भ्रमरगीत सार bhramarageet saar

 भ्रमरगीत सार bhramarageet saar 

( सं . रामचन्द्र शुक्ल ) 21 से 35 पद 

भ्रमरगीत सार bhramarageet saar

[ 21 ]

  • गोकुल सबै गोपाल उपासी । 
  • जोग अंग साधत जो यो ते सब बत ईसपुर कासी ।। 
  • यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरनन रस रासी । 
  • अपनी सीतलताहि न छौडत यद्यपि है ससि राहु - गरासी ।। 
  • का अपराध जोया लिखि पठवत प्रेम भजन तजि करत उदासी । 
  • सूरदास ऐसी को विरहिनि मांगति तजे गुनरासी।।

व्याख्या

गोपियाँ कहती हैं , हे उद्धव गोकुल में सब नर - नारी गोपाल श्रीकृष्ण के उपासक है । उसी की रूप - राशि में रसलीन है जो जन अष्टांग योग की साधना करते हैं वे शिव नगरी , काशी में निवास करते हैं । यहाँ उनका कोई कार्य नहीं । यद्यपि श्रीकृष्ण ने हमें त्याग दिया है और इस प्रकार अनाथ हो गई हैं तो भी हमें उनके चरणों में रति है , उनके चरणों की रूप राशि में हम ठगी हुई हैं । उनमें ही हमारा गहरा अनुराग है । यह उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार चन्द्रमा राहु द्वारा ग्रसित हो जाने पर भी अपना स्वाभाविक गुण - संसार शीतलता प्रदान करना नहीं छोड़ता है । उसी प्रकार कृष्ण को यह अधिकार है कि वह हमें त्याग दें , किन्तु हम अपना स्वभाव धर्म नहीं छोडेंगी , उनके चरणों में ध्यानस्थ ही रहेंगी । हमारी समझ में नहीं आता कि हमारे किस अपराध के कारण दण्ड के रूप में कृष्ण ने हमारे लिए योग का संदेश लिख भेजा है ? इस प्रकार हमें हरि - भक्ति छोड़ने को कहकर संसार से विरक्त करना चाहते हैं । सूरदास कहते हैं कि यहाँ ब्रज में ऐसी कौन - सी विरहणी है जो गुणों की खान श्री कृष्ण को छोड़कर मुक्ति की कामना करती हो । अर्थात् गोपियौं कृष्ण - प्रेम के सम्मुख निर्गुणोपासना से प्राप्त मुक्ति का कोई महत्व नहीं , समझती । हम सबके लिए कृष्ण - प्रेम प्राण के समान है । 

विशेष:- राग - केदार 

[ 22 ]

  • जीवन मुँहचाही को नीको । 
  • दरस परस दिनरात करति कान्ह पियारे पी को ।।
  • नयननि मुँदी मुँदी किन देखी बंध्यो ज्ञान पोथी को । 
  • आछे सुन्दर स्याम मनोहर और जगत सब फीको ।।
  • सूनी जोग को काले कीजै जहाँ ज्यान है जी को । 
  • खाटी मही नहीं रुचि मान सूर खवैया घी को।।

व्याख्या

गोपियाँ उद्धव से कहती है कि प्रियतम को अच्छी लगनेवाली प्रेमिका का जीवन अच्छा है , सफल है - अर्थात प्रियतम के मन में समाने के कारण उसने संसार के जीवन का फल भोग लिया है । इस प्रकार यहाँ कुब्जा से ईर्ष्या का भाव प्रकट करते हुए कहती है कि जीवन तो उसका अच्छा है , सफल है क्योंकि वह कृष्ण की चहेती प्रेमिका है । वह अपने प्रियतम कन्हैया का प्रतिदिन दर्शन प्राप्त करती है और उनके स्पर्श से उसे शारीरिक सुख आनन्द भी प्राप्त होता है । किन्तु उसे भी इतना सुख आनन्द प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह प्रेम करने की उचित रीति से परिचित नहीं । हे उद्धव ! आँखे मूंद - मूंदकर जिसने पुस्तक में निहित झान को प्राप्त किया है , उसे तो आँखे खोलकर अध्ययन से ही प्राप्त किया जा सकता है । उसी प्रकार प्रियतम के पास बने रहने से , दर्शन - स्पर्श से जीवन सफल नहीं होता । यह तो तभी सम्भव है जब वह प्रेम की रीति से सुपरिचित हो और प्रियतम को रिझाने में समर्थ हो । हमारे लिए तो श्यामसुन्दर कृष्ण ही एक मात्र सुन्दर एवं मनोहर है । उसके सम्मुख हमें समस्त संसार और उससे प्राप्त सुख बेकार प्रतीत होता है । अर्थात् हमारे लिए सुन्दर और परम मनोहर कृष्ण की तुलना में सारा सांसारिक सुख नीरस है । हे उद्धव ! तुम हमारी बात सुनो । हम तुम्हारे योग - ध्यान को लेकर क्या करें । यह हमारे किसी काम का नहीं , क्योंकि इससे हमें प्राणहानि का भय है । कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि योग - साधना पर अमल करने से हमें अपने प्राणप्रिय श्री कृष्ण से बिछुड़ना पड़ेगा । उनके बिना हमारा जीवित रहना सम्भव नहीं है । जिस प्रकार शुद्ध घी का प्रयोग करनेवाला व्यक्ति खट्टी छाछ पीकर प्रसन्न नहीं रह सकता , उसी प्रकार कृष्ण के प्रेमामृत का पान करनेवाला हमारा यह हृदय तुम्हारी योग की नीरस बातें सुनकर आनन्दित नहीं होता । हम कृष्ण को नहीं भुला सकती हैं । 

