अंधेरे में – गजानन माधव मुक्तिबोध
Andhere Mein – Muktibodh
गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ' अँधेरे में उनके काव्य संकलन ' चांद का मुंह टेढ़ा है ' में संकलित है । इस कविता में कवि ने हमारे देश की आजादी से पहले की स्थिति और आजादी के बाद की स्थिति का चित्रण बड़ी गहरी अनुभूति के साथ किया है । जिन स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया वे तो स्वतन्त्रता के पश्चात् अंधेरे में खो गए तथा वे लोग रोशनी में आ गए जो स्वार्थी एवं अवसरवादी थे । इस कविता में मध्यवर्ग के उस आदमी का संघर्ष भी दिखाया गया है जो एक ओर तो सामाजिक अव्यवस्था और विकृतियों के विरुद्ध संघर्ष करता है तो दूसरी ओर अपनी सुविधाएं छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं है । असल में वह एक ओर तो रक्तालोक पुरुष बनने का आकांक्षी है तो दूसरी ओर अपनी कमजोरियों से डरता भी है । व्यक्ति के इस द्वन्द्व को भी इस कविता में बखूबी चित्रित किया गया है ।
इस कविता में दो रक्तालोक स्नात पुरुष हैं — पहला वह जो जिन्दगी के अंधेरे कमरों में चक्कर लगा रहा है और दूसरा वह जो तालाब की लहरों में अपना चेहरा देखता हुआ भीतर आने के लिए सांकल बजा रहा है । यहां अंधेरा सामाजिक अव्यवस्था , मानस पर छायी अमूर्त छायाओं तथा व्यक्तित्व की परतों पर बिछे स्याह कागज का प्रतीक है । जब तक इसे दूर नहीं किया जायेगा तब तक व्यक्तित्व का शोधन नहीं होगा और व्यक्तित्व के शोधन के बिना आत्मान्वेषण से प्राप्त सत्य का आत्मविस्तार कैसे हो सकेगा । आलोच्य कविता में ' वह ' और ' मैं ' के बीच आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया घटित होती है । व्यक्ति अपने को भूलकर ' वह ' पाने के लिए भटक रहा है । ' मैं ' सुविधाजीवी वृत्ति को त्याग नहीं पाता इसलिए वह ‘ रक्तालोक स्नात ' पुरुष से मिल नहीं पाता । ' मैं ' को अपनी कमजोरियों से लगाव है किन्तु साथ ही वह रक्तालोक स्नात पुरुष को छोड़ना भी नहीं चाहता । इसी द्वन्द्व में वह फंसा हुआ है । रक्तालोक स्नात पुरुष को मुक्तिबोध ने मानवीय संस्कृति के विकास हेतु संघर्षरत संस्कृति पुरुष का प्रतीक माना है । यह हम सबके भीतर भी है और बाहर भी है । डॉ . विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार , “ वह संघर्षरत है इसलिए उसकी पीठ पर नहीं वक्ष पर घाव है । वह सकर्मक है शक्ति का पुंज है , किन्तु फटेहाल है , क्योंकि वह करुणा से युक्त होकर समाज के शोषित जनों का प्रतिनिधि बनता है । यह संस्कृति पुरुष मध्यवर्ग के आदर्शवादी दृढ़ चरित्र और जीवन की सुविधाओं से समझौता न करने वाले व्यक्ति का प्रतीक है । " पूरी कविता में कवि मुक्तिबोध का आत्मान्वेषक बड़े साहस के साथ अनेक संघर्ष करता हुआ अपनी आत्मा का साक्षात्कार करता दिखाई पड़ता है । अपनी अस्मिता को आत्मविस्तार देने का प्रयास यहां किया गया है । मुक्तिबोध की यह सबसे लम्बी कविता है जो आठ खण्डों में विभक्त की गई है । डॉ . प्रभाकर माचवे ने इस कविता के बिम्ब विधान की प्रशंसा करते हुए कहा है कि "इस कविता के अनेक अंश प्रसिद्ध चित्रकार पिकासो के विश्वप्रसिद्ध चित्र जैसा प्रभाव डालते प्रतीत होते हैं" इस कविता का महाकाव्यात्मक महत्त्व है । कवि ने सृजनकाल में " आशंका के दीप : अंधेरे में " नाम दिया था किन्तु बाद में कवि की इच्छा से ही इसका अंधेरे में ' शीर्षक रहने दिया गया । वास्तव में कवि ने यहाँ अपने रचनाकालीन परिवेश की जटिलता , संकाएँ , संदेह , आन्तरिकता की कौंध , अभिव्यक्ति के खतरे , अभिव्यक्ति की खोज को अभिव्यक्त किया है । इस विषय में श्री शमशेर बहादुर सिंह का कहना है- " मुक्तिबोध शुक्रवारी में तिलक की मूर्ति के पास ही गली में रहा करते थे । एक्सप्रेस मील के मजदूरों पर जब गोली चली तो रिपोर्टर की हैसियत से वे घटनास्थल पर थे । उन्होंने सिरों का फूटना और खून का बहना अपनी आँखों से देखा । ' अंधेरे में ' शीर्षक उनकी सशक्त और मार्मिक कविता उनके नागपुर जीवन के बहुत सारे संदर्भ अपने अंदर समेटे हुए है । मुक्तिबोध का सारा समय साधारण श्रमशील लोगों के बीच पत्रकारिता और राजनैतिक साहित्यिक बहसों में बीतता था । " इस कथन को देखते हुए कहा जा सकता है कि कवि जहाँ जीवन - यापन कर रहा था वहीं चारों ओर अंधकार ही व्याप्त था और यह उनके मन को आशंकित करता रहता है , और उन्हें इस अंधकार में से ही जीवन तत्त्व खोज लाने के लिए प्रेरित करता रहता है ।
शमशेर बहादुर सिंह लिखते हैं- " यह कविता देश के आधुनिक जन - इतिहास का , स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज है । इसमें अजब और अद्भुत रूप से व्यक्ति और ज्ञान का एकीकरण है । देश की धरती , हवा , आकाश , देश की सच्ची मुक्ति आकांक्षी नस - नस इसमें फड़क रही है ...... और भावनाओं के अनेक गुम्फित् स्तरों पर "
इस कविता में कवि ने अंधेरे के माध्यम से अपने आत्म तत्व को खोज कर अपने को समूची मानवता से जोड़ने का प्रयास किया है । इस कविता में कवि का दोहरा चिन्तन है । अंधेरा कवि के अवचेतन का भी है और बाह्य सामाजिक विसंगतियों का भी है । इसी तरह प्रकाश बिन्दु एक ओर कवि की रचनाधार्मिता को उजागर करता है तो दूसरी ओर जीवन , समाज के अनवरत परिवर्तमान मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाता है । इस प्रकार यह लम्बी कविता काव्य संसार में मील का पत्थर है ।
‘अंधेरे में’ कविता व्याख्या सहित
- ज़िन्दगी के...
- कमरों में अँधेरे
- लगाता है चक्कर
- कोई एक लगातार;
- आवाज़ पैरों की देती है सुनाई
- बार-बार....बार-बार,
- वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
- किन्तु वह रहा घूम
- तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक,
- भीत-पार आती हुई पास से,
- गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा
- अस्तित्व जनाता
- अनिवार कोई एक,
- और मेरे हृदय की धक्-धक्
- पूछती है--वह कौन
- सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !
- इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
- फूले हुए पलस्तर,
- खिरती है चूने-भरी रेत
- खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह--
- ख़ुद-ब-ख़ुद
- कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
- स्वयमपि
- मुख बन जाता है दिवाल पर,
- नुकीली नाक और
- भव्य ललाट है,
- दृढ़ हनु
- कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
- कौन वह दिखाई जो देता, पर
- नहीं जाना जाता है !!
- कौन मनु ?
व्याख्या
कवि कहता है कि मेरा अन्तर्मन अनुभव करता है कि इस जीवन रूपी कमरे के अंधेरे में हमेशा एक अनजान - सी आकृति चक्कर लगाती रहा करती है । अर्थात् - अन्तर्मन की गहराईयों में वैचारिकता एवं रचनाधर्मिता के स्तर पर कुछ - न - कुछ उमड़ - उमड़ पड़ने की चेष्टा कर रहा है । उसके पैरों की आहट मुझे लगातार और बार - बार सुनाई देती रहती है , पर उसकी आकृति नहीं दिखाई देती तो नहीं ही दिखती । किन्तु इस अन्तर्मन की जादुई गुफा में कोई एक व्यक्ति बन्दी बना हुआ घूम जरूर रहा है । दीवार के पार से पास आती हुई सी प्रतीत होती हुई पैरों की आवाज के रूप में वह अपने अस्तित्व का अहसास निरन्तर कराता रहता है । अर्थात् - मेरे और उसके बीच मन भावना रूपी दीवार होने के कारण मैं उसे भले ही न देख पाता हूँ लेकिन उसको अनिवार्यतः महसूस करता रहता हूँ । तब मेरा धुकधुकता हृदय प्रश्न करता है कि आखिर वह है कौन , जो सुनाई देकर केवल अपने अस्तित्व का अहसास कराता है । परन्तु आँखों के सामने आकर अपनी आकृति नहीं दिखाता । अर्थात् कवि अन्तर्मन में कई प्रकार के भावों की अनुभूति तो करता है पर उनका सत्ता रूप में वास्तविक दर्शन नहीं कर पाता है । तभी जैसे समय की मार से पुराने खण्डहर या मकान फूले हुए पलस्तर अपने आप गिरने एवं झड़ने लगते हैं । चूने से भरी रेत खुरचकर झरने लगती है और इस सब से अपने आप दीवारों पर कोई बड़ी आकृति सी बन जाती है , और दीवारों पर मुख भी बन जाता है । नुकीली नाक , ऊँचा - चमकीला मस्तक , दृढ ठोड़ी आदि बनकर एक परिचित - अपरिचित आकृति के रