई । सुभद्रा जी की जीवनी, इनकी पुत्री, सुधा चौहान ने 'मिला तेज से तेज' नामक पुस्तक में लिखी है। इसे हंस प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है।
ये एक रचनाकार होने के साथ-साथ स्वाधीनता संग्राम की सेनानी भी थीं। दुर्भाग्यवश मात्र 43 वर्ष की अवस्था में एक सड़क दुर्घटना में इनकी मृत्यु हो गई।
इनके दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह प्रकाशित हुए पर उनकी प्रसिद्धि झाँसी की रानी (कविता) के कारण है। ये राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। वातावरण चित्रण-प्रधान शैली की भाषा सरल तथा काव्यात्मक है, इस कारण इनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है । इन्हें 'मुकुल तथा 'बिखरे मोती’ के लिए अलग-अलग सेकसरिया पुरस्कार मिले ।
प्रमुख कृतियाँ
कहानी संग्रह
बिखरे मोती (1932)
उन्मादिनी (1934)
सीधे साधे चित्र (1947)
कविता संग्रह
मुकुल
त्रिधारा
जीवनी
'मिला तेज से तेज'
सम्मान
सुभद्रा जी को 'मुकुल तथा 'बिखरे मोती’ के लिए अलग-अलग सेकसरिया पुरस्कार मिले । भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अप्रैल 2006 को सुभद्राकुमारी चौहान की राष्ट्रप्रेम की भावना को सम्मानित करने के लिए नए नियुक्त एक तटरक्षक जहाज़ को सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम दिया है। भारतीय डाकतार विभाग ने 6 अगस्त 1976 को सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में 25 पैसे का एक डाक-टिकट जारी किया है।
साहित्यिक परिचय
वर्ण्य विषय
सुभद्रा जी की कविताओं व कहानियों का मुख्य विषय राष्ट्र प्रेम व नारी विमर्श है । इनकी 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी' कविता की चार पंक्तियों से पूरा देश आजादी की लड़ाई के लिए उद्वेलित हो गया था। ऐसे कम ही रचनाकार हुए हैं जिनकी एक ही रचना इतनी ज़्यादा लोकप्रिय हुई कि उसकी आगे की दूसरी रचनाएँ गौण हो गईं, जिनमें सुभद्राजी भी एक हैं। इस एक कविता के अलावा बच्चों के लिए लिखी उनकी कविताएँ भी हिंदी में बाल कविता का नया अध्याय लिखा ।
सुभद्रा जी ने काव्य की अपेक्षा गद्य विशेषतः कहानियां अधिक लिखी । 'बिखरे मोती' इनका पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा आदि कुल 15 कहानियां हैं! इन कहानियों की भाषा सरल बोलचाल की भाषा है! अधिकांश कहानियां नारी विमर्श पर केंद्रित हैं! उन्मादिनी शीर्षक से इनका दूसरा कथा संग्रह 1934 में छपा। इस में उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, व वेश्या की लड़की जैसी कुल 9 कहानियां हैं। इन सब कहानियों का मुख्य स्वर पारिवारिक सामाजिक परिदृश्य ही है। 'सीधे साधे चित्र' सुभद्रा कुमारी चौहान का तीसरा व अंतिम कथा संग्रह है। इसमें रूपा, कैलाशी नानी, बिआल्हा, कल्याणी, दो साथी, प्रोफेसर मित्रा, दुराचारी व मंगला - 8 जैसी कुल 14 कहानियां हैं। इन कहानियों की कथावस्तु नारी प्रधान पारिवारिक सामाजिक समस्यायें हैं। हींगवाला, राही, तांगे वाला, एवं गुलाबसिंह कहानियां राष्ट्रीय विषयों पर आधारित हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने कुल 46 कहानियां लिखी । ये अपनी व्यापक कथा दृष्टि से एक अति लोकप्रिय कथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में सुप्रतिष्ठित हैं ।
राष्ट्र प्रेम
