साखी गुरूदेव को अंग Gurudev ko Ang

 साखी 
गुरूदेव को अंग 
Gurudev ko Ang

साखी गुरूदेव को अंग Gurudev ko Ang

डॉ श्यामसुन्दर दास द्वारा संकलित कबीर ग्रन्थावली में ' गुरुदेव को अंग ' में गुरु महिमा से संबंधित साखियां संकलित हैं । भारत में गुरु को विशेष महिमा प्राप्त है । ऋषियों - मुनियों , कवियों आदि ने भाँति - भाँति से गुरु की महत्ता का निरूपण किया है । महिमा - वर्णन की यह परम्परा कबीर से पहले भी मिलती है और कबीर के बाद भी विद्यमान है , लेकिन सन्त कबीर ने गुरु की महिमा की जो प्रतिष्ठा की है यह अन्यत्र दुर्लभ है । हम यहाँ डॉ श्यामसुन्दर दास द्वारा संकलित कबीर ग्रन्थावली के ' गुरुदेव को अंग ' की सभी साखियां(दोहे) सरल भावार्थ सहित प्रस्तुत कर रहें हैं ।

सतगुरु सवानं को सगा , सोधी सई न वाति । हरिजी सवानं को हित , हरिजन सई न जाति।।1 ।। 

भावार्थ 

सद्गुरु के समान कोई सगा ( अपना ) नहीं है । शुद्धि - जैसा कोई दान नहीं है । हृदय को , मन को जो निर्मल कर है दे वैसा दान दूसरा नहीं है । गुरु अपने उपदेशों से शिष्यों को नाना विकारों से मुक्त कर देता है । हरि के समान कोई हितकरी नहीं है और भक्त के समान न ही कोई जाति है । कहने का आशय यह है कि जन्म के आधार पर कोई श्रेष्ठ नहीं बनता है । यह श्रेष्ठ तभी बनता है जब वह ईश्वर की भक्ति में लीन होकर अपनपा को तज देता है । 

बलिहारी गुरु आपण या हाड़ी के बार । जिनि मानुष त देवता , करत न लागी बार।।2।। 

भावार्थ

मैं अपने गुरु पर अपने को उत्सर्ग करता हूँ , क्योंकि ये स्वर्ग के द्वार हैं । अर्थात् उन्हीं की ज्ञान कृपा से स्वर्ग में प्रवेश किया जा सकता है । जिन्होंने मुझे मनुष्य से देवता बना दिया और देवता बनाने में किसी प्रकार का विलम्ब भी नहीं किया । 

सतगुरु की महिमा अनंत , अनंत किया उपगार । लोचन अनंत उघाडिया , अनंत दिखावणहार।।3 ।।

भावार्थ 

सतगुरु की महिमा अनन्त है । उसका किया गया उपकार भी अनन्त है । उसने अनन्त दृष्टि को खोलकर उस अनन्त का , जिसका कोई आदि - अन्त और ओर - छोर नहीं है , दर्शन कराने की अनुकम्पा की है । कहने का आशय यह है कि ईश्वर का दर्शन सामान्य दृष्टि से नहीं हो सकता है । उसके लिए दिव्य नेत्र - अनन्त नेत्र की आवश्यकता होती है । 

राम नाम के परंतरे , देवे का कुछ नाँहि । क्या ले गुर संतोषिए , हाँस रही मन मोहि।।4 ।। 

भावार्थ

सदगुरु ने राम नाम का मंत्र किया । उस मंत्र के बदले में उसके बराबर देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है । ऐसी स्थिति में गुरु को क्या अर्पित करके सन्तुष्ट होऊ । गुरु को कुछ देने का उत्साह मन के भीतर ही रह जाता है ।

सतगुर के सदके करूं , विल अपणी का साछ । कलियुग हम स्यू लड़ि पड्या महकम मेरा बाह।।5 ।। 

भावार्थ

अपनी आत्मा की गवाही करके अपने गुरु पर अपने को न्यौछावर करता हूँ । कलियुग मुझसे लड़ पड़ा , लेकिन मेरी चाह ( ईश्वर प्राप्ति की कामना ) बड़ी मजबूत थी , इसलिए वह किसी प्रकार का व्यवधान नहीं डाल पाया । 

सतगुर लई कौण करि , बौहण लागा तीर । एक जु बाह्या प्रीति भीतरि रह्या सरीर।।6 ।। 

भावार्थ

सद्गुरु ने शब्द रूपी धनुष से ज्ञान रूपी बाण फेंका । एक तीर जो बड़े स्नहे से चलाया , वह मेरे शरीर के भीतर बिंध गया । अर्थात् सद्गुरु के ज्ञान से भीतर का अन्धकार और भीतर की मलिनता मिट गयी।

