सूरदास Surdas
(1478-1583ई.)
जीवन – परिचय
कृष्ण भक्ति शाखा के अमर गायक , पुष्टिमार्ग के जहाज , वात्सल्य और श्रृंगार के कुशल चित्रकार महाकवि सूर का जीवन वृत भी अंधकार की क्रोड ( गोद ) में छिपा हुआ है । अन्य भक्त कवियों के समान ' स्वान्तः सुखाय ' रचना करने वाले सूर ने अपने काव्य में स्वयं का परिचय देना उचित नहीं समझा । यही कारण है कि सूर के जीवन के विभिन्न पक्षों , समय , स्थान , वंश , अंधत्व आदि के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है । फिर भी उनके जीवन वृत का निर्धारण करने के लिए हमें जो सामग्री उपलब्ध होती है , वह दो प्रकार की है
1. अन्तःसाक्ष्य और
2. बहिर्साक्ष्य
अन्तःसाक्ष्य सामग्री के अन्तर्गत सूर के वे आत्मविषयक कथन आते हैं जो उनके पदों में यत्र - तत्र उपलब्ध होते हैं । यद्यपि सूर ने स्पष्ट रूप से कहीं भी अपने बारे में कुछ नहीं कहा है , किन्तु उनके वर्णनों में कहीं - कहीं ऐसे उल्लेख प्राप्त हो जाते हैं , जिनमें उनके जीवन एवं व्यक्तित्व की अस्पष्ट झलक दिखाई दे जाती ।
बाहय साक्ष्य में वे सभी रचनाएँ सम्मिलित की जा सकती हैं जो उनके समकालीन एवं परवर्ती कवियों द्वारा सृजित हैं । इनमें चौरासी वैष्णवों की वार्ता , हरिराय कृत ' भाव प्रकाश टीका ' , नाभादास कृत ' भक्तमाल ' , ' अष्टसखामृत, भक्त विनोद , राम रसिकावली,आइने अकबरी , मूल गुंसाई चरित आदि प्रमुख हैं ।
नामकरण
सूर के पदों में सूर , सूरजदास , सूरज , सूरदास और सूरश्याम ये पाँच नाम आते हैं । सूर निर्णय के लेखकों ने ' अष्ट - सखामृत के आधार पर इनका नाम सूरजदास माना है । ' साहित्य लहरी के पदों में सूरज चंद लिखा है । किन्तु सूरदास जी का वास्तविक नाम सूरदास ही था क्योंकि ' वार्ता - साहित्य में इन्हें सूर या सूरजदास ही कहा गया है ।
जन्म तिथि
सूर की जन्म - तिथि के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद रहा है , किन्तु आधुनिक खोजों से यह विवाद प्राय : समाप्त हो गया है और लगभग सभी ने सूर की जन्म तिथि वैशाख शुक्ल पंचमी संवत् 1535 वि . को स्वीकार कर लिया है ।
जन्म – स्थान
सूर की जन्म - भूमि के संबंध में निम्नलिखित चार स्थानों की प्रसिद्धि है जिनमें पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल गोपाचल(ग्वालियर) तथा भक्त विनोद में कवि मियाँसिंह ने मथुरा के निकट किसी ग्राम को माना है । परंतु सबसे मजबूत तर्क जिन दो स्थानों को लेकर दिए जाते हैं वे हैं -
रुनकता- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य का इतिहास में सूर का जन्म स्थान ' रुनकता लिखा है । डॉ . श्याम - सुन्दर दास ने भी सूर की जन्मभूमि 'रुनकता ही मानी है । इसका कारण कदाचित सूरदास का गउघाट पर रहना है , जो रुनकता से कुछ दूरी पर है ।
सोही - ' वार्ता - साहित्य में सूरदास की जन्मभूमि सोही नामक स्थान को माना गया है । ' चौरासी वैष्णवों की वार्ता के भावप्रकाश में श्री हरिराय जी ने सबसे पहले सूरदास जी का जन्म स्थान दिल्ली से चार कोस की दूरी पर सोही बताया । ' अष्टसखामृत में भी सूर का जन्म सोही ही माना गया है
" श्री बल्लभ प्रभू लाडिले , सोही सर जलपात । सारसुती दुज तरू सुफल , सूर भगत विख्यात ।।
आज अधिकांश विद्धान सोही को ही सूर की जन्मस्थली मानते हैं ।
जाति तथा वंश
सूरदास की जाती एवं वंश के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है । कुछ विद्धान इन्हें भाट तो कुछ भट्ट ब्राहमण मानते है , तो कुछ डाढी वा जगा जाति का मानते है । पुष्ट प्रमाणों के आधार पर सूरदास जी सारस्वत ब्राहमण थे । वार्ता - साहित्य में भी सारस्वत ब्राहमण बताया गया है । इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि दिल्ली आसपास सारस्वत ब्राहमण ही रहते हैं । अतः सूरदास सारस्वत ब्राहमण हो ।
अंधत्व