सुभद्राजी सिर्फ एक कवयित्री ही नहीं थीं, देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका अमूल्य योगदान रहा है । 1921 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वह प्रथम महिला थीं। ये दो बार जेल भी गई । सुभद्राजी अपने पति लक्ष्मणसिंह के साथ शादी के महज डेढ़ साल के भीतर ही सत्याग्रह में शामिल हो गईं । इनके जीवन के अनेक साल जेलों में ही गुजरे । गृहस्थी और नन्हे-नन्हे बच्चों का जीवन सँवारते हुए उन्होंने समाज और राजनीति की सेवा की। इन्होंने देश के लिए कर्तव्य और समाज की जिम्मेदारी सँभालते हुए उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ की बलि चढ़ा दी ।
इनकी रचनाएँ राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण हैं । इनकी कविता 'झाँसी की रानी' महाजीवन की महागाथा है। कुछ ही पंक्तियों की इस कविता में इन्होंने एक विराट जीवन का महाकाव्य लिख दिया है। भारतीय इतिहास में यह शौर्यगीत सदा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया ।
- तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
- किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
- घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
- रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
- घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
- बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
- खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
'जलियाँवाला बाग' (1917) के नृशंस हत्याकांड से इनके मन पर गहरा आघात लगा। उन्होंने तीन आग्नेय कविताएँ लिखीं। 'जलियाँवाले बाग में वसंत’ में इन्होंने लिखा -
- यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
- काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते ।
- कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
- वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
- परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
- हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
- ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
- यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
- वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
- दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने सुभद्रा जी के राष्ट्रीय काव्य को हिंदी में बेजोड़ माना है-
- “कुछ विशेष अर्थों में सुभद्रा जी का राष्ट्रीय काव्य हिंदी में बेजोड़ है। क्योंकि उन्होंने उस राष्ट्रीय आदर्श को जीवन में समाया हुआ देखा है, उसकी प्रवृत्ति अपने अंतःकरण में पाई है, अतः वह अपने समस्त जीवन-संबंधों को उसी प्रवृत्ति की प्रधानता पर आश्रित कर देती हैं, उन जीवन संबंधों को उस प्रवृत्ति के प्रकाश में चमका देती हैं।...सुभद्राकुमारी चौहान नारी के रूप में ही रहकर साधारण नारियों की आकांक्षाओं और भावों को व्यक्त करती हैं। बहन, माता, पत्नी के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका के भाव उन्होंने व्यक्त किए हैं। उनकी शैली में वही सरलता है, वही अकृत्रिमता और स्पष्टता है जो उनके जीवन में है। उनमें एक ओर जहाँ नारी-सुलभ गुणों का उत्कर्ष है, वहाँ वह स्वदेश प्रेम और देशाभिमान भी है जो एक क्षत्रिय नारी में होना चाहिए।”
नारी विमर्श
सुभद्राकुमारी चौहान ने स्त्री की निजी स्वाधीनता और उससे जुड़े यथार्थ को अभिव्यक्ति देने के लिए अपनी कविताओं और कहानियों में छायावादी भाषा से विद्रोह किया। छायावादी काव्य की मूलभूत प्रवृत्तियों के साथ समान रूप से उनके जुड़ाव के साथ ही यह तथ्य है कि उनका गद्य-और गद्य ही नहीं, उनकी जीवन प्रक्रिया भी जिंदगी के सहज और जरूरी सरोकारों से जुड़ी हुई थी।