सतगुर साँचा सूरियाँ , सबब जुबाह्या एक । लागत ही में मिलि गया , पढ़या कलेजे छेक ।।7।। 

भावार्थ 

सद्गुरु सच्चा शूर ( वीर ) है । उसने शब्द - बाण फेंका । शब्द - बाण लगते ही सारा अहंकार मिट गया और कलेजे में छेद हो गया । कहने का आशय है कि सद्गुरु का निशाना अचूक होता है और वह शब्द - बाणों से शिष्य के सारे विकारों को नष्ट करता है ।

सतगुरु मारया बाण भरि , धरि करि सूधी मूठि । अंगि उधार लागिया , गई दवा पटि ।।8।।

भावार्थ : सद्गुरु ने सीधे लक्ष्य पर पूरी शक्ति से शब्द - बाण मारा । वह नंगे अंग पर लगा और दावग्नि - सी फूट पड़ी । कहने का तात्पर्य यह है कि नंगे शरीर पर लक्ष्य बाण बिल्कुल ठीक लगता है और वह शरीर में आर - पार समा जाता है गुरु ने जो शब्द - बाण मारा वह भी शिष्य के शरीर में बिल्कुल ठीक जगह लगा और उसके शरीर में प्रभु - दर्शन प्राप्ति की विरहाग्नि रूपी दावाग्नि जल पड़ी । 

हंस न बोलै उनमनी , चंचल मेल्ल्या मादि । कहै कबीर भीतरि भिधा , सतगुर के हथियर II9II 

भावार्थ

कबीर कहते हैं कि सद्गुरु का शब्द - बाण रूपी हथियार मन में बिंध गया जिसने मेरे मन को बेध दिया । जिससे मन की सारी चंचलता ( मन की संकल्पात्मक और विकल्पात्मक दशा ) मिट गयी और जीवात्मा उन्मनी अवस्था में पहुँच गयी ।

विशेष: उन्मनी अवस्था

मारुते मध्यसंचारे मनः स्येय प्रजायते । 

यो मनः सुस्थिरी भावः सैवावस्था मनोभवी ।। हठयोग प्रदीपिका

अर्थ:- जब सुषुम्ना नाड़ी में प्राणवायु का संचार होने लगता है , मन स्थिर हो जाता है , वह अवस्था उन्मनी अवस्था होती है ।

गुंगा हूवा बावला , बहरा हुआ कान । पाऊँ मैं पंगुल भया सतगुर मारया बाण ।।10।। 

भावार्थ

सद्गुरु के शब्द - बाण मारने से शिष्य गूंगा और बावला हो जाता है । कान से बहरा हो जाता है और पाँव से लँगड़ा हो जाता है । यहाँ पर कबीर ने यह संकेत दिया है कि सद्गुरु के ज्ञान से ज्ञानोन्द्रियों की बाह्यवृति रुक जाती है और वह अन्तर्मुखी हो जाती हैं । इसी अन्तर्मुखता से साधक - शिष्य अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार करता है ।

पीछे लागा जाइ था , लोक वेद के साथि । आगे थे सतगुर मिल्या , दीपक दीया हाथि ।।11।।

भावार्थ 

लोक - वेद के साथ लगकर में उनके पीछे - पीछे जा रहा था , लेकिन आगे मुझे सद्गुरु मिल गये जिन्होंने मुझे ज्ञान का दीपक मेरे हाथ में दे दिया । कहने का आशय यह है कि मैं लोक और वेद की मान्यताओं के चक्कर में पड़ा हुआ था और सही मार्ग को भूल गया था और संसार में भटक रहा था , लेकिन गुरु ने ज्ञान प्रदान करके उस भटकन को समाप्त कर दिया ।

दीपक दीया तेल भरि , बाती दई अघट्ट। पूरा किया बिसाहूणां , बहुरि न आँवी हट्ट।।12 ।।

भावार्थ 

सदगुरु ने प्रेम रूपी तेल से भरकर ज्ञान रूपी दीपक प्रदान किया और उस ज्ञान दीपक में कभी न घटने वाली बत्ती डाल दी जिसके द्वारा शिष्य संसार रूपी हाट में ( बाजार जन्म मृत्यु का क्रय विक्रय समाप्त कर लिया अतः उसे पुनः इस संसार रूपी बाजार में नहीं आना पड़ेगा । कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान प्राप्ति मनुष्य जन्म - मृत्यु के चक्कर से पार हो जाता है । 