सूरदास के अंधत्व के संबंध में लगभग सभी एकमत हैं । किन्तु सूर जन्मान्ध या बाद में अन्धे हुए इस विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है । वार्ता - साहित्य में इन्हें जन्मांध माना गया है । सूरसागर के अनेक पद सूर के अंधत्व के प्रमाण दिए जा सकते हैं " सूरदास सों बहुत निठुरता नैननि हू कि हानि । " एवं " नाथ मोहि अब की बेर उबारो । करमहीन जनम को आँधो , मोते कौन न कारी । " किन्तु कुछ आलोचकों का मानना है कि एक जन्मांध कवि न तो नख - शिख वर्णन की सूक्ष्मता तक पहुँच सकता है , और न वाग्विदग्धता के चित्र प्रस्तुत कर सकता है । किन्तु यह सत्य है कि जन्म से अंधा ही ' सूरदास ' कहलाता है और प्रभु के सच्चे भक्त के लिए विश्व के निगूढ़ रहस्य भी खुल जाते हैं । अतः सूर को जन्मांध ही माना जाना चाहिए ।
वैराग्य तथा सम्प्रदाय प्रवेश
स्वामी हरिराय जी के भाव - प्रकाश के अनुसार केवम 6 वर्ष की अवस्था में ही सूरदास विरक्त होकर अपने गाँव से चार कोस की दूरी पर तालाब के किनारे , पीपल के वृक्ष के नीचे रहने लगे थे । वहीं वे 18 वर्ष की उम्र तक रहे । इसके पश्चात् मथुरा - आगरा के बीच गौघाट पर रहने लगे । यही पर 1580 में इन्होंने - महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा प्राप्त की ।
अकबर से भेंट
' चौरासी वैष्णवो की वार्ता के अनुसार दिल्ली से आगरा जाते समय अकबर सूरदास जी से मिले थे । किंवदन्ती है कि अपनी सभा के प्रसिद्ध गायक तानसेन द्वारा सूर का कोई पद सुनकर अकबर सूर से मिलने के लिए लालायित हो उठा | डॉ . हरवंशलाल शर्मा का मत है कि अकबर सन् 1679 की अजमेर यात्रा में फतेहपुर सीकरी से लौटता हुआ , रास्ते में मथुरा में उनसे मिला हो ।
गोलोकवास
जन्म तिथि की ही भाँति सूर की मृत्यु - तिथि के संबंध में पर्याप्त मतभेद है । विभिन्न विद्वानों ने उनकी मृत्यु तिथि संवत् 1620 से 1642 के बीच मानी है । मिश्र - बंधुओं ने सूर का निधन संवत 1620 माना है । किन्तु अन्त : साक्ष्य एवं बाह्यसाक्ष्य के आधार पर संवत् 1640 तक सूर की उपस्थिति सिद्ध होती है । ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार सूर और अकबर की भेंट संवत 1630 से पहले सम्भव नहीं । अत : सूर का गोलोकवास संवत् 1631 के बाद ही मानना उचित होगा ।
कृतियाँ
महाकवि सूर वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेने के पूर्व से ही काव्य - सृजन में लीन थे । तब से लेकर जीवन पर्यन्त उनकी हृदय वीणा के स्वर विभिन्न राग - रागनियों के माध्यम से ध्वनित होते रहे । ' वार्ता - साहित्य एवं समकालीन ऐतिहासिक ग्रन्थों में वैसे तो सूर की किसी भी रचना का उल्लेख नहीं मिलता है , किन्तु इस बात का संकेत अवश्य मिलता है कि सूर ने सहस्त्रावधि पद अथवा सवालाख पदों की रचना की थी । काशी नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्ट , इतिहास ग्रंथ एवं पुस्तकालयों में सुरक्षित ग्रंथों के आधार पर अब तक जिन ग्रंथों का पता चला है उनकी संख्या 25 बताई जाती है ।
1.सूर सारावली 2. भागवत - भाष्य 3. सूर - रामायण 4. गोवर्धन लीला 5. भंवरगीत 6. प्राणप्यारी 7. सूरसाठी 8. सूरदास के विनय आदि के स्फुट पद 9. एकादशी महात्म्य 10.दशम् स्कंध भाषा 11. साहित्य सहरी 12.मान - लीला 13. नाग लीला 14. दृष्टिकूट के पद 15. सूरपचीसी 16. नल दमयन्ती 17.सूरसागर 18. सूरसागर सार 19. राधारस केलि कौतूहल 20.दान लीला 21. व्याहलो 22.सूरशतक 23.सेवाफल 24.हरिवंश टीका ( संस्कृत ) 25.रामजन्म
इन ग्रंथो में कुछ प्रकाशित और कुछ अप्रकाशित हैं । द्वारिका प्रसाद पारीक एवं प्रभुदयाल मित्तल ने अपने काव्य ग्रंथ ' सूर निर्णय ' में सूर की सात प्रामाणिक रचनाएँ मानी हैं
1.सुर सारावली 2. साहित्य लहरी 3. सूर सागर 4. सूर साठी 5. सूर पचीसी 6. सेवाफल 7. सूर के विनय संबंधी स्फुट पद