सुभद्रा जी की कहानियाँ नारी स्वातंत्र्य का नया उद्घोष करती हैं । ये स्त्रियों की सभाओं में पर्दे के विरोध में, अंधी रूढ़ियों के विरोध में, छुआछूत हटाने के पक्ष में और स्त्री-शिक्षा के प्रचार के लिए बराबर बोलती रहती थीं । इनकी कहानियों में देश-प्रेम के साथ-साथ समाज को, अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्षरत नारी की पीड़ा और विद्रोह का स्वर मिलता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं
- ‘सुभद्रा जी की कहानियों में अधिकांश बहुओं, विशेषकर शिक्षित बहुओं के दुःखपूर्ण जीवन को लेकर लिखी गई हैं। निस्संदेह वे इसकी अधिकारिणी हैं। किंतु उन्होंने किताबी ज्ञान के आधार पर या सुनी-सुनाई बातों को आश्रय करके कहानियाँ नहीं लिखीं वरन् अपने अनुभवों को ही कहानियों में रूपांतरित किया है। निस्संदेह उनके स्त्री-चरित्रों का चित्रण अत्यंत मार्मिक और स्वाभाविक हुआ है। फिर भी जो बात अत्यंत स्पष्ट है वह यह है कि उनकी कहानियों में समाज व्यवस्था के प्रति एक नकारात्मक घृणा ही व्यक्त होती है। पाठक यह तो सोचता है कि समाज युवतियों के प्रति कितना निर्दय और कठोर है पर उनके चरित्र में ऐसी भीतरी शक्ति या विद्रोह की भावना नहीं पाई जाती जो समाज की इस निर्दयतापूर्ण व्यवस्था को अस्वीकार कर सके। उनके पाठक-पाठिकाएँ इस कुचक्र के छूटने का कोई रास्ता नहीं पातीं। इन कहानियों में शायद ही कहीं वह मानसिक दृढ़ता चरित्र को मिलती है जो स्वेच्छापूर्वक समाज की बलि-वेदी पर बलि होने का प्रतिवाद करें। इसके विरुद्ध उनके चरित्र अत्यंत निरुपाय-से होकर समाज की वहिशिखा में अपने को होम करके चुपके से दुनिया की आँखों से ओझल हो जाते हैं।...मनोविज्ञान के पंडित इसको निगेटिव कैरेक्टर या नकारात्मक चरित्र के लक्षण बताते हैं। जहाँ स्त्री शिक्षा का अभाव है, पुरुष और स्त्री की दुनिया अलग-अलग है, वहाँ तो निश्चित रूप से स्त्री में नकारात्मक चरित्र की प्रधानता होती है । और समाज स्त्री के लिए जिन भूषण रूप आदर्शों का विधान करता है उनमें एकांतनिष्ठा, क्रीड़ा, आत्मगोपन और विनयशीलता आदि नकारात्मक गुणों की प्रधानता होती है। इस दृष्टि से सुभद्रा जी की कहानियों में भारतीय स्त्री का सच्चा चित्रण हुआ है। वे भारतीय स्त्रीत्व की सच्ची प्रतिनिधि बन सकी हैं।'
बाल साहित्य
सुभद्रा जी ने मातृत्व से प्रेरित होकर बहुत सुंदर बाल कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में भी उनकी राष्ट्रीय भावनाएँ प्रकट हुई हैं। 'सभा का खेल' नामक कविता में, खेल-खेल में राष्ट्र भाव जगाने का प्रयास देखिए-
- सभा सभा का खेल आज हम
- खेलेंगे जीजी आओ,
- मैं गाधी जी, छोटे नेहरू
- तुम सरोजिनी बन जाओ।
- मेरा तो सब काम लंगोटी
- गमछे से चल जाएगा,
- छोटे भी खद्दर का कुर्ता
- पेटी से ले आएगा।
- लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए
- एक बहुत बढ़िया सारी,
- वह तुम माँ से ही ले लेना
- आज सभा होगी भारी।
- मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे
- हम भाषण करने वाले,
- वे लाठियाँ चलाने वाले
- हम घायल मरने वाले।
सामाजिक सद्भाव
आज हम जिस धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्माण का संकल्प लेते हैं और सामाजिक सद्भाव का वातावरण बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं,सुभद्रा जी ने बहुत पहले अपनी कविताओं में भारतीय संस्कृति के इन प्राणतत्त्वों को रेखांकित कर दिया था-
- मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद, काबा-काशी यह मेरी पूजा-पाठ,
- ध्यान जप तप है घट-घट वासी यह मेरी ।
- कृष्णचंद्र की क्रीड़ाओं को, अपने आँगन में देखो।
- कौशल्या के मातृगोद को, अपने ही मन में लेखो।
- प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास
- जीव दया जिन पर गौतम की, आओ देखो इसके पास ।
जीवन दर्शन
सुभद्राजी साहसी , राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत रहने वाली कवयित्री हैं । इन्होंने अपने अल्प जीवन में अनेक समस्याओं का हंसते हुए सामना किया फिर वे चाहे स्वतन्त्रता संग्राम में जेल जाना हो , सामाजिक रूढ़ियों का बहिष्कार , नारी स्वतन्त्रता की बात करना या सभी बाधाओं के बीच अपनी संतान का पालन-पोषण करते हुए सामाजिक व राष्ट्रीय कर्तव्यों का पालन करना हो । उन्होंने स्वयं लिखा है –
- मैंने हँसना सीखा है
- मैं नहीं जानती रोना;
- बरसा करता पल-पल पर
- मेरे जीवन में सोना।
- मैं अब तक जान न पाई
- कैसी होती है पीडा;
- हँस-हँस जीवन में
- कैसे करती है चिंता क्रिडा।
भाषा-शैली
सुभद्रा जी की कहानियों की भाषा अपने वातावरण की अनुगूँज लिए हुए है। कहानियों को पढ़ते हुए बार-बार हमारा ध्यान इसी वातावरण की ओर जाता है। इनकी भाषा सीधी , सरल तथा स्पष्ट एवं आडम्बरहीन खड़ीबोली है । मुख्यतः दो रस इन्होंने चित्रित किये हैं - वीर तथा वात्सल्य । अपने काव्य में पारिवारिक जीवन के मोहक चित्र भी अंकित किये हैं जिनमें वात्सल्य की मधुर व्यंजना हुई है । इनके काव्य में एक ओर नारी -सुलभ ममता तथा सुकुमारता है और दूसरी ओर पद्मिनी के जौहर की भीषण ज्वाला । अलङ्कारों अथवा कल्पित प्रतीकों के मोह में न पड़ कर सीधी - सादी स्पष्ट अनुभूति को प्रधानता दी है ।
शैलीकार के रूप में सुभद्राजी की शैली में सरलता विशेष गुण है । नारी - हृदय की कोमलता और उसके मार्मिक भाव पलों को नितान्त स्वाभाविक रूप में प्रस्तत करना इनकी शैली का मुख्य आधार है ।
सार
सुभद्रा जी की समकालीन स्त्री-कथाकारों की संख्या अधिक नहीं थी। समकालीन कवयित्रियों में महादेवी वर्मा , किशोरी देवी, राजकुमारी, विद्यावती 'कोकिल', राजकुमारी की बहन, रामेश्वरी देवी 'चकोरी', विष्णु कुमारी 'मंजु” तथा तोरणदेवी 'लली' थीं। इनमें से महादेवी वर्मा और विद्यावती 'कोकिल' को छोड़कर किसी ने इतना विपुल गद्य नहीं लिखा-जितना महादेवी और सुभद्रा जी ने। सुभद्रा जी को जीवन भी छोटा मिला-केवल 44 वसंत उन्होंने देखे-फिर भी इस दौरान उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया।
इनकी स्मृति को हमेशा अपने जेहन में रखने के लिए जबलपुर के निवासियों ने चंदा इकट्ठा करके नगरपालिका प्रांगण में सुभद्रा जी की आदमकद प्रतिमा लगवाई जिसका अनावरण 27 नवंबर, 1949 को एक और कवयित्री तथा उनकी बचपन की सहेली महादेवी वर्मा ने किया । अनावरण के समय भदंत आनंद कौसल्यायन, बच्चन जी, डॉ० रामकुमार वर्मा और इलाचंद्र जोशी भी उपस्थित थे।
महादेवी जी ने इस अवसर पर ठीक ही कहा -
- “नदियों का कोई स्मारक नहीं होता। दीपक की लौ को सोने से मढ़ दीजिए पर इससे क्या होगा? हम सुभद्रा के संदेश को दूर-दूर तक फैलाएँ और आचरण में उसके महत्त्व को मानें-यही असल स्मारक है।”
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
आपकी टिप्पणी हमें ओर बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है । ConversionConversion EmoticonEmoticon