[ 23 ]

आयो घोष बड़ो व्यापारी । 
लादि खेप गुन ग्यान जोग की ब्रज में आय उतारी ।। 
फाटक देकर हाटक माँगत भौरे निपट सुधारी । 
धुर ही ते खोटो खायो लये फिरत सिर भारी ।। 
इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी ।
अपने दूध छाडि को पीव खार कूप को पानी ।। 
ऊधो जाहु सबार वही ते वेगि गहरू जनि लायी । 
मुंहमाग्यौ पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावी।।

व्याख्या 

आज हमारी इस अहीरों की बस्ती में एक अत्यन्त विचित्र व्यापारी आया हुआ है । उसने ज्ञान और योग के गुणों से युक्त सामान की गठरी यहाँ ब्रज में बेचने के लिए आकर उतार दी है । इसने यहाँ के निवासियों को अत्यन्त भोला और अज्ञानी समझ लिया है । जिससे फटकन के समान निस्सार वस्तु अर्थात् मान - योग समर्थित ब्रह्म को देकर उसके प्रतिकार स्वरूप अर्थात् स्वर्ण के समान बहुमूल्य एवं प्रिय कृष्ण माँगा है । इस व्यापारी का असबाब बिल्कुल व्यर्थ है जिसके कारण यह बिक नहीं रहा और इसे आरम्भ से ही हानि उठानी पड़ रही है । अर्थात् इसका सामान कोई भी नहीं खरीद रहा , अतः यह भारी बोझ सिर पर लादकर यह इधर - उधर भटकता फिर रहा है । यहाँ ब्रज में हम ही कौन - सी नासमझ और अज्ञानी है जो इसका माल खरीदकर धोखा खा जाएँ । हमने तो आज तक ऐसा कोई मूर्ख नहीं देखा जो अपने घर का मधुर दूध त्यागकर खारे जल के कुएँ का पानी पीने जाए । हे उद्धव ! तुम यहाँ से अत्यन्त शीघ्र मथुरा चले जाओ और अपने महाजन अर्थात् ज्ञान योग की गठरी भेजनेवाले साहूकार रूपी कृष्ण को यहाँ लाकर हमें उनके दर्शन करा दो तो तुम्हें मुंहमांगा पुरस्कार प्राप्त होगा अर्थात् तुम जो माँगोगे हम देंगी , तुम एक बार कृष्ण के हमें दर्शन करा दो ।

[ 24 ]

  • जोग ठगौरी ब्रज न बिकह । 
  • यह व्योपार तिहारो ऊधो ! ऐसोई फिर जैहे ।। 
  • जाप ले आए  हो मधुकर ताके उर न सगैहै ।
  • दाख छौंकि के कटुक निवौरी को अपने मुख खह ?
  • मूरी के पातन के केना की मुक्ताहक है । 
  • सूरदास प्रभु गुनर्हि डिक को निर्गुण निसह ? ।।

व्याख्या

गोपियाँ उद्धव के ज्ञान - योग पर व्यंग्य करती हुई कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम्हारा यह ज्ञान - योगरूपी ठगी और धूर्तता का माल ब्रज में नहीं बिक पाएगा । तुम्हारा यह सौदा यहाँ से इसी प्रकार लौटा दिया जाएगा । इसे यहीं कोई नहीं खरीदेगा । तुम जिनके लिए यह सामान इतनी दूर तक लाए हो , उन्हें यह पसंद नहीं आएगा और न ही उनके हृदय में समा सकेगा । ऐसा कौन मूर्ख है जो अपने मुख के अंगूर के दानों को त्यागकर नीम के कड़वे फल को खाएगा । और मूली के पत्तों के बदले में मोतियों के दाने देगा कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हारा यह ब्रह्म नीम के फल के समान कड़वा और मूली के पत्तों के समान - समान तीखा अर्थात् तुच्छ , व्यर्थ और त्याज्य है और हमारे कृष्ण अंगूर के समान मधुर और मोतियों के समान बहुमूल्य है इसलिए हम ऐसी मूर्ख नहीं कि कृष्ण को त्यागकर निर्गुण ब्रह्म की साधना करें । सूरदास जी कहते हैं कि ऐसा कौन है जो सम्पूर्ण गुणों के भण्डार - सगुण रूप कृष्ण को छोड़कर तुम्हारे गुणहीन - निर्गुण ब्रह्म के साथ निर्वाह करें अर्थात उसकी साधना करें ।

[ 25 ]
  • आए जोग सिखावन पांडे । 
  • परमारथी पुराननि लादे ज्यों बनजारे टाँडे ।। 
  • हमारी गति पति कमलनयन की जोग सिर तेरडे ।
  • कही मधुप , कैसे समायेंगे एक म्यान खाँडे ।। 
  • कह षटपद कैसे खैयतु है हाथिन के संग गाँडे । 
  • काफी भूख गई क्यारि अलि ! बिना दूध घृत मांडे ।। 
  • काहे को माला ले मिलक्त , कौन चोर तुम डाँडे । 
  • सूरवर तीनों नहिं उपजत धनिया , धान , कुम्हाडे ।।
व्याख्या 

हे उद्धव ! तुम पंडा के समान परमार्थ की शिक्षा देनेवाले पुराणों में निहित ज्ञान के बोझ को उसी प्रकार अपने सिर पर लादे फिर रहे हो जिस प्रकार खनाबदोश लोग अपने सिर पर माल लादे बेचने के लिए घूमते - फिरते हैं । अथवा तुम योग को सिखानेवाले पंडे के समान , परमार्थरूपी पुरानी , बासी , व्यर्थ की वस्तु को लिए फिरते हो और हमारे ऊपर मढ़ना चाहते हो । हमारी गति अपने पति के साथ है और हमारे पति कमलनयन श्री कृष्ण हैं जो हमें शरण और प्रतिष्ठा देनेवाले है योग उन्हीं के लिए उचित है जो विधवा और अनाथ है । हमारे पति कमलनयन श्री कृष्ण जीवित है और हमें शरण एवं प्रतिष्ठा देनेवाले हैं , अतः योग हमारे लिए व्यर्थ की वस्तु है । हमारे लिए योग सीखना उसी प्रकार है जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारों का समा जाना । जैसे एक म्यान में दो तलवारों का समा जाना असम्भव है उसी प्रकार हमारे लिए योग ज्ञान की साधना करना असम्भव है क्योंकि कृष्ण हमारे हृदय में समाए हुए हैं । वहाँ निर्गुण ब्रह्म भी समा जाए यह सम्भव नहीं । हे भ्रमर ! हमें बताओ कि किस प्रकार हाथी के साथ गन्ने को खाया जा सकता है ? क्योंकि हाथी तो एक बार में अनेक गन्ने को खा जाता है । जिस प्रकार हाथी के साथ गन्ना खाने में मनुष्य स्पर्धा नहीं कर सकता उसी प्रकार हम अबला - नारियों के लिए योग मार्ग की कठिन और दुरूह साधना करना कठिन है । हे उद्धव ! हमें यह बताओ कि बिना दूध , घी , रोटी खाए केवल वायु के भक्षण अर्थात् प्राणायाम करने से किसकी भूख मिट सकती है । जिस प्रकार यह असम्भव है , उसी प्रकार हमारे लिए योग की साधना करना भी असम्भव है । तुम किस कारण बातें बना - बनाकर व्यर्थ की थोथी बकवास कर रहे हो ? हम लोगों ने ऐसी आखिर कौन - सी चोरी की है जिसका तुम दंड देने आए हो । अथवा तुम ऐसे महाजन हो जो हमें चोर समझकर दंड देने आए हो । वस्तुतः तुम स्वयं चोर हो क्योंकि हमारे प्रिय , मूल्यवान , सर्वस्व कृष्ण को , जो हमारे हृदय में विराजमान है , चुराने , हमसे छीनकर ले जाने के लिए आए हो । तुम भली - भाँति जानते हो कि जिस प्रकार धनिया , धान और काशीफल की खेती एक स्थल पर होनी असम्भव है , उसी प्रकार हमारे लिए कृष्ण को छोड़कर तुम्हारे ब्रह्मा को स्वीकार करना असम्भव है ।

[ 26 ]

  • ए अलि ! कहा जोग में नीको ? 
  • ताजि रसरीति नंदनवन की सिखावत निर्गुन फीको ।। 
  • देखत सुनत नाहि कछु अवननि , ज्योति - ज्योति करि ध्यावत । 
  • सुंदरस्याम दयालु कृपानिधि कैसे ही विसरावत ? 
  • सुनि रसाल मुरली सूर की धुन सोई कौतुक रस भूले । 
  • अपनी भुजा ग्रीव पर मेले गोपिन के सुख फूले ।। 
  • लोककानि कुल को भ्रम प्रभु मिलि के घर बन खेली । 
  • अब तुम सूर खवावन आए जोग जहर की वैली।।

व्याख्या

हे उद्धव ! तुम्हारे इस ज्ञान - योग में ऐसी कौन सी अच्छाई है जिससे तुम हमें नंद नंदन श्रीकृष्ण के सुन्दर प्रेम को त्यागकर इस फीके , गुणहीन , रसरहित , निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने की बात कह रहे हो । योगमार्गी भक्त न तो नेत्रों से कुछ देख ही पाते है और न ही कानों से कुछ सुन पाते हैं , केवल ' ज्योति - ज्योति ' कहकर व्यर्थ उसका ध्यान करने का प्रयत्न करते रहते हैं । निर्गुण - ब्रह्म ज्योति - स्वरूप तो आवश्यक हो सकता है किन्तु वह न तो कृष्ण के समान सुन्दर दर्शनीय ही है और न ही मधुर सरस वचनों से कानों को सुख पहुंचा सकता है हम अपने ऐसे सुन्दर , दयालु , कृपा के भण्डार कृष्ण को तुम्हारे इस ब्रह्म के लिए किस प्रकार भुला दे । उस नीरस ब्रह्म के लिए सुन्दर रसयुक्त कृष्ण को भुलाना असम्भव है । हे उद्धव ! हम उनकी मधुर मुरली की ध्वनि को सुनकर उसके आनन्द में रसलीन हो , उनके प्रेम में हम स्वयं को भूल जाती थी । पूर्ण विस्मृत हो जाती थी । हमारी ऐसी अवस्था को देखकर वे हमारे गले में अपनी भुजाएँ डाल देते थे , हमें अपने आलिंगन में बद्ध कर लेते थे , ऐसे सुख में हम फूली न समाती थीं । हमने कृष्ण के साथ प्रेमलीलाएँ करते हुए , उनके साथ क्रीडा - विहार करते हुए लोक , समाज और परिवार के समस्त गौरव , मान - मर्यादा के भम को विनष्ट कर दिया था , इस सबकी कुछ परवाह नहीं की । हमने कृष्ण के साथ प्रेम - क्रीड़ा करने में लोक और कुल की भ्रांति पूर्ण मर्यादाओं की तनिक चिंता नहीं की थी । अब तुम हमें उस अमृत के समान मधुर - मादक कृष्ण - प्रेम को छोड़ने का उपदेश देकर अपने विष - फल उत्पन्न करनेवाली योगरूपी इस बूटी के फल को खिलाने यहाँ आए हो - अर्थात् तुम्हारा यह योग का उपदेश हमारे लिए विष के समान प्राणघातक होगा और कृष्ण का प्रेम हमारे लिए मधुर और जीवनदायक होगा । 