आधुनिक आलोचकों ने सूर की तीन रचनाओं को ही प्रामाणिक माना है
1.सूर सारावली 2. साहित्य लहरी 3. सूर सागर
इनकी दृष्टि में अन्य ग्रंथ या तो सूर सागर के ही अंश हैं अथवा उनको सूर कृत मान लिया गया है क्योंकि उनमें कहीं - कहीं सूर के नाम की छाप है । अत : इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है ।
साहित्यिक परिचय
भाव सौंदर्य
सूरदास का प्रारम्भिक जीवन गउघाट पर रहते हुए भगवान के सामने विनय के पद प्रस्तुत करके गिड़गिड़ाने में बीता था । वे अपने आराध्य कृष्ण को पतित पावन और स्वयं को “प्रभु हौं सब पतितन को टीकों” मानते थे । एक दिन जब वल्लभाचार्य दक्षिण - विजय से लौटे तो गऊ घाट पर ठहरे । सूर ने महाप्रभु के सामने विनय - पद प्रस्तुत किये । ' मोसम कौन कुटिल खालकामी " और " प्रभु ही सब पतितन को टीको । आचार्य वल्लभ भगवान की भक्ति में सूर की अनन्यता और तादात्म्य भाव से अत्यन्त प्रमावित हुए और लीला प्रेमी महाप्रभु ने सूर से कहा –
' सूर हवै के ऐसी घिघियाता काहे को हो , कछु हरि जस लीला वर्णन करो । " सूरदास ने स्वयं को महाप्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया । स्वयं आचार्य वल्लभ ने सूरदास को दीक्षा दी और भागवत में वर्णित कृष्ण लीलाओं का रहस्य विस्तार से समझाया । कृष्ण लीलाओं को अपने भीतर अंकित करने से सूर के आन्तरिक नेत्र खुल गये । उन्होंने कृष्ण - लीलाओं का जो चित्रण शुरू किया तो फिर घिघियाने के लिए उन्हें अवकाश ही नहीं निला । भक्ति , विनय , अनन्यता , शरणागति आदी भावों को भी उन्होंने लीलारस में ही हुबो कर प्रस्तुत किया । कृष्ण की बाल लीला , सखा लीला और फिर किशोर तथा युवा कृष्ण की लीलाएँ उन्हें जानन्दित करने लगी । पतित सूर अब रसिक सूर बन चुके थे । पाठकों के समक्ष अब कृष्ण के तीन रूप प्रस्तुत थे - बालकृष्ण , सखाकृष्ण , योद्धाकृष्ण । आलोचक प्रारम्भ में सूर द्वारा अंकित युवा कृष्ण की मादक - मनोहर क्रीड़ाओ को औचित्य विरोधी समझकर नाक - भौं सिकोड़ते रहे , किन्तु अन्त में सूर के साथ वह भी उसी मादक प्रवाह में बहना पसन्द करने लगे । युवा कृष्ण का यह मादक रूप ही काव्य क्षेत्र में श्रृंगार रस बना इसी का दूसरा रूप विप्रलम्भ श्रृंगार है । कृष्ण की किशोर और युवा जीवन की अनन्त लीलाएं ही सूर ने सैकड़ों मुद्राओं के साथ अंकित की है । तभी तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि “श्रृंगार का रस राजत्व यदि किसी कवि ने दिखाया है तो इसी अंधे कवि सुर ने । अपनी बन्द आंखों से वे श्रृंगार का कोना कोना झांक आये हैं ।“
श्रृंगार वर्णन
महाकवि सूर ने श्रृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का प्रचुरता से वर्णन किया है । संयोग श्रृंगार के वर्णन में नायक - नायिका के प्रेम की उत्पत्ति , आलम्बन का रूप चित्रण , नायक - नायिका की क्रीडाएं , पारस्परिक छेड़छाड़ और उनके मिलने आदि का वर्णन किया जाता है । सूर का संयोग वर्णन अत्यन्त स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक है । सूर ने कृष्ण , राधा और गोपियों को आलम्बन बनाया है । राधा समस्त गोपियों का प्रतिनिधित्व करती है । राधा और कृष्ण का मिलन अत्यन्त नाटकीय और चमत्कारपूर्ण परिस्थितियों में होता है | एक दिन कृष्ण भौर में चकडोरी हाथ में लिये ब्रज की गलियों में खेलने के लिए निकलते हैं
- " खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी |
- कटिकाठनी पीताम्बर धारे , हाथ लिये भौंरा , चकडोरी ।
- गए स्याम रवि - तनया के तट , अंग लसति चन्दन की खोरी ।
- औचक ही देखी तह राधा , नैन बिसाल भाल दिये सेरी ।
- सूर स्याम देखत ही रीझे , नैन - नैन मिलि परी ठगौरी । "
राधा और कृष्ण के विशेष प्रेम की उत्पत्ति सूर ने रूप के आकर्षण द्वारा ही बताई है
- ' बुझत स्याम कौन तू गोरी ?
- कही रहति काकी तू बेटी ? देखि नाहि कबहूँ बज खोरी | "
राधा भी चतुराई से उत्तर देती है
- ' काहे को हम ब्रज तन आवति ? खेलति रहति आपनी पौरी
- सुनति रहति श्रवनन नंद ढोटा करत रहत माखन दधि चोरी । '
बाल क्रीड़ा के सखी - सखा आगे चलकर यौवन - क्रीड़ा के सखी - सखा बन जाते हैं । यही कारण है कि गोपियाँ उद्धव से स्पष्ट कह देती हैं
लरिकाईको प्रेम कहो अलि , कैसे छूटे ? "
सूर का यह संयोग वर्णन लम्बी - चौड़ी प्रेम चर्चा है जिसमें आनन्दोल्लास के न जाने कितने स्वरूपों का विधान है । रासलीला , दान - लीला आदि सब इसके अन्तर्भूत है । कृष्ण अलौकिक सौन्दर्य के समाट हैं , उनका अंग - प्रत्यंग आकर्षक है । कृष्ण के चंचल नेत्र तो गोपियों के आकर्षण का विषय है
- " देखि , री । हरि के चंचल नैन ।
- खंजन मीन मृगज चपलाई नहिं पटतर एक सैन । "
राधा - कृष्ण का प्रेम शनैशनैः विकसित होता है । आपसी छेड़छाड़ , हास - परिहास में वे लीन रहने लगते हैं । एक दिन गाय दुहते समय कृष्ण को मजाक सूझा और अति अनुराग में वे ठिठोली करने लगे
- " धेनु दुहत अतिहि रति बाढी ।
- एक धार मथनी पहुंचावत एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी । "
" राधिका ने भी इस ठिठोली का प्रत्युत्तर दिया
- तुम पै कौन दुहावे गैया ।
- इत चितवत , उत धार चलावत एहि सिखायी मैया । "
कृष्ण की दान लीला भी आनन्दित करने वाली हैं । वे समस्त गोपियों से गोरस का दान माँगते हैं । गोपियाँ भी गूढार्थ से परिचित हैं , अत : कहती हैं
- " ऐसो दान मांगिये नहिं जौ , हम पै दियो न जाइ ।
- बन मैं पाइ अकेली जुवतिनि मारग रोकत धाइ ।
- हम जानतिं तुम यौँ नहिं रहिही , रहिही गारी खाइ ।
- जो रस चाहो , सो रस नाही , गोरस पियौ अघाइ । "
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार , " सुर का संयोग वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है , प्रेम - संगीतमय जीवन की गहरी चलती धारा है , जिसमें अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता | राधा - कृष्ण के रंग रहस्य के इतने प्रकार के चित्र सामने आते हैं कि सूर का हृदय प्रेम की नाना उमंगों का अक्षय भंडार प्रतीत होता है । " सूरदास ने राधा को स्वकीया के रूप में चित्रित किया है | वसन्त , फागुन , होली , जल क्रीड़ा आदि अनेक लीलाओं में राधा - कृष्ण भाग लेते हैं और गोपियाँ उनका दर्शन कर आनन्दित होती रहती हैं
" आजु हरि अदभूत रास रचायौ ।
सुर के काव्य में संयोग श्रृंगार के न जाने कितने ऐसे क्षण हैं जिनमें इन लीलाओं का वर्णन किया है । जहां सुर संयोग द्वारा प्रेम को प्रकट करते हैं वहीं विरह द्वारा प्रेम के परिपुष्ट होने की बात को सूर ने इस प्रकार व्यक्त किया है
- उधौ विरही प्रेम करै ।
- ज्यों बिनु पुट पर गहै न रंगहि पुट गहै रसहि परै ।
काव्यशास्त्र के अनुसार वियोग की चार अवस्थाएँ होती हैं पूर्वराग मान , प्रवास और मरण । यद्यपि सूर के काव्य में सभी अवस्थाओं का चित्रण मिलता है , तथापि उन्होंने प्रवास - वियोग का ही अधिक वर्णन किया है । प्रवास विरह कृष्ण के मथुरागमन से प्रारम्भ होता है । कृष्ण नहीं लौटे और उनके बिना गोपियों के तन की सभी बातें बदल गई
- " मदन गोपाल बिना या तन की सबै बात बदली । "
गोपियाँ रात - दिन कृष्ण की स्मृतियों में लीन रहती हैं –
- " हमको सपने हूँ में सोच ।
- जा दिन तें बिछुरे नंदनंदन , ता दिन ते यह पोच |
- मनु गोपाल आए मेरे गृह हँसि करि भुजा गही ।
- कहा कहाँ बैरिन भई निद्रा , निमिष न और रही । "
जो प्रकृति संयोगावस्था में आनन्द देने वाली होती है , वियोगावस्था में वही दुःखदायी हो जाती है । प्रकृति के इसी उद्दीपन रूप को सूरदास ने गोपियों के विरह को उद्दीप्त करने के लिए प्रचुरता से स्वीकार किया है । संयोगावस्था में मित्र बनी रहने वाली कुंजे वियोगावस्था में बैरिन वन गई है , शीतल लगने वाली लताएँ विषम ज्वाला के पुंज वन गई हैं
- " बिनु गुपाल बैरिनि भई कुंज ।
- तब वै लता लगति अति सीतल , अब भई विषम ज्वाल की पुंज ।
- वृथा बहति जमुना , खग बोलत , वृथा कमल फूलति अलि गूंजें । "
वियोगिनी गोपियाँ अपने उजड़े नीरस जीवन से मेल न खाने के कारण वृन्दावन के हरे भरे पेड़ों को भी कोसती हैं
- " मधुवना तुम कत रहत हरे ?
- विरह - वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे । "
इसी प्रकार रात उन्हें सांपिन - सी लगती हैं
" पिया बिनु सांपिन कारी राति । "
सूर ने सहज चापल्य एवं व्यंग्य - विनोद की शीतल लहरों के अन्तर्गत वियोग की बडवाग्नि का सहज चित्र अंकित किया है । निस्संदेह सूर की विरहिणी गोपियाँ तपस्विनी हैं , क्योंकि वियोगाग्नि के अन्तर्गत उनकी समस्त इन्द्रिय - जन्य लालसायें एवं वासनायें नष्ट हो चुकी हैं और उनका कृष्ण - प्रेम कुंदन की भांति निखर आया है । सारतः सुर ने श्रृंगार के दोनों रूपों संयोग व वियोग का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है ।
प्राकृतिक वर्णन
सूर - काव्य की रचना प्रकृति के विराट क्षेत्र में हुई । इसी की ओर संकेत करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है “वृन्दावन में कृष्ण और गोपियों का सम्पूर्ण जीवन क्रीड़ामय है और वह सम्पूर्ण क्रीड़ा संयोग - पक्ष है । उसके अन्तर्गत विभावों की परिपूर्णता राधा के अंग - अंग की शोभा के अत्यन्त प्रचुर और चमत्कारपूर्ण वर्णन में तथा वृन्दावन के करील कुंजों , सलोनी लताओं , हरे भरे कछारों , खिली हुई - चाँदनी , कोकिल - कूजन आदि में देखी जाती है । " सूरकाव्य में प्रकृति चित्रण का वैविध्य देखने को मिलता है । महाकवि सूर ने प्रकृति का आलम्बन रूप में चित्रण अनेक पर किया है , जैसे –
- सीतल बूंद पवन पुरवाई ।
- जहाँ - तहाँ तैं उमड़ि - घुमड़ि घन कारी घटा चहुँ दिसि धाई ।
- भीजत देखी राधा माधव , लैं कारी कामरी उड़ाई ।
- अति जल भीजि चीखर टपकत और सबै टपकत अंबराई ।
उद्दीपन रूप में प्रकृति हमारे सुखात्मक एवं दुखात्मक भावों को उद्दीप्त करती हुई प्रतीत होती है | प्रकृति के चितेरे सूर ने संयोग के चित्रों में प्रकृति के विभिन्न रमणीय चित्रों की आकर्षक योजना की है
- " आजु निसि सोभित सरद सुहाई ।
- सीतल मंद सुगंध पवन बहै , रोम - रोम सुखदाई ।
- जमुना पुलिन पुनीत परम रुचि , रचि मंडली बनाई ।
- राधा वाम अंग पर कर धरि , मध्यहिं कुंवर कन्हाई । "
किन्तु वियोग काल में प्रकृति का यही वैभव वेदना को घनीभूत कर देता है । कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों का हृदय वेदना से व्यथित हो उठता और पावस ऋतु दादुर मोर , मधुप , पिक का बोलना , बादल का गरजना गोपियों के हृदय में टीस उत्पन्न करता है
- " ये दिन रूसिबे के नाहीं ।
- कारी घटा पौन झकझोरे , लता तस्न लपटाहीं ।
- दादुर मोर चकोर मधुप पिक बोलत अमृत बानी ।
- " सूरदास " प्रभु तुम्हरे दरस बिनु बैरिनि रितु नियरानी ।
स्वयं कृष्ण भी ब्रज क्रीड़ाओं का स्मरण करते हुए कहते हैं
- " उधो " मोहि ब्रज विसरत नाहीं ।
- हंस सुता की सुंदर कगरी अरू कुंजन की छांही ।
- वै सुरमी वै बच्छ दोहिनी खरिक दुहावन जाही ।
कृष्ण के वियोग में लता - कुंज सुख गये हैं , मुरझा गये हैं । लताओं की शीतलता अब दाहक वन गई है
- " बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजै ।
- तब ये लता लगति अति सीतल , अब भई विषम ज्वाल की पुंजै । "
सारतः सुरकाव्य में प्रकृति का सागर हिलोरे ले रहा है जिसमें असंख्य भाव - रत्न छिपे हुए हैं । सूर का प्रकृति चित्रण हृदय को आंदोलित कर देता है । उनकी उपमाओं की ताजगी , उत्प्रेक्षाओं की विचित्रता , और रूपकों की नवीनता तो अवर्णनीय है । सूर का प्रकृति वर्णन अन्य भक्त कवियों की अपेक्षा अधिक व्यापक , मौलिक , और विविधता से युक्त है ।
लोक जीवन का चित्रण
सूरसागर में ब्रज का लोक - जीवन अपने साकार रूप में उपस्थित हुआ है । सूरदास वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे | उन्होंने अपनी रचनाओं में ब्रज - संस्कृति को पूर्ण रूपेण प्रतिफलित किया है । हिन्दू धर्म में संस्कारों का विशेष महत्व है । सूर ने इन संस्कारों के वर्णन में ब्रज - संस्कृति का मनोहर रूप प्रस्तुत किया है ।
पुत्र जन्म - संस्कार - आर्य संस्कृति में आदिकाल से ही पुत्र जन्म का विशेष महत्त्व रहा है । यशोदा नन्द से कहती हैं
" आवहु कन्त , देव परसन भये , पुत्र भयो , मुख देखी धाई । "
नन्द दौड़कर आते हैं । पुत्र का मुख देखते हैं । सूरदास पुत्र जन्म की खुशियों में ब्रजवासियों के साथ सम्मिलित होकर बधाई देते हैं
- " हाँ इक नई बात सुनि आई ।
- महरि जसोदा ढोटा जायौ , घर - घर होत बधाई ।
- द्वारे भीर गोप - गोपिन की , महिमा बरनि न जाई । "
सूर ने पुत्र जन्म के अवसर पर होने वाले अनेक आचार - व्यवहार , मंगलगीत , बधाइयाँ , नाल छेदन , बंदनवार , हल्दी - दही छिड़कना , वेद ध्वनि , ब्राह्मणों को तिलक करना , द्वार पर स्वस्तिक चिहन बनाना आदि का वर्णन किया है ।
छठी संस्कार - पुत्र जन्म के पश्चात छठी के दिन मालिन बन्दनवार बाँधकर केला लगाती है । सुनार हीरा जड़ित स्वर्णहार लाता है , नाइन महावर लाती है , दाई को लाख टका , झूमक और साड़ी देते हैं , बढ़ई पालना लाता है तथा जाति - पाँति की पहिरावनी करके पुत्र को काजल लगाते हैं । इस प्रकार सूर ने छठी उत्सव का आकर्षक चित्रण किया है ।
नामकरण संस्कार - बालक का नामकरण आर्य संस्कारों में विशेष महत्त्व रखता है । सूर ने कृष्ण के नामकरण संस्कार में विप्र , चारण , बन्दीजनों के आगमन एवं ज्योतिषी वर्ग द्वारा जन्मपत्रिका बनवाकर इस संस्कार का वर्णन किया है ।
- " आदि ज्योतिष तुम रै घर को पुत्र जन्म सुनि आयी ।
- लागन सौघि जब ज्योतिष गणि के चाहत ही तुम्ही सुनायौ । "
अन्नप्राशन संस्कार - जब कृष्ण छः मास के हो जाते हैं , तब उनका अन्नप्राशन संस्कार विधिपूर्वक किया जाता है
- " कुँवर कान्ह की करहु पासनी , कछु दिन घटि पट मास गए ।
- नन्द महर यह सुनि पुलकित जिय , हरि अनप्रासन जोग भए । "
गोप - गोपियाँ एकत्र होकर मंगल - गीत गाते हैं । नन्द स्वर्ण थाल में घृतमधु मिली खीर लाते हैं और यह खीर बाल कृष्ण को खिलाई जाती है । तदुपरान्त ज्योनार होती है ।
कर्ण - छेदन - सूर ने कृष्ण के कर्णछेदन के अवसर का विषद् वर्णन किया है । इस अवसर पर कृष्ण पीत झगुली , सिर पर कुलही मणिजटित व्याध - नख से संयुक्त कंठश्री , किंकिणी बाहुभूषण आदि धारण करते हैं । कनछेदन संस्कार के समय सूर उल्लासपूर्वक कहते हैं
- " कान् कुँवर को कनछेदनों हैं , हाथ सुराही भेली गुर की ।
- विधि विहंसत हरि हँसत हेरि यशुमति के धुकधुकी उर की । "
यज्ञोपवीत संस्कार - सूर ने कृष्ण और बलराम के यज्ञोपवीत संस्कार का वर्णन भी किया है । इस अवसर पर षटरस ज्यौनार होती है तथा गर्ग ऋषि कृष्ण को गायत्री मन्त्र का उपदेश देते हैं । ब्राहमणों को इस अवसर पर गायों का दान दिया जाता है । स्त्रियाँ मंगलगान करती हैं और यशोदा न्यौछावर करती हैं ।
संस्कारों के वर्णन कि तरह ही सुर ने अन्य त्योहारों का वर्ण करते हुये भी लोक संस्कृति को जीवित किया है जैसे अन्नकूट महोत्सव - ब्रजवासी दीपावली के पश्चात् अन्नकूट उत्सव धूमधाम से मनाते हैं यह त्योहार ब्रज में वार्षिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है । इस दिन इन्द्र की पूजा की जाती है और व्यंजन बनाकर खुशियाँ मनाई जाती है इसका वर्णन भी सूरदास ने कई स्थानों पर किया है ।
परिधान और श्रृंगार - सूर ने अनेक पदों में ब्रजवासियों के आभूषणों और परिधानों का सुन्दर चित्रण किया है । बृजांगनाएँ रंग - बिरंगे वस्त्रों तथा आभूषणों से सौन्दर्य वृद्धि करने में चतुर थी महाकवि सूर ने राधा की साज - सज्जा का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है
- " कंठ सिरि उर पदिक बिराजत गजमोतिन को हार |
- रत्न जटित गजर बाजूबंद सोभा भुजनि अपार ।
- छीन लंक कटि किंकिनि की धुनि बाजत अति झनकार |
- छिटकी रहाँ महँगा रंग तनसुख सारी तन सुकुमार ।
- सूर सुअंग सुगन्ध समूहनि मवर करन गुंजार । "
सारतः ब्रज संस्कृति का यह सुन्दर दिग्दर्शन सूर - साहित्य में सर्वत्र वर्णित है । कवि जिस वातावरण में विकसित होता है उससे वह विलग नहीं हो पाता | दिव्यचक्षु होते हुए भी महाकवि सूर ने ब्रज प्रदेश में प्रचलित उन सभी मान्यताओं . परम्पराओं , प्रयासों और त्यौहारों का वर्णन करना अपना कर्तव्य समझा जो उस समय ब्रज अंचल में प्रचलित थी । इसीलिए हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता आज तक सुरक्षित रही है | सूर का काव्य सचमुच लोक जीवन का अनूठा प्रतिबिम्ब है ।
शिल्प सौंदर्य
सूरदास का सम्पूर्ण काव्य भाव - राशि का एक विशाल महासागर है , जिसमें नहरों की उँचाई तथा जल की अतल गहराई के समान काव्यानन्द की मुक्तामणियों को संग्रहीत कर मुटाने की उदार प्रवृत्ति है । काव्य मानव जीवन को आनन्दित , उल्लसित और प्रभावित करता है । जिस काव्य में भावपक्ष के उन्नत होने के साथ कलात्मक दृष्टि से भी सौन्दर्य का आकर्षक आयोजन हो , वही काव्य लोक के हृदय का हाल बताने की क्षमता रखता है । सूरदास का काव्य एक और भावों की सहजता , सरसता और मुक्त वेग का उमड़ता स्त्रोत है , तो दूसरी ओर उसमें काव्य - कला का सौन्दर्य भी उत्कर्ष तक पहुंचा हुआ है ।
छन्द-अलंकार
सूर ने मात्रिक , वर्णिक और मिश्रित सभी प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है , फिर भी उनमें मात्रिक छन्दों का ही आधिक्य देखने को मिलता है । सूरसागर के आधार पर कहा जा सकता है कि सूर का छन्द ज्ञान अपरिमित था और इनका छन्द प्रयोग विलक्षण था । सूरसागर में तोमर , चौपाई , पद्धरि , कुंडली , सस आदि सम छन्दों का तो दोहा आदि अर्द्धसम छन्दों का प्रयोग हुआ है । लीला तोमर , चौबोला + चौपई , चौपड़ + चौपई आदि मिश्र छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं । यहाँ छन्दों के उदाहरण दृष्टव्य हैं –
- " द्वारै पैठत गयन्द मारि , धनि डारयो ।
- मुष्टिक चानूर मल्ल , मूसल सहारयो ।
- जिहि जैसी जिय विचारि , तैसी रूप धारयो ।
- देवकी वसुदेव को सन्ताप निवारयो । " - कुण्डल छन्द
- " मारे सब मल्ल नन्द के कुमार दोऊ ।
- कौंड सबनि भूलगए , हांक देत यकृत भए ।
- लपक लपक सबै हए , उबरयौ नहिं को । " - हरिप्रिया छन्द
सूरदास केवल छन्द प्रयोक्ता ही नहीं थे , वरन् छन्दों के निर्माता भी थे । संगीतज्ञ होने के कारण उनकी लय - चेतना बड़ी तीव्र थी । जिसकी लय चेतना जितनी तीव्र होगी , वह नवीन छन्दों के निर्माण में उतना ही कृतकार्य होगा ।
सूर ने अपने काव्य में भावों की जो अपूर्व सरिता प्रवाहित की है , उसमें अलंकारों के विविध सौन्दर्य - बिन्दु दिखाई देते हैं । इस काव्य में शब्दालंकार व अर्थालंकार का प्राचुर्य देखने को मिलता है । रूपक , उपमा , उत्प्रेक्षा , अतिशयोक्ति , विरोधाभास , विभावना , विशेषोक्ति , दृष्टान्त , अन्योक्ति , श्लेष आदि विभिन्न अलंकार सूरसागर में मणियों के समान बिखर गए हैं ।
- " पूरनता इन नयन न पूरी ।
- तुम जो कहत श्रवननि सुनि समझते , ये याही दुख मरति बिसूरी -अनुप्रास
- लोचन जल कागद - मसि मिलि के ,
- हवै गई स्याम - स्याम की पाती । -यमक
- ऊधो ! यह मन और न होय ।
- पहिले ही चढ़ि रहयो स्याम रंग छुटत न देखत धोय । " -श्लेष
" ज्यों जल माह तेल की गागरि बूंद न ताके लागी । " -उपमा
- अबकै राखि लेहु भगवान |
- हौं अनाथ बैठ्यो दुम डरिया पारथि साधे बान ।
- ताके हर मैं भाज्यौ चाहत , उपर तुक्यौ सचान । " - सांगरूपक
- " चरन कमल बन्दी हरिराई ।
- आकी कृपा पंगु गिरि संघे , अंधे को सब कुछ दरसाई । " -विरोधाभाष
- " काहे को गोपीनाथ कहावत ।
- जो मधुकर वै स्याम हमारे , क्यों न इहाँ लौ आवत । " -वक्रोक्ति
कवि सूर ने सभी प्रकार के अलंकारों का भावपूर्ण प्रयोग अपने काव्य में किया है । डॉ . हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में , " सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं , तो मानों अलंकार शास्त्र उनके पीछे - पीछे दौड़ा करता है । उपमाओं की बाढ़ आ जाती है , रूपकों की वर्षा होने लगती है । "
गीतितत्त्व
सूरसागर एक गीतिकाव्य है । उसमें गीतिकाव्य के समस्त छः तत्त्व मिलते हैं । सूरदास भक्त कवि थे और अपनी भक्ति भावनाओं को गा गाकर श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते थे । इसीलिए इनके काव्य में संगीतात्मकता , आत्माभिव्यंजना , भावान्विति , सहज , अन्तःप्रेरणा , स्वाभाविकता और सुकोमलता मिलती है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार , " सूरसागर ' में कोई राग या रागिनी , छूटी न होगी । इससे वह संगीत प्रेमियों के लिए भी बड़ा भारी खजाना है । " सुकोमल भाषा से युक्त यह पद दृष्टव्य है ।
- " सोभित कर नवनीत लिए ।
- घुटुरन चलत रेनु - तन मंडित , मुख दीघ लेप किये ।
- चारू कपोल , लोल - लोचन , गोरोचन तिलक दिए । "
सूरदास का गीति काव्य भारतीय वाङ्मय की विशाल एवं समद्ध गीति काव्य की परम्परा का वह उज्जलतम रत्न है , जो सम्पूर्ण गीति परम्परा को अपनी अपूर्व कान्ति से दीप्त कर रहा है ।
भाषा
कवि की समस्त काव्य - कला का मूल आधार भाषा की समृद्धि ही होता है । श्रेष्ठ काव्यकार भाषा को अपनी अनुभूतियों के अनुसार ढालता है , जिससे कथ्य की सम्प्रेषण - शक्ति कई गुना बढ़ जाती है । महाकवि सूर ने अपने इष्टदेव कृष्ण की विहार - स्थली ब्रजभूमि की भाषा को ही अपने काव्य की भाषा बनाया । ब्रज भाषा को सूर ने साहित्यिक प्रौढ़ता प्रदान की । यही कारण है कि सूरदास को ब्रजभाषा का वाल्मीकि तथा हिन्दी साहित्याकाश का सूर्य कहा जाता है । सूर की वाणी का स्पर्श पाकर ही ब्रज भाषा सम्पूर्ण मध्यकाल में साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई । सूर की भाषा में कोमलकांत पदावली , भावानुकूल शब्द योजना , प्रवाहमयता , अपूर्व संगीतात्मकता , सजीवता और प्राणवत्ता के साथ - साथ चिरपरिचित उपमानों और मुहावरों लोकोक्तियों का सुन्दर - सरस आयोजन हुआ है । सूर की भाषा में संस्कृत के कर्णकटु तथा संयुक्त व्यंजनों वाले शब्दों में साधारण लोकगीतों का प्रवाह और दृष्टिकूटों की विद्वज्जन - योग्य चमत्कार वृत्ति निहित है ।
लोकोक्तियां एवं मुहावरे
लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे भाषा की प्राणशक्ति को बढ़ा देते हैं तथा उनके प्रयोग से काव्य में प्रौढ़ता और प्रवाहमयता आ जाती है । लोकोक्तियों एवं मुहावरे मानव - मात्र के संचित अनुभवों का सार हैं । सूर ने लोकोक्तियों के प्रयोग से काव्य को प्रभावशाली बनाया है ।
- " अपने स्वार्थ के सब कोउ ।
- चुप करि रही मधुप रस लम्पट , तुम देखे अरू ओऊ । '
इसी प्रकार कवि ने एक डार के तोरे , निपट दई को खोयो , धूम के हाथी , हाथ बिकानी बोहित के खग आदि विविध मुहावरों के प्रयोग द्वारा भाषा में सौष्ठव वृद्धि की है ।
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