ग्यान प्रकास्या गुरु मिल्या , सो जिनि बीसरि जाइ । जब गोबिंद कृपा करी , तब गुरु मिलिया आइ ।।13 ।। 

भावार्थ

गुरु के मिलने से ज्ञान प्रकाशित हो गया अथवा ज्ञान का अभ्युदय हो गया । गुरु प्रदत्त उस ज्ञान को भूलना नहीं चाहिए । क्योंकि जब गोविंद ( ईश्वर ) ने कृपा किया तभी गुरु मिला और गुरु ने ज्ञान दिया । कहने का आशय यह है कि शिष्य - साधक का यह कर्तव्य होता है कि वह गुरु - ज्ञान को अपनी साधना से नित्य बनाये रखे । 

कबीर गुरु गरवा मिल्या , रलि गया आटे लूण । जाति पाँत कुल सब मिट , नाव धरोगे कोण ।।14 ।। 

भावार्थ 

कबीरदास कहते हैं कि मुझे महिमा से सम्पन्न गुरु मिल गया । गुरु की कृपा से,गुरु के उपदेश में ईश्वर के साथ वैसे ही घुल - मिल गया जैसे आटे में नमक मिलकर एकमेक हो जाता है । प्रभु के मिलन से परिणाम यह हुआ कि मेरी जाति , पाति कुल आदि सब कुछ मिट गया । ऐसी स्थिति में अब मेरा क्या नाम रखा जायेगा ।

जाका गुर भी अंधला , चेला खरा निरचं । अंधा अंधा लिया , दून्यू कूप पडत ।।15।।

भावार्थ 

जिसका गुरु अन्धा ( अज्ञानी है और शिष्य बिल्कुल घनघोर अन्धा ( बड़ा मूर्ख ) है । जब अंधा अंधे को ठेलेगा अर्थात् अज्ञानी गुरु महामूर्ख शिष्य को उपदेश देगा तब वह उपदेश कारगर साबित नहीं होगे । दोनों ही संसार रूपी कुएँ में पड़कर नष्ट हो जायेंगे ।

ना गुरु मिल्या न सिष भया , लालच खेल्या जाव । दुन्यू बूड़े धार मैं , चढ़ि पाथर की नाव ।।16 ।। 

भावार्थ 

न योग्य गुरु मिला न उचित शिष्य मिला । दोनों लालच के वशीभूत होकर अपना - अपना दाव खेलते रहे । लेकिन दोनों ऐसे ही भवसागर की धार में डूब गये जैसे कोई पत्थर की नाव में चढकर अपने को नष्ट कर देता है ।

चौसठि दीवा जोइ करि , चौदह चंदा माँहि । तिहिं घर किस को चानिणो , जिहि घटि गोबिंद नाहि।।17 ।।

भावार्थ

चाहे चौसठ कलाओं और चौदह विद्याओं के ज्ञान का प्रकाश हो जाये , लेकिन जिसके शरीर रूपी गृह में गोबिंद का निवास नहीं है उस घर में कैसे प्रकाश होगा । अर्थात जो ह्रदय प्रभु की भक्ति से रहित है , उसे अनेक कलाएँ और विद्याएँ भी प्रकाश नहीं भर सकती ।

निस अँधियारो कारण , चौरासी लख चंद । अति आतुर ऊदै किया , तऊ विष्टि नहिं मंद।।18 ।।

भावार्थ

आँधियारी रात को प्रकाशित करने के लिए चाहे बड़े उत्साह के साथ चौरासी लाख चन्द्रमा उदित किये जायें लेकिन जिनकी बुद्धि मंद है उन्हें कुछ भी दिखायी - सुनाई नहीं पड़ सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु ज्ञान के बिना अन्दर की आँखे नहीं खुलती हैं । बाहर चाहे कितना प्रकाश क्यों न किया जाये।

भली भई जु गुर मिल्या , नहीं तर होती हाँणि । दीपक दिष्टि पतंक ज्यू , पड़ता पूरी जाँणि।।19 ।। 

भावार्थ 

बहुत अच्छा हुआ जो गुरु मिल गया , अन्यथा मेरी बहुत बड़ी हानि होती । जैसे पतंग दीपक की चका चौध में उससे मोहित होकर उस पर बार - बार पड़ता है , वैसे मैं भी माया रूपी दीपक को ही सत्स्वरूप मान कर उस पर बार - बार पड़ता और अपने को नष्ट कर लेता । 