[ 27 ]

  • हमरे कौन जोग व्रत साधै ? 
  • मृगत्वच , भस्म , अधारि , जटा को को इतना अवरा ? 
  • जाकी कहूँ थाह नहि पए , अगम , अपार , अगाधै । 
  • गिरिधर लाल छबीले मुख पर इते बांध को बांध ? 
  • आसन पवन भूति मृगछाला ध्याननि को अवराधै ? 
  • सुरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधे ? || 

व्याख्या

गोपियाँ योग - साधना की कठिनाइयों , बाहरी बंधनों और प्रयत्नों की आलोचना करती हुई उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमारे यहाँ तुम्हारे योग व्रत की साधना कौन करें ? कौन मृगछाला , भस्म , अधारी आदि वस्तुओं को इकट्ठा करता फिरे और फिर सिर पर जटा बाँधे ? इतनी मुसीबतें मोल लेकर कौन तुम्हारे ब्रह्म की इतनी साधना करता फिरे ? तुम्हारा ब्रह्म तो ऐसा है जिसकी कहीं भी थाह नहीं पाई जा सकती , जो अगम्य , अपार और अथाह है । फिर ऐसे ब्रह्मा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है । इसलिए ये सब प्रयत्न करना व्यर्थ है । हमारे सुन्दर - सलोने कृष्ण के छबीले मुख के दर्शन करने के लिए आसान , प्राणायाम , भस्म , मृगछाला आदि को एकत्र करना और फिर उनका ध्यान करना आदि बातों की तनिक भी जरूरत नहीं पड़ती , अर्थात् जब तुम्हारे ब्रह्म का ध्यान करने के लिए इन सारी वस्तुओं का जुटाना आवश्यक है तो फिर ऐसा कौन मूर्ख है जो इन सारे प्रपंचो में पड़ उसकी आराधना करता फिरे ? यह बताओ कि ऐसा कौन मूर्ख है जो अपने माणिक्य को त्यागकर उसके स्थान पर राख को अपनी गाँठ में बाँधे ? अर्थात् हमारे कृष्ण मणि के समान अमूल्य है , और तुम्हारा ब्रह्म राख के समान तुच्छ है ।

[ 28 ]

  • हम तो दुभौति फल पायो । 
  • जो ब्रजनाथ मिले तो नीको नातरू जग जस गायो । 
  • कह वै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघु जाती । 
  • कह कमला के स्वामी संग मिलि बैठी एक पाती । 
  • निगमध्यान मुनि ग्यान अगोचर , ते भए घोष निवासी । 
  • ता ऊपर अब साँच कहौं धौं , मुक्ति कौन की दासी । 
  • जोग - कथा पा लागों , ऊधो , ना कहू बारम्बार । 
  • सूर स्याम तजि और भजै जौ ताकी जाननी छार।।

व्याख्या

गोपियों कहती है हे उद्धव ! कृष्ण प्रेम का फल तो हमें दोनों प्रकार से प्राप्त हो सकेगा । यदि हमें अपने इस विरह के अंत में ब्रजनाथ श्री कृष्ण मिले तो यह अति उत्तम रहेगा क्योंकि हम ब्रह्म में लीन हो जाएंगी और यदि हमारी उनसे मेंट न हो सकी तो हमारे मरणोपरांत सारा संसार हमारा यशगान करेगा कि गोपियाँ कृष्ण के प्रति अपने प्रेम में सदा एकनिष्ठा रही वस्तुतः हमारी और कृष्ण की कोई समानता ही नहीं , कहाँ हम नीच जाति की कर्म - वर्णहीन , गोकुल की गोपियाँ और कहीं ये लक्ष्मीपति ब्रह्मस्वरूप कृष्ण । वह तो हमारा परम सौभाग्य ही था , कि हमें उनसे प्रेम करने का अवसर मिला और उन्होंने भी हमें अपने प्यार के योग्य समझा और इस प्रकार हम उनके साथ एक पंक्ति में बैठी अर्थात् उन्होंने हमें अपने साथ समानता का दर्जा प्रदान किया । वेद भी जिन भगवान का सदा ध्यान करते हैं , जिन्हें पूर्ण झानी मुनिगण भी प्रयत्न करने पर प्राप्त नहीं कर पाते । वही भगवान इस अहीरों की बस्ती में आकर रहे थे । इससे ऊपर तुम हमें यह बताओ कि मुक्ति किसकी दासी है ? मुक्ति ब्रह्म की दासी है और वह ब्रह्म निश्चय ही कृष्ण है । हम तुम्हारे पाँव पड़ती है कि हे उद्धव ! योग की कथा बार - बार हमें मत सुनाओ । सूरदास जी कहते है । कि गोपियों का यह निश्चय मत है कि जो कृष्ण को त्यागकर किसी अन्य की उपासना करता है , उसकी जन्म - दायिनी माता भी धिक्कार के योग्य है ।

[ 29 ]

