साखी विरह कौ अंग Virah ko Ang

साखी
विरह कौ अंग 
Virah ko Ang

साखी विरह कौ अंग Virah ko Ang

डॉ श्यामसुन्दर दास द्वारा संकलित कबीर ग्रन्थावली के ' विरह कौ अंग " में उन साखियों को स्थान मिला है , जिनमें विरह की तीव्रतम अनुभूति प्रकट की गई है । सामान्यतः जीव अपने आप को पूर्ण मानता है । परन्तु एक स्थिति ऐसी भी आती है , जब वह अपने को अपूर्ण अनुभव करने लगता है । ऐसी स्थिति में जीव पूर्णता के लिए आतुर हो उठता है । अंश अंशी से मिलने के लिए व्याकुल हो उठता है । जीव की ऐसी व्याकुलता ही विरह - स्थिति कहलाती है । विरह का अर्थ है - विशेष रूप से दडित होने की स्थिति । जब जीव के हृदय में ऐसी तड़फ तीव होती है , तो उसकी विरहानुभूतियाँ काव्यात्मक बन जाती है । ऐसी अनुभूतियों का वर्णन ही प्रस्तुत अंग में किया गया है । यहाँ जीव को विरहिणी नायिका माना गया है । 

राती रूनी विरहिनी , ज्यूँ बंची कू कुंज । कबीर अंतर प्रजलया , प्रगटया विरह पुंज।।1।। 

भावार्थ 

यहां जीव की उपमा विरहिणी से दी गई हैं विरहिणी अपने प्रिय के वियोग में रात भर उसी प्रकार रोती रही , जैसे कौंच पक्षी अपने प्रिय के वियोग में रोता है । कबीर कहते हैं कि विरह रूपी अग्नि पुंज अपने भीतर उमड़ उठा है । अर्थात् विरह वेदना जग उठी है ।

अंबर कुंजी कुरलियाँ , गर्राज भरे सब ताल । जिनि ते गोविंद बिघुटे , तिनके कोण हवाल ।।2।।

भावार्थ 

आकाश में क्राँच पक्षी अपनी प्रिया की विरह वेदना से रो रहा है । उसके अश्रु से धरती के सारे सरोवर भर गए , कदाचित मेघों ने भी उसकी वेदना में सहानूभुति दिखाई । जब केवल एक रात्रि के वियोग से एक पक्षी की यह अवस्था हो जाती है तो उस जीव का क्या हाल होगा , जो अनेक जन्मों से परमात्मा से अलग है ।

चकवी बिछुटी रेणि की , आइ मिली परभाति । जे जन विछुटे राम सैं , से दिन मिले न राति।।3 ।। 

भावार्थ

कबीरदास जी कहते हैं कि चकवी अपने जोड़े से रात को बिछुड़ जाती है , वेदना से रात भर कराहती है , किन्तु सवेरे अपने प्रिय से मिलकर आनन्दित भी होती है । परन्तु मनुष्य वासनाओं में लिप्त रहने के कारण परमात्मा से सदा के लिये अलग हो जाते है । उस में परमात्मा से वियोग की वेदना भी नहीं होती । इसलिए उस का परमात्मा से कभी भी संयोग नहीं होता । 

बासुरि सुख नौ रेणि ना सुख सुपिने माहि । कबीर बिछुट्या राम , नाँ सुख धूप न छौंह।।4।। 

भावार्थ 

कबीर जी कहते हैं जीव राम का ही अंश है इसलिए उसे तब तक चेन नहीं मिलता जब तक वह राम में नहीं मिल जाता । और राम के विरह में तड़फती जीव की आत्मा को न दिन में चैन मिलता है न रात में । उसे स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता । जीव धूप और छाया दोनों में तड़फता रहता है । वह इधर - उधर सुख तलाशता है परन्तु उसे हर जगह दुख ही मिलता है । अतः उसे असली सुख राम से मिलाप में ही मिल सकता है । 

बिरहनि कभी पंथ सिरि , पंथी बूझै धाइ । एक सबद कहि पीव का , कब रे मिलेंगे आइ।।5।।

भावार्थ

कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे विरहिणी रास्ते के छोर ( किनारे ) पर खड़ी हो प्रत्येक पथिक से अपने प्रियतम का संदेश मांगती है । उसी प्रकार जीव प्रभु के विरह से व्याकुल संसार रूपी पंथ पर खड़ा हुए प्रत्येक साधक से अपने प्रियतम राम के बारे में पूछता है । कि वह कब मुझसे आकर मिलेंगे । 