माया दीपक नर पतंग अमि अमि इवै पर्वत । कहै कबीर गुर ग्यान थे , एक आध उबरंत ।।20।। 

भावार्थ

माया दीपक के समान और मनुष्य पतंग के समान है । पतंग की भाँति मनुष्य माया रूपी दीपक पर धूम - घूम कर बार - बार पड़ता है । कबीर दास कहते हैं कि गुरु ज्ञान से ही एक - व्यक्ति  माया के आकर्षण से बच पाता हैं । 

सतगुर बपुरा क्या करे , जे सिवही मौह चूक । भाव त्यूँ प्रबोधि तो , ज्यूं वंसि बजाई फूक।।21 ।।

भावार्थ 

सद्गुरु बेचारा क्या कर सकता है , यदि शिष्य में ही कोई खोट - दोष हो । जिस प्रकार कोई व्यक्ति बंशी को बजाकर बेसुरा और अप्रिय स्वर निकाल ले तो उसमें वंशी का कोई दोष नहीं होता है , उसी प्रकार अयोग्य और मूर्ख शिष्य भी गुरु के उपदशे में निहित अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं । 

संस खाया सकल जग , संसा किनहुँ न बद्ध । जे बेधे गुर अबिरां , तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध ।।22।। 

भावार्थ

संशय ने सारे संसार को खा लिया , लेकिन संशय को किसी ने नहीं खाया । जो गुरु के अक्षरों अर्थात् ज्ञान के ( उपदेश से ) विद्ध ( युक्त ) है उन्होंने ही संशय को चुन - चुन कर खाया ।

चेतनि चौकी पैसि करि , सतगुर दीन्हीं धीर । निरभै होइ निसंक भजि , केवल कहै कबीर।।23 ।। 

भावार्थ 

कबीरदास कहते हैं कि चेतना ( ज्ञान ) की चौकी पर बैठकर सद्गुरु ने धैर्य प्रदान किया और उपदेश दिया कि निर्भय और निःशंक होकर प्रभु को भजो । 

सतगुर मिल्या त का भया , जे मनि पाड़ी भोल । पासि विनंठा कप्पड़ा , क्या करे विचारी चोल।।24 ।।

भावार्थ

सद्गुरु मिला तो क्या हुआ यदि मन में शंका विद्यमान है , धूल पड़ी हुई है । यदि धूल धूसरित कपड़ा नष्ट हो गया है तो उसमें बेचारी मजीठ क्या कर सकती है । कहने का आशय यह है कि जैसे धूल धूसरित कपड़े पर रंग ठीक से नहीं चढ़ाया जा सकता है वैसे ही मलिकचित्र वाले साधन पर अध्यात्म का रंग ठीक से नहीं चढ़ सकता है ।

बूड़े थे परि ऊबरे , गुर की लहरि चमकी । भेरा देख्या जर जरा ( तब ) ऊतरि पड़े फरंकि।।25 ।। 

भावार्थ

कबीर कहते हैं कि मैं सांसारिक पारखण्डों और मिथ्याचारों में डूबा हुआ था , लेकिन गुरु ज्ञान - तरंग के प्रकाश से मैं उन बाह्याचारों से ऊपर उठ गया । जब मैंने देखा कि बाह्यचारों की यह नाव बड़ी जीर्ण है तब उस नाव से अलग हो गया । अर्थात् सद्गुरु के उपदेश से ही जीवन की और संसार की सत्यता प्राप्त होती है । 

गुरु गोविंद तो एक है , दूजा यहू आकार । आपा मैट जीवत मरे , तो पावै करतार || 26 ।।

भावार्थ

सद्गुरु और गोविंद ( परमात्मा ) वास्तव में एक है और यदि अन्तर है तो आकार का ( शरीर , नाम , रूप , उपाधि आदि का ) यदि कोई अपनी अस्मिता ( अस्तित्व ) को नष्ट कर जीते ही मर जाये ( जीवन्मुक्त हो जाये ) तो उसे परमाता की प्राप्ति हो सकती है । 

कबीर सतगुर ना मिल्या , रही अधूरी सीष । स्वांग जती का पहरि करि , घटि घटि माँगै भीष ।। 27 ।। 

भावार्थ

कबीरदास कहते हैं कि यदि सद्गुरु की प्राप्ति नहीं हुई और शिक्षा ( उपदेश ) भी अधूरी रह गयी तो शिष्य - साधक साधु का बनावटी वेश पहन कर घर - घर भिक्षा माँगने का कार्य करता है । कबीर की दृष्टि में यह बनावटी आचरण मिथ्या और निंदनीय है , क्योंकि इस आवरण में प्रभु का साक्षात्कार नहीं प्राप्त हो सकता ।

सतगुर साँचा सूरियाँ , तातै लोहि लुहार । कसणी दे कंचन किया , ताह लिया ततसार ।। 28 ।।

भावार्थ

कबीर कहते हैं कि सद्गुरु सच्चा शूरवीर है जो शिष्य रूपी लोहे को साधना रूपी आग में तपाकर जैसा चाहता है वैसा बना देता है । कबीरदास कहते हैं कि सोनार जिस प्रकार कसौटी पर कसकर सोने की शुद्धता का मूल्यांकन करता है वैसे ही सद्गुरु साधना की कसौटी पर साधक - शिष्य को कसकर उसके भीतर विहित तत्त्वसार को सुरक्षित करता है । 

थापणि पाई थिति भई , सतगुर दीन्हीं धीर कबीर हीरा बणजिया , मानसरोवर तीर ।। 29 ।।

भावार्थ

सद्गुरु ने धैर्य दिया जिससे प्रभु में प्रेम स्थिर हो गया।अब कबीर मानसरोवर रूपी चेतना के तीर - ज्ञान रूपी हीरे का व्यापारी बन गया है । कहने का तात्पर्य यह है कि उसकी सारी वृत्तियाँ अन्तर्मुखी बन गयी हैं । 

निहचल विधि मिलाइ तत , सतगुर साहस धीर । निपजी मैं साझी घणी , बाँट नहीं कबीर।।30 ।।

भावार्थ 

सद्गुरु ने साधना को साहस और धैर्य से युक्त करके जीवात्मा रूपी तत्त्व को परमात्मा रूपी विधि में मिला दिया । इस मिलन से प्राप्त आनन्द को बाँटने के लिए अनेक साझीदार हो गये , लेकिन कबीर उसे बांट नहीं सकते । कारण यह है कि यह आनन्द अनुभूति का विषय है । उसका केवल अनुभव किया जा सकता है । वह कथन से परे है । 

चौपडि मांडी चोहटे , अरध उरध बाजार । कहै कबीर राम जन , खैलो संत विचार।।31 ।।

भावार्थ

ऊपर नीचे संसार रूपी बाजार के त्रिकुटी रूपी चौराहे पर साधना का चौसर सजाया गया है । कबीर कहते हैं कि राम के भक्तजन इसे विचार कर लो । 

निहित संकेतार्थ :- चौपडि = साधना का संकेतक है । चौहट = त्रिकुटी का , दोनों भौहों के बीच का स्थान । त्रिकुटी के ऊपर के चक्रों को उरध और नीचे के चक्रों को अरध कहा गया है ।

पासा पकड़या प्रेम का , सारी किया सरीर । सतगुरु दीव बताइया , खेले दास कबीर ।।32।। 

भावार्थ 

कबीर कहते हैं कि मैंने प्रेम की गोटी को पकड़ रखा है और शरीर को बिसात बना लिया है । सद्गुरु द्वारा बताये गये दाँव से मैं चौसर खेल रहा हुन ।

सतगुर हम सूं रीझि कर , एक कहया प्रसंग । बरस्या बादल प्रेम का , भीजि गया सब अंग।।33 ।। 

भावार्थ 

सद्गुरु ने प्रसन्न होकर ईश्वर के संबंध में एक प्रसंग बतलाया जिससे प्रेम का बादल बरस गया और मेरे सारे अंग भीग गये ।

कबीर बादला प्रेम का , हम पर वरष्या आइ । अंतरि भीगी आत्मों हरी भरी बनराइ।।34 ।। 

भावार्थ 

कबीरदास कहते हैं कि प्रेम का बादल हम पर आकर बरस गया । जिससे हमारी अन्तरात्मा भीग गयी ओर ' जीवन रूपी वन हरा - भरा हो गया । 

पूरे सूं परचा भया , सब दुख मेल्या दूरी । निर्मल किन्हीं आत्माँ ताथै सदा हरि।।35 ।। 

भावार्थ

कबीरदास कहते हैं कि मेरा पूर्ण परमात्मा से परिचय हुआ और सारे दुख दूर हो गये । मेरी आत्मा निर्मल हो गयी इसीलिए अब परमात्मा मेरे लिए सदा उपस्थित रहता है । अर्थात् निर्मलता से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है ।


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