  • पूरनता इन नयन न पूरी । 
  • तुम तो कहत अवननि सुनि समुझति ये याही दुख मरति विसूरि ।। 
  • हरि अन्तर्यामी सब जानत बुद्धि विचारत बचन समूरी । 
  • वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवायत धूरी ।। 
  • रहु रे कुटिल चपल मधु लम्पट , कितब संदेस कहत कटु कूरी । 
  • कहँ मुनिध्यान कहाँ ब्रज युवती कैसे जात कुलिस करि पूरी ।। 
  • देख प्रगट सरिता , सागर रस सीतल सुभग स्वाद रूचि करी । 
  • सूर स्वाँति जल बस जिय चातक चित लागत सब झूरी।।

व्याख्या

हे उद्धव ! तुमने पूर्ण ब्रह्मा का जो वर्णन किया है , उसकी वह पूर्णता हमारे इन नेत्रों में पूरी तरह समा नहीं पाती अर्थात् हमारे इन नेत्रों को वह पूर्णता जंचती ही नहीं । तुमने हमसे ब्रह्म की पूर्णता के विषय में जो - जो बाते कही हैं , उसे हम अपने कानों से सुनकर समझने का प्रयत्न कर रही हैं , परन्तु इस पर हमारी आँखें दुखती हैं और बिलख - बिलखकर मरी जा रही हैं । इस बिलखने के दो कारण हो सकते हैं । एक तो यह कि इन्हें तुम्हारे द्वारा वर्णित ब्रह्म की पूर्णता कहीं भी दृष्टिगत नहीं होती अथवा इन्हें यह भय है कि कहीं हम तुम्हारी बातों में आकर कृष्ण को न त्याग दें और तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार न कर लें । ऐसा होने पर कृष्ण के सौन्दर्य में छकी हुई इन आँखों को ऐसी स्थिति में फिर कृष्ण के मधुररूप में दर्शन न हो सकेंगे । गोपियों का कथन है कि सब जन को यह जानकारी है कि भगवान अन्तर्यामी हैं । बुद्धि द्वारा इस बात पर पूर्णरूप से विचार करने पर हमें भी तुम्हारा यह कथन सत्य प्रतीत होता है और इस पर विश्वास होने लगता है किन्तु हमारे कृष्ण तो प्रेम , रूप और रत्नों के सागर है , ये अति मूल्यवान है । ऐसे कृष्णरूपी माणिक को प्राप्त कर लेने पर तुम क्यों हमें धूल के समान तुच्छ अपने निर्गुण ब्रह्म को अपना लेने का उपदेश दे रहे हो । तुम्हारा यह उपदेश व्यर्थ हो जाएगा । हम अपना धर्म बदलनेवाली नहीं । क्योंकि यह तो गाँठ की मणि को त्यागकर धूल फांकने के समान मूर्खता ही होगी । भमर को सम्बोधित करते हुए वे उद्धव को खरी - खोटी सुनाती हुई कहती हैं कि रे छली , चंचल , रस के लोभी , धूर्त भँवरे ठहर जा । तू हमें ऐसा योग का कटु संदेश क्यो सुना रहा है ? तू हमें यह तो बता कि कहीं मुनियों की ब्रहाविषयक कठोर साधना और कहाँ हम कोमलांगी ब्रज की युवतियों में कहीं भी तुम्हें समानता दिखाई देती है । हम ब्रज की कोमलांगनाएँ किस प्रकार योगविषयक क्लिष्ट साधना करने में समर्थ हो सकती है ? जिस प्रकार कठोर वज्र को तोडकर चकनाचूर करना असम्भव है , उसी प्रकार हमारे लिए भी इस योग का करना असम्भव है । इस प्रकार संसार में सरिता , सागर तालाब का जल मीठा , निर्मल और शीतल होता है , यह देखकर भी स्वाति - जल के प्रेमी चातक के हृदय में तो केवल स्वाति - नक्षत्र के समय उपलब्ध जल के प्रति ही प्रेम होता है । वह उसी का पान करके अपनी तृष्णा को शांत करता है , उसके लिए अन्य स्रोतों से प्राप्त जल शीतल और मधुर होने पर भी नीरस और व्यर्थ है । इसी प्रकार तुम्हारा ब्रह्म निश्चय ही मुक्ति देनेवाला हो किन्तु हमें तो कृष्ण ही एकमात्र प्रिय लगते हैं , हम उन्हीं से प्रसन्न हैं । हमें मोक्ष की आकांक्षा नहीं , अतः हम तुम्हारे ब्रह्म को स्वीकार करने में असमर्थ हैं । 

[ 30 ]

  • हमतें हरि कबहूँ न उदास । 
  • राति खवाय पिवास अधररस सो क्यों विसरत ब्रज को वास ।।
  • तुमसों प्रेमकथा को कहियों मन काटिबों , घास । 
  • बहिरों तान - स्वाद कह जान , गूगों बात मिठास ।। 
  • सुनु री सखी , बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख विविध विलास । 
  • सूरदास ऊधो अब हमको भयों तेरहों मास ।।

व्याख्या

हे उद्धव ! हमारे प्रभु कृष्ण हमसे कभी भी उदासीन एवं विषम विचार में नहीं हो सकते क्योंकि उन्हें ब्रजभूमि का अपना निवास कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता । यहाँ जब वे हमारे सानिध्य में थे तो हमने उन्हें अत्यन्त प्रेमपूर्वक मक्खन खिलाया था । और प्रेमावस्था में अपने अधरों सें अमृत रस का पान कराया था । परंतु तुम्हारे सम्मुख इस प्रेम कथा का बखान करना तो घास काटने के समान व्यर्थ है क्योंकि न तो तुम इसके महत्व को ही समझ सकते हो और न ही इससे आनन्दित हो सकते हो । तुम्हारी गति तो उस बहरे मनुष्य के समान है जो संगीत के उतार - चढाव से विस्मृत मधुर तानों का स्वाद नहीं जानता अथवा उस गुंगे व्यक्ति के समान है जो प्रेमालाप से उपलब्ध रस को ग्रहण नहीं कर सकता । तदुपरांत एक गोपी ने अपनी एक अन्य सखी से कहा कि हे सखी । सुन क्या हमारे जीवन में पुनः वही सुख अनेक प्रकार की प्रेम - क्रीड़ाएँ फिर कभी आएगी ? अर्थात् क्या कभी कृष्ण पुनः ब्रज वापिस आएँगे और हमारे साथ वहीं प्रेम - क्रीड़ाएँ करेंगे जिससे हमे पूर्ण सुख प्राप्त होगा । अब तो उनके आने का समय भी आ गया है क्योंकि जितनी अवधि के लिए यह मथुरा गए थे वह समाप्त हो रही है , अतः आशा है कि अब वह शीघ्र वापिस लौटेंगे ।

[ 31 ]

  • तेरो बुरो न कोऊ मान । 
  • रस की बात मधुप निरस , सुनु , रसिक होत सो जाने ।। 
  • दादुर बसे निकट कमलन के जन्म न रस पहिचान । 
  • अलि अनुराग उडन मन बाँध्यो कहे सुनत नर्हि कान ।। 
  • सरिता चले मिलन - सागर को कूल मूल प्रभु भाने ।
  • कायर बके , लोह ते भाजै , लरै जो सूर बखान ।।

व्याख्या

गोपियों उद्धव को लक्ष्यकर भरम्र को आधार बनाकर कहती हैं । हे नीरस स्वभाव वाले भरम्र सुन तेरी बात का धुरा यहाँ कोई नहीं मानता क्योंकि प्रेम की रसभरी बातें वहीं सोच - समझ सकता है जो स्वयं प्रेमी और रसिक हो । तू तो मधु के लोभ में प्रत्येक पुष्प पर मंडराता फिरता रहता है । किसी एक पुष्प के साथ तुझे कोई लगाव नहीं । इसलिए तू प्रेम की बातें नहीं समझ सकता और न ही प्रेम की बातों में रस ले सकता है । मेढक अपने पूरे जीवन में कमल पुष्प के निकट निवास करता है किन्तु फिर भी कमल के पराग से प्राप्त रस को पहचान पाने में सर्वथा असमर्थ रहता है । किन्तु भरम्र कमल के पराग की सुगंध को पहचानता है , यह उसका सच्चा पारखी है , तभी तो वह उससे अनुराग रखता है । वस्तुतः उसका मन कमल में बंध कर रह जाता है , तभी तो वह कहीं भी हो कमल के पास तत्काल उड़कर आ जाता है और मार्ग में किसी भी बाधा की तनिक भी परवाह नहीं करता । और न ही किसी के कहने की ओर कान देता है । कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि उद्धव का जीवन दादुर के समान व्यर्थ है । क्योंकि वह कृष्णरूपी कमल के पास निवास करता हुआ भी उसकी रसिक प्रवृति से परिचय प्राप्त न कर सका और जीवन भर प्यासा ही रहा जबकि हम गोपिकाओं का मन भरम्र की तरह उनके प्रेम मर्म को जानती हैं , उनमें निहित प्रेमरस से परिचित है तभी तो सदा उड़कर उनके पास जाना चाहती है और ऐसा करने में वह किसी लोक - मर्यादा , कुल , जाति के गौरव की किसी बाधा की तनिक भी परवाह नहीं करती । सरिता की गति भी अलि जैसी ही है । जब वह अपने प्रियतम सागर के प्रेमवश उससे मिलने के लिए चल पड़ती है तो पथ की बाधाएँ किनारे पर उत्पन्न लता - द्रुमो को उखाड़कर नष्ट कर देती है । तुम्हारे जैसा व्यक्ति ही प्रेम पथ पर चलता हुआ ऊँच - नीच पर विचार - विमर्श करता है परन्तु हम जैसी प्रेमी जन सब लोक मर्यादाओं को त्यागकर अपने प्रिय से एकाकार हो जाते हैं । कायर व्यक्ति केवल बातों के धनी होते हैं । हथियार देखकर भाग खड़े होते हैं , वास्तविक वीर वही है जो युद्ध में सम्मुख होकर संघर्ष करता है और वस्तुतः विजयश्री का वर्णन करता है । कवि का कहने का अर्थ यह है कि उद्धव वस्तुतः कायर है क्योंकि वह योग - ज्ञान से प्राप्त ब्रहा सम्बन्धी कोरी बातों में विश्वास करते हैं , अपने निकट बसनेवाले कृष्ण के मर्म को पहचानने का प्रयत्न नहीं करते , उन से प्रेम की लौ लगाकर अपना जीवन सफल करना नहीं चाहते । प्रेम करना रणक्षेत्र के के समान साहस का कार्य है तभी तो कोरी बातों का सहारा लेनेवाले उद्धव प्रेम के क्षेत्र में गोपियों की समानता नहीं कर सकते ।

 [ 32 ]

  • घर ही के बाड़े रावरे । 
  • नाहिन मीत वियोगवस परे अनवउगे अलि वावरे । 
  • मुख मरि जाय घरे नहिं तिनका सिंह को यह स्वभाव रे । 
  • सवन सुधा मुरली के पोचे जोग जहर न खवाब है । 
  • ऊधो हमहि सीख का देहो ? हरि विनु अनत न टौंव रे ! 
  • सूरदास कहा ले कीजै थाही नदिया , नाव रे।।

व्याख्या

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम तो घर के ही शेर हो । तुम्हारे जैसे ज्ञान - योग का गुणगान करने वाले घर पर बैठे बैठे ही बड़ी बड़ी बाते बनाते हैं , उनसे कोई क्रियात्मक कार्य करते नहीं बनता । सुन बावले भरम्र तुमने अभी तक अपने प्रिय का वियोग नहीं सहा । जब तुम्हारे लिए अपने प्रिय का वियोग सहने का अवसर आएगा , तभी तुम जान सकोगे कि यह कितना दुखदायी और प्राणान्तक होता है । सिंह का तो यह स्वभाव होता है कि स्वयं शिकार करके ही अपने शिकार के गोश्त से अपने पेट की क्षुधा को शांत करता है । वह भूखा मर सकता है , किन्तु पास अथवा किसी अन्य के किए गए शिकार या गोश्त नहीं खाता । सिंह की इस दृढ़ता के समान हम भी अपने कृष्ण प्रेम में दग्ध हैं प्रेम की वियोग - व्यथा से चाहे हमारे प्राण निकल जाएँ , परंतु हम कृष्ण के प्रेम को नहीं छोड़ेगी और न ही तुम्हारे निर्गुण ब्रह्मा को स्वीकार करेंगी । हमारे लिए कृष्ण ही सब कुछ है । सदा से ही हमारे इन कानों का पोषण कृष्ण की मुरली की अमृत के समान मधुर तान से हुआ है । ये उन तत्त्वों को सुनने के ही अभ्यस्त हो चुके हैं । अतः इन्हें तुम विष के सदृश कटु योग की बातें सुनाकर व्यथित न करो । हे उद्धव तुम भला हमें क्या शिक्षा एवं उपदेश दोगे , हमारे लिए तो भगवान श्री कृष्ण ही एक मात्र आश्रय हैं , उनके अतिरिक्त हमें जाने को अथवा शरण पाने को अन्य कोई स्थान नहीं है । हम कृष्ण प्रेम में निमग्न हैं । हमारे लिए यह संसार उस उथली नदी के समान है जिसे पार करने के लिए किसी नावरूपी सहारे की आवश्यकता नहीं होती , अतः हम तुम्हारे योगरूपी सम्बल को लेकर क्या करेंगी ? वस्तुतः इसकी हमें कोई आवश्यकता नहीं । वह हमारे लिए निरर्थक है । सूरदास जी के कहने का भाव है कि संसार उद्धव जैसे ज्ञानियों के लिए अथाह और अगम्य हो सकता है तथा उसे पार करने के लिए तुम्हें निर्गुण ब्रह्मरूपी सहारे की भी आवश्यकता होती है । परन्तु कृष्ण प्रेम में लीन गोपियों के लिए यह संसार उथली नदी के समान सहज है , जिसे भक्ति और विश्वास पर ही तैरा जा सकता है इसमें उनकी दृढ भक्ति प्रकट होती है । 

[ 33 ]

  • स्याम मुख देखे ही परतीति । 
  • जो तुम कोटि जतन करि सिखवत जोग ध्यान की रीति ।। 
  • नाहिन कह सयान शान में यह हम कैसे मान । 
  • कही कहा कहिए या नभ को कैसे उर में आन । 
  • यह मन एक , एक वह मूरति , अंगकीट सम माने । 
  • सूर सपथ दै बूझत ऊधो यह बज लोग सयाने।।

व्याख्या

गोपियाँ उद्धव की सारी बातें सुनकर बड़े धैर्य से कहती हैं कि हे उद्धव ! अब तो कृष्ण के दर्शन करने पर ही हमें विश्वास हो सकेगा कि वास्तविकता क्या है ? तुम्हारे ज्ञान - योग के उपदेश की प्रामाणिकता भी तभी सिद्ध होगी । तुम अनेक प्रयत्नों के द्वारा हमें योग और ज्ञान की पद्धतियों की शिक्षा देना चाहते हो किन्तु इन पर हमारा मन स्थिर नहीं हो पाता । हम किस प्रकार यह स्वीकार कर ले कि तुम्हारे इस ज्ञानोपदेश में कहीं कोई खोट , चालाकी अथवा दुरभिसंधि का समावेश नहीं । हमें स्पष्ट यह लग रहा है कि तुम हम लोगों को कृष्ण - प्रेम से उदासीन करके अपनी कोई स्वार्थ सिद्धि करना चाहते हो । इसमें तुम्हारा छल ही प्रकट होता है । गोपियों फिर पूछती है कि यह बताओ कि इस आकाश जैसे विस्तृत ब्रह्मा को हम किस प्रकार अपने हृदय में समेंट लें , आत्मसात् कर लें ? हमारा यह हृदय एक है और इसमें पहले से ही एक मूर्ति विराजमान है । हमारा हृदय और कृष्ण मूर्ति पहले से ही मिलकर भृंग और कीट के समान एक हो चुके हैं । हमारे हृदय पूर्णरूप से कृष्णमय बन गए हैं । अतः अब यह ज्ञानवान ब्रजवासी तुम्हें शपथ देकर यह जानना चाहते हैं कि क्या इनके कृष्णमय हृदयों में निर्गुण - ब्रह्म के लिए कोई स्थान उपलब्ध हो सकता है ? क्या इनके लिए निर्गुण ब्रह्मा की साधना करना सम्भव है ? जब इनका हृदय कृष्ण - मूर्ति के साथ एकरूप हो चुका तो हमें ब्रह्म की साधना असम्भव ही जान पड़ती है । इसे तुम्हें समझ लेना चाहिए ।

[ 34 ]

  • लरिकाई को प्रेम , कही अलि , कैसे करिक घटत ? 
  • कहा कहाँ जनाथ - चरित अब अन्तरगति यो लूटत ।। 
  • चंचल चाल मनोरम चितवनि , वह मुसुकनि मंद धुनि गावत । 
  • नटवर भेस नन्द - नन्दन को वह विनोद गह वन ते आवत ।। 
  • चरन कमल की सपथ करति ही यह संदेश मोहि विष - सम लागत । 
  • सूरदास मोहि निमिष न विसरत मोहन मूरति सोवत जागत।।

व्याख्या

गोपियां अपनी बात पर जोर देती हुई कहती हैं । हे उद्धव यह बताओ कि बालपन से साथ - साथ रहते हुए उत्पन्न प्रेम किस प्रकार छूट सकता है । यह तो असम्भव है । हम ब्रजनाथ श्री कृष्ण के चरित्रों अर्थात् कीड़ाओं का कहाँ तक वर्णन करूँ । उनके इन चरित्रों का ध्यान अब भी हमारे मन को सहजरूप में उनकी ओर आकर्षित करता रहता है । उनका स्मरण आते ही हम स्वयं को विस्मृत कर बैठती है । उनकी वह चंचल गति , वह मनोहर चितवन , वह मोहक मुस्कान तथा मंद एवं मधुर स्वयं में गान हम कभी भी भुला नहीं सकती । नंदनंदन श्रीकृष्ण का नटवर वेष धारण किए हुए विनोद करते हुए वन से घर की ओर लौटना - हमारे मन में सदैव छाया रहता है । हम चरण - कमल की शपथ खाकर यह कहती हैं कि निर्गुण - ब्रह्म की साधना करने का उनके द्वारा भेजा हुआ यह संदेश हमें विष के समान अत्यन्त कड़वा एवं घातक प्रतीत होता है । हमें तो सोते - जागते शरीर की समस्त अवस्थाओं में श्री कृष्ण की मनोहर मूर्ति क्षण भर के लिए भी नहीं भूलती । वे ही मेरे आराध्य है और उन्हें भुला पाना असम्भव है । 

[ 35 ]

  • अटपटि बात तिहारी ऊधो 
  • सुनै सो ऐसी को है ? हम अहीरि अबला सत , मधुकर । 
  • ति जोग कैसे सोह ? चिहि भी आँधरी काजर , नकटी पहिरे बेसरि । 
  • मुंडली पाटी पारन चाहे , कोळी अंगहि केसरि ।। 
  • बहिरो सो पति मतो करे सो उतर कौन पै आवे ?
  • ऐसी न्याव है ताों ऊधो जो हम जोग सिखावै ।। 
  • जो तुम हमको लाए कृपा करि सिर चढ़ाय हम लीन्हें । 
  • सूरदास नरियर जो विष को करहिं वंदना कीन्हें ।।

व्याख्या

सूरदास की गोपियाँ कहती हैं । हे उद्धव ! हम जैसी कौन खाली बैठी है जो तुम्हारे योग की अटपटी एवं व्यर्थ की बातों को सुने और उन पर ध्यान दे । हे दुष्ट भ्रमर ! हम अहीर जाति की अबला नारियां हैं । हमें तुम्हारा यह योग किस प्रकार शोभा दे सकता है । यह बात उसी प्रकार अनहोनी और असम्भव है जिस प्रकार कनकटी हुई स्त्री कानों में लौंगरूपी गहन पहनने का प्रयत्न करे , अथवा अंधी स्त्री अपने नेत्रों में काजल डालने का , नाक कटी हुई नाक में नथ पहनने का , गंजी का अपने सिर पर बालों की पटियों काढ़ने का अथवा माँग काढ़ने का और कोढ़ी अपने कोढ़ से गलती अंगो का केसर से श्रृंगार करने का प्रयत्न करे । यदि एक पति अपनी बहरी पत्नी से किसी प्रकार का कोई विचार - विमर्श करने का प्रयत्न करे तो वह क्या उत्तर प्राप्त कर सकेगा । बहरी पत्नी कुछ भी न सुन पाने के कारण उत्तर क्या दे सकेगी ? जिस प्रकार यह सब असम्भव है , उसी प्रकार हे उद्धव ! योग साधना हमारे लिए भी असम्भव है और जो हमें योग सिखाने का प्रयत्न करेगा , उसकी स्थिति भी बहरी के पति के समान शोचनीय होगी । इस प्रकार तुम्हारा प्रयास व्यर्थ है । गोपियाँ वाक्पटु हैं । अपने प्रेम पर अटल है और आगे कहती हैं- हे उद्धव ! तुम हमारे लिए श्री कृष्ण से जो कुछ लाए हो वह हमने सादर सिर पर चढ़ाकर अंगीकार किया है । परंतु तुम्हारा यह योग का उपदेश हमारे लिए उस विष भरे नारियल के समान है जिसे दूर से ही नमस्कार किया जाता है । जिसे यदि स्वीकार कर लिया जाए तो प्राण संकट में पड़ने अवश्यम्भावी है । अर्थात् तुम्हारा यह योग - संदेश हमारे प्रियतम कृष्ण द्वारा भेजा गया होने पर हमारे लिए वंदनीय तो है परन्तु यह स्वीकार करने के योग्य नहीं , क्योंकि यह हमें प्रियतम कृष्ण को त्याग निर्गुण ब्रह्म की साधना करने को कहता है , इसलिए यह घातक है । इसलिए हम विष भरे नारियल के समान इसे दूर से ही प्रणाम करती हैं । हम इसे स्वीकार करने में असमर्थ हैं ।

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