बहुत दिनन की जोबती , बाट तुम्हारी राम । जिव तरसै तुझ मिलन को , मन नाहीं विश्राम।।6।।

भावार्थ

प्रत्येक मनुष्य को अपने मूल परमात्मा राम से बिछुड़ने पर एक विचित्र अभाव अनुभव होता है । इसलिए उसे विरह की वेदना में तडफना पड़ता है और इसी तड़फ में वह प्रभु से कहता है हे राम ! आपकी प्रतीक्षा में मैने कितने ही दिन बिता दिये । मैं रास्ते में बैठकर आपका इन्तजार कर रहा हूँ । आप से मिलने के लिए मन तरस रहा है और मन को किसी प्रकार से शांति नहीं मिल रही ।

विरहिन ऊठे थी पड़े दरसन कारनि राम । मूवां पीछे देहुगे , सो दरसन किहि काम ।।7।।

भावार्थ

कबीर जी कहते हैं हे राम तुम्हारे वियोग में पड़ी जीव आत्मा तुम्हारे दर्शन के लिए उठती है । परन्तु दुर्बलता के कारण फिर गिर पड़ती है । यह तुम्हारे दर्शन के लिए व्याकुल है । इसलिए यदि तुम उसके मरने के बाद दर्शन दोगे तो उस का क्या लाभ होगा ।

मुवाँ जिनि मिले , कहै कबीरा राम । पाथर घाटा लोह सब , ( तव ) पारस कोणे काम।।8।। 

भावार्थ

कबीर कहते है हे राम ! मरने के बाद आप दर्शन देने न पहुंचे , क्योंकि विरह रूपी पत्थर ने शरीर रूपी सम्पूर्ण लोहे समाप्त ही कर दिया है तो पारस रूपी आप आकर क्या करेंगे ? यदि आप मिलने भी आयेंगे तो कोई लाभ नहीं क्योंकि आपसे मिलने का इच्छुक तो केवल मांस का ढेर हो चुका होगा । इसलिए हे प्रभु ! इस जीवन में ही अपने दर्शन देने की कृपा करें 

अंदेसड़ा न भाजिसी , सन्देसो कहियां ।  कै हरि आपां भाजिसी , कै हरि ही पसि गयौ ।।9।।

भावार्थ

कबीर जी कहते है हे राम ! केवल संदेश प्राप्त होने से दुःख समाप्त नहीं होता । यह तो तभी समाप्त होता है जब हरि ही आ जायें या भक्त ही उनके पास चला जाए । भाव जीव का विरह दुख केवल प्रभु के दर्शन से ही समाप्त हो सकता है ।

आई न सकी तुझ , सकै न तुझ बुलाइ । जियरा यौही लेहुगे , विरह तपाइ तपाइ।।10।।

भावार्थ 

कबीर जी कहते है हे प्रभु ! मेरे में यह सामर्थ्य नहीं कि मैं तुम तक पहुँच सकूँ और न ही यह शक्ति है कि मैं तुम्हें अपने पास बुला सकू । ऐसी स्थिति में ऐसा लगता है कि आप विरह की अग्नि में तपा - तपा कर मेरे प्राण हर लोगे । 

तन जालौं मसि करूँ , ज्यूँ धुँवा जाइ सरग्गि । मति वै राम दया करे , बरहि बुझावै अग्गि।।11।। 

भावार्थ 

कबीर जी कहते है साधक जब प्रभु विरह में तड़प - तड़प कर दुःखी हो जाता है तो वह कहता है हे प्रभु ! अब मैं थक चुका हूँ और अपने इस शरीर को जला कर भस्म कर रहा हूँ । इसका धुँआ स्वर्ग तक जायगा । संभव है उस धुंए को देख प्रभु दया करे और दर्शन रूपी वर्षा कर इस विरह अग्नि को बुझा दे ।

यह तन जाली मसि करी , लिखौं राम का ना। । लेखणि करूं करंक की , लिखि लिखि राम पठाऊँ।।12।।

भावार्थ

हे प्रभु ! आप को बुलाने का मेरा हर प्रत्यन असफल हो चुका है । अब तो यही मार्ग शेष है कि मैं अपने शरीर को जलाकर उससे स्याही बना लूं और हड्डियों की लेखनी हाथ में लेकर केवल आपका नाम ही लिख - लिख भेजती रहूँ । ताकि आप समझ , सके कि मेरी क्या दशा है ।

कबीर पीर पिरावनी , पंजर पीक न जाइ । एक जु पीड़ परीति की , रही कलेजा छाइ।।13।। 

भावार्थ

कबीर कहते हैं कि कोई भी पीड़ा कष्टकारक होती है और जल्दी न जाकर शरीर को पीढ़ित करती है । परन्तु सबसे अलग पीडा प्रेम की होती है जो हवय के अन्दर तक छा जाती है । 

चौट सतौणी बिरह की , सब तन जरजर होई मारणहारा जोणिह , कै जिहिं लागी सोई।।14।। 

भावार्थ

कबीर जी कहते हैं कि साधक को जब विरह की गहरी चोट लगती है तो उस का सारा शरीर जर्जर हो जाता है परन्तु उस समय जो पीड़ा होती है उसका अनुमान केवल वह साधक या चोट देने वाले भगवान ही जानते है । यह दर्द प्रेम की चरम सीमा पर पहुँच कर ही होता है और इस का रहस्य प्रभु और साधक के अलावा और कोई नहीं जान सकता ।

कर कमाण सर साँधि करि , बँघि जुमारया माँहि । भीतरि भिद्या सुमार , जीव कि जीव नाहि।।15।।

भावार्थ

कबीर जी कहते हैं प्रभु ने हाथ में धनुष लेकर तीर का निशाना साधकर हृदय में जो चोट की है , वह सफल निशाना मर्म में समा गया है । इस चोट के बाद साधक जियेगा या नहीं इसमें सन्दहे है अर्थात् चोट के बाद बचना कठिन है ।

जबहूँ मारया लैचि करि , तब मैं पाई जाणि । लागी चोट मरम्म की , गई कलेजा घाँणि।।16।।

भावार्थ

साधक कहता है जब हरि ने कुशल धनुर्धर के समान पूरी शक्ति से विरह का बाण मारा , तभी मैं उस की पीड़ा का अनुभव कर सका यह चोट मर्म भेदी है और कले को छेदकर आरपार हो गयी है ।

जिहि सरि मारी काल्हि सो सर मेरे मन बस्या । तिहि सरि अजहूँ मारि , सर बिन सच पाऊँ नहीं ।।17।। 

भावार्थ

साधक कहता है कि अब विरह पीड़ा में भी उसे आनन्द मिलने लगा है । अतः हे प्रभु ! आपने कल जो प्रेम बाण मारा था वह मेरे रोम - रोम में बस चुका है । अब मेरे हृदय उस प्रेम बाण बिना शान्ति नहीं पाता इसलिए आप इसी बाण को फिर मारिये । ताकि मेरे अन्दर विरह - वेदना बनी रहे । अब उसके बिना मुझे सुख - चैन नहीं मिल सकता ।

बिरह भुवंगम तन बस , मंत्र न लागै कोइ । राम वियोगी ना जिवै , जिवै तबीरा होई || 18 ||

भावार्थ

विरह रूपी सर्प शरीर में बसा है । उसे बाहर निकालने के लिए सारे प्रयुक्त मंत्र असफल हो चुके है । राम का वियोगी या तो जीता नहीं अगर जीता है तो संसार की दृष्टि में पागल सा होकर जीता है । अर्थात् उस की संसार के प्रति कोई आसक्ति नहीं रह जाती ।

विरह भुवंगम पैसि करि , किया कलेज धाव । साधू अंग न मोडही , ज्यूँ भावै तयू खाय।।19 ।। 

भावार्थ

कबीर जी कहते हैं कि हरि - विरह का सर्प हृदय में पहुँचकर गहरा धाव कर चुका है । फिर भी सच्चे साधक नहीं घबराते । न ही कभी मुड़ते हैं । वे अपने को समर्पित कर देते हैं और वह जैसे चाहे उसे खाता रहे । भक्त विरह से अलग नहीं होना चाहता । जैस - जैसे विरह - अग्नि बढ़ती है वैसे - वैसे ही प्रभु मिलन की उत्सुकता बढ़ती जाती है । और अन्त में भक्त प्रभु को पा लेता है ।

सब रंग तंत रबाब तन , विरह बजावै नित्त । और न कोई सुणि सके , के साई के चित्त।।20 ।।

भावार्थ 

साधक का शरीर विरह में रबाब वाध जैसा हो जाता है । उसकी सारी रगें तन्त्रियों जैसे होती है । विरह उसे नित्य बजाता रहता है । परन्तु उस धुन को कोई और नहीं सुन सकता । उसे या तो प्रभु या साधक खुद ही सुन पाता है ।

बिरहा बुरहा जिनि कही , विरहा है सुलितान । जिह घटि विरह न संचर , सो घट सदा मसान।।21।।

भावार्थ

कबीर जी कहते हैं विरह को बुरा मत कहो । विरह तुच्छ नहीं है श्रेष्ठ है । जिस शरीर में विरह का संचार नहीं है वह तो श्मशान के समान है । 

आंखड़लयां झाईं पड़ी , पंथ निहारि निहारि । जीभडल्यां छाला पड़या , राम पुकारि पुकारि।।22 ।।

भावार्थ 

हे प्रभु । तुम्हारी प्रतिक्षा करते करते आँखों में अंधेरा छा गया अर्थात् दृष्टि मंद पड़ने लगी है । तुम्हारा नाम पुकारते पुकारते जीभ पर भी छाले पड़ गए है । पर दुःख है , तुम्हारा दर्शन अब तक नहीं हुआ । 

इस तन का दीवा करौं , बाती मेल्यूं जीव । लोही सींची तेल ज्यू , कब मुख देखी पीव ।।। 23 ।।

भावार्थ

कबीर जी कहते हैं कि अपने प्रिय राम का मुख देखने के लिए शरीर का दीपक और जीव को बत्ती बनाना चाहता हूँ । उसमें रक्त रूपी तेल डालना चाहता हूँ । ऐसे दीपक के प्रकाश से अज्ञानांधकार दूर कर प्रियतम परमात्मा का मुख देखूंगा ।

नैनों नीझर लाइया , रहट बह निस जाम । पपीहा जयूँ पिव पिव करौं , कबरु मिलहुगे राम।।24 ।। 

भावार्थ

आंखों से झरने के समान आंसुओं की अविरल धारा बहती रहती है । रात दिन लगातार उमड - उमड़ आंसू का प्रवाह उसी प्रकार चलता रहता है जिस प्रकार से रहट से जल का अजस्त्र निष्क्रमण होता रहता है । पपीह के समान में अपने प्रिय से मिलने के लिए पिउ पिउ करता रहता है । 

आंखड़लयां प्रेम कसाइयाँ , लोग जाँणे दुखड़ियों । साँई अपर्ण कारण रोइ रोइ रतड़ियो।।25 ।। 

भावार्थ 

विरह के कारण साधक की आँखें लाल हो गई है । लोगों समझते हैं कि आखे आ गई हैं या दुःख रही है । हे स्वामी , आपके कारण ही रो - रोकर आंखे लाल हो गई है । 

सोई आंसू सजणां , सोई लोक विडाहि । जे लोइण लोही चुवै , तो जाणो हेतु हिपहि।।26।। 

भावार्थ

आंसुओं से हृदय की आन्तरिक स्थिति का ठीक - ठीक पता नहीं चलता । आंसू तो अपने स्वजन ( प्रभु ) के लिए भी निकलते हैं और अन्य कारण वश भी निकलते है । किंतु हृदय में सच्चा प्रभु प्रेम हो तो आंखों से लहु टपकना चाहिए । 

कबीर हसणों दूरि करि , करि रोवण सौ चित्त । बिना रोयाँ क्यूँ पाइये , प्रेम पियारा मित।।27 ।। 

भावार्थ 

कबीरदास कह रहे हैं कि हे मनुष्य ! तू संसार के विषयों में प्रवत होकर हँसता न रह अर्थात् विषयों से प्रीति न कर । विषया - सुख को सुख न समझ कर उसे दुख की वस्तु समझ । ओर अपने मन को रोने में प्रवत्त कर , क्योंकि बिना रोये प्रेम तथा प्यारे मित्र राम को पाना किसी प्रकार संभव नहीं । विरह में रोना साधना में नितान्त साहयक होता है ।

जो रोऊँ तो बल घटै , हंसो तो राम रिसाइ । मनही माँहि बिसूरणों , ज्यू धुंण काठहि खाइ।।28 ।। 

भावार्थ 

कबीरदास जी कहते हैं प्रभु प्रेम एक अनुठा प्रेम है । जिस में यदि प्रेमी रोता है तो उसकी शक्ति क्षीण होती है । ओर यदि हँसता है , तो प्रियतम ( प्रभु ) खिन्न होते है । क्रोधित होते है । ऐसी अवस्था में उस के पास केवल एक ही मार्ग शेष रह जाता है कि रोने का दिखावा न कर मन में ही रुदन करता रहे ओर उससे भीतर - ही - भीतर इसी प्रकार खोखला होता रहे , जिस प्रकार का को धुन खाकर भीतर - ही - भीतर खोखला करता रहता है । ओर ऊपर से किसी को पता भी नहीं चलता ।

हँसि हसि कंत न पाइए , जिनि पायो तिनि रोई जो हाँसेंही हरि मिले , तो नहीं दुहागनि कोई।।29।। 

भावार्थ 

कबीरदास जी कहते हैं कि हँसते हँसते अर्थात् मौज मस्ती करते हुए या विषयों में रहकर अपने प्रभु को प्राप्त नहीं किया जा सकता । सुखमय , स्थिति ' उस - तक नहीं ले जाती । ' उस - तक पहुँचने के लिए तो मनुष्य को संसार से विरक्त होना पड़ता है । प्रभु को तो केवल उस के वियोग में रोने वालों ने ही पाया है । यही परम सत्य है । यदि हंसने से ही प्रिय मिल जाय तो फिर संसार कोई अभागिनी ही नहीं रह जायेगी अर्थात् प्रिय ( प्रभु ) के प्रेम से कोई वचित नहीं रह जाएगा । क्योंकि मौज़ उड़ने में या विषय - वासना में तो सभी जीव लगे रहते है ।

हाँसी खेली हरि मिले , तो कोण सहे परसान । काम क्रोध त्रिष्णां तजै , ताहि मिल भगवान।।30।।

भावार्थ

कबीरदास जी कहते है यदि हँसते - खेलते , विषय - वासनाओं में रहते हुए प्रभु मिल जाए तो विरह की तीक्ष्णधार पर कौन चढ़कर अपने शरीर की दुर्गति करायेगा अर्थात् कौन विरह - अग्नि में अपने शरीर को तपायेगा । परन्तु वियोग की अनुभूति बिना अपने प्रियतम , अपने प्रभु से संयोग हो ही नहीं सकता । विरह के कारण ही साधक तपता रहता है और उसके मन में प्रभु मिलन की प्यास बढ़ती ही जाती है । जिस से एक दिन वह प्रभु को पा लेता है । वास्तविकता में तो प्रभु उसे ही मिलते हैं जो काम , क्रोध , और तृष्णा को त्याग देता है और सच्चे मन से प्रभु की साधना करता है । ।

पूत पियारो पिता की , गौहनी लागी धाइ । लोभ मिठाई हाथि दे , आपण गयी भुलाइ।।31।।

भावार्थ

कबीरदास जी कहते है कि पिता का प्रिय पुत्र होता है । वह उसके साथ दौड़कर लग गया । यह पूर्ण तृप्ति देने वाले स्नहे का अधिकारी था । किंतु दुर्भाग्यवश उसने जगत् - लोभ की मिठाई अपने हाथ में रख ली । जिनके परिणाम स्वरूप वह बालक उसी में रम कर उस परमपिता को भूल गया ।

डारी खाँड़ पहाकि करि , अंतरि रोस तपाइ । रोवत रोवत मिलि गयो , पिता पियारा जाइ।।32 ।। 

भावार्थ

जब बालक को यह बोध हुआ कि इस मिठाई के लोभ में पिता का साथ छूट गया है तो उसके भीतर खीझ उत्पन्न हुई और उसने झटककर मिठाई को फेंक दिया और रोता - रोता पिता की ओर चल दिया और उससे मिल गया । अर्थात् जब साधक को यह बोध हुआ की माया में फस उस ने प्रभु को भुला दिया तो वह माया को अपने से दूर कर देता है । और व्याकुल हो प्रभु की ओर चल देता है । उसकी व्याकुलता उसे प्रभु से मिला देती है । 

नैनों अतंरि आकरूँ निस दिन निजरां तोहि । कब हरि दरसन देहुगे , सो दिन आवै मोहि।।33।। 

भावार्थ 

कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रिय परमेश्वर ! मैं वह दिन कब देखूंगा जब आपका दर्शन होगा , रात - दिन आपको ही देखता रहूँगा तथा अपनी आँखों में ही आपको बसाकर , आपकी उपासना और उससे संबद्ध सारे आचरण करता रहूँगा । 

कबीर देखत दिन गया , निस भी देखत जाइ । बिरहणि पिव पायै नही , जिपरा तलपै माइ।।34 ।। 

भावार्थ

कबीरदास जी कहते हैं प्रियतम की प्रतीक्षा में आत्मा रूपी विरहिणी तडफती रहती है । प्रभु की बाट देखते - देखते दिन बीत गया और उसी प्रकार रात भी बीत गयी । किंतु बेचारी विरहिणी को प्रभु ( प्रिय ) नहीं मिला । प्रभु से मिलाप न होने के कारण वह विरह अग्नि में भीतर ही भीतर जल रही है ।

 कै बिरहनि हूँ मीच दे , के आपा विखलाइ । आठ पहर का दाझीं , मौपे सहा न जाइ।।35 ।। 

 भावार्थ 

हे प्रभु । इस विरहिणी को मृत्यु दे दो या अपना रूप दिखलाओ । विरह - व्यथा में दिन रात आठो पहर का संतप्त होना , अब मुझसे सहा नहीं जाता । अर्थात् हे प्रभु अब विरह - व्यथा अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी है कृपा दर्शन दें । 

विरहणि थी तो कयूँ रही , जली न पीव के नालि । रहु , रहु मुगध गहेलकी , प्रेम न लागूं मारि।।36 ।। 

भावार्थ

ऐ साधक विरहिणी : यदि तू सच्ची विरहिणी थी तो प्रिय परमात्मा से पृथक होते समय ही क्यों न जल गई । अब सती बनने का  लोभ ही क्यों जब प्रिय से बिछुड़ते समय उसके साथ जल न सकी । ऐ मूढ , ऐ हटी । तू अपने को प्रेमिका कहकर प्रेम को भी लज्जा के भाव से उसे भी कलंकित न कर । 

बिरहा की लाकड़ी , समझि समझि धूंधाऊँ । छूटि पड़ौं यो बिरह है , जे सारीहि जलि जाऊँ।।37 ।। 

भावार्थ

कबीरदास जी कहते हैं कि मैं विरह की वह गाँउ - गठीली लकड़ी हूँ जो धीरे - धीरे रह रहकर धुओं देती हुई सुलगती है । अच्छा होता , यदि मैं सम्पूर्ण रूप से एक ही बार जल जाती । इस प्रकार विरह अग्नि से तो मुक्ति मिल जाती । 

कबीर तन मन यो जल्या , विरह अगनि लागि । म तक पीड़ ना जाणई , जांणेगी यहु आगि || 38|| 

भावार्थ

कबीर कहते हैं कि परम प्रिय परमात्मा की विरह अग्नि में यह मन और शरीर की इन्द्रियों अपने आप को पूर्णतः खोकर ( भूलकर ) परम - प्रिय की चाह रूपी अग्नि से एकाकार हो चुकी है । म तक के समान शून्य हो चुकी हैं । अब इस म तक - तुल्य मन - शरीर को विरह अग्नि की अनुमति नहीं हो रही ।। अब उस पीड़ ( जलन ) को तो यह आग जिसमें शरीर - मन जल रहा है यही जान पायेगी । अतः ईश्वरानुभूति एक आन्तरिक अनुभूति है । उसे मन इन्द्रियों से हटकर ही अनुभव किया जा सकता है । ध्यान का माध्यम है - विरहअग्नि । 

विरह जलाई जली , जलती जल हरि जाऊँ । मो देख्यां जल हरि जले , संती कहाँ बुझाऊँ।।39 ।। 

 भावार्थ 

कबीरदास कहते है कि मैं विरहाग्नि से जल रहा हूँ । हे प्रिय हरि ! मैं इसमें जल ही जाऊँ तो ही ठीक है , क्योंकि इसको किसी प्रकार बुझाया नहीं जा सकता । वे संतों से कहते हैं कि अब तो मुझको जलता देखकर जलधर ( जलाशय ) जल उठे हैं । इस आग को मैं कहाँ बुझाऊँ ।

परवति परबति में फिरचा नैन गवाये रोइ । सो बूटी पाऊँ नहीं , जात जीवनि होइ।।40 ।। 

 भावार्थ 

कबीरदास जी कहते हैं कि मैं उस बूटी को खोज में पर्वत पर्वत मारा - मारा फिरा जिससे मैं तुझ तक इस में जीवन प्राप्त कर सकू । बूटी प्रायः पर्वतों पर ही मिलती है । यहाँ पर्वत ' से मतलब बड़े - बड़े साधकों और ज्ञानियों से है । भाव यह है कि मैं बड़े - बड़े साधकों के पास दर - दर मारा फिरा और प्रिय - वियोग में रो - रोकर नेत्र भी खो दिये । परन्तु मुझे कोई भी वह बूटी न दे सका जिससे जीवन की प्राप्ति हो अर्थात् कोई भी वह मार्ग न बतला सका जिससे प्रभु - मिलन हो सके । 

 फाकि फुटोला , धज करौं ,कामलड़ी पहिराउँ । जिहि जिहि भेषां हरि मिले , सोइ सोइ मेव फराऊँ।।41 ।। 

भावार्थ

कबीरदास जी कहते हैं कि मैं परमात्मा विरह में उस मनोदशा को प्राप्त कर चुका हूँ जिस में कुछ भी अच्छा नहीं लगता । इसलिए ही मैं अपने रेशमी वस्त को फाड़कर टुकड़े - टुकड़े कर देना चाहता हूँ । अर्थात् भोग विलास की सारी सामग्री को त्याग देना चाहता हूँ और काली कम्बली पहना चाहता हूँ । अर्थात् उन वेशों को धारण करना चाहता हूँ जिनसे परम प्रिय प्रभु प्राप्त हो । 

 नैन हमारे जलि गये , धिन धिन लो तुम । नौ हूँ मिले न मैं खुसी , ऐसी बेवन मुझ ।।42।।

 भावार्थ

कबीरदास जी कहते हैं हे प्रभु ! मेरे ये नेत्र क्षण - क्षण आपको दूंढते रहते है और आपको ढूंढते - ढूँढते मेरे नेत्र जल गये है । फिर भी न तो आप मिले और न ही मुझे सुख की प्राप्ति हुई । इस कारण मुझे बड़ी तीव्र वेदना हो रही है ।

मेला पाया श्रम सौं , भौसागर के माह । जे छाँडी तौ विहीं,गहाँ त दुसिये बांह ।।। 43।। 

भावार्थ 

कबीरदास कहते है मैंने अत्यंत साधन  पूर्वक इस संसार रूपी सागर को पार करने के लिए राम - विरह रूपी बेड़ा ( नाव ) प्राप्त किया है । अगर इस विरह बेड़े को पकड़े रखता हूँ तो यह निरंतर पीड़ित करता रहेगा और यदि इसे छोड़ता हूँ तो संसार रूपी सागर में ही डूब जाऊँगा ।

रैणा दूर विछोहिया , रहु रे संघम झूरि । देवलि देवलि चाहड़ी , पेसी कगे सूरि ।।44।। 

भावार्थ

यहाँ शंख को जीव , रात्रि को अज्ञान और सूर्य को ज्ञान के प्रतीक रूप में देखा गया है । कबीर दास जी कहते है कि हे जीव रंख रूपी जीय ! अभी अज्ञान की रात्रि है , बिछुडा हुआ प्रिय ( प्रभु ) दूर है अतः उसके विरह में झुलसते रहो , सुखते रहो , जब प्रभु की कृपा से पूर्ण ज्ञान का सूर्योदय होगा , तब तुम विरह में व्याकुल होकर पतयेक मन्दिर के सम्मुख रोते चिल्लाते फिरोंगे ।

सुखिया सब संसार है , खाये अरु सोवे । दुखिया दास कबीर है , जागै अरु रोवै ।।45।। 

 भावार्थ 

कबीरदास जी कहते हैं कि सारे संसार के व्यक्ति निश्चिंत है ,सुखी हैं ,खाते - पीते हैं और सुखपूर्वक सोते हैं , दुखी तो दास कबीर है , जिनकी अनुभूतियाँ इतनी तीव है कि चैन नहीं लेने देती , जिनकी विरह - वेदना आँख नहीं लगने देती , वह तो जागता रहता है , रोता रहता है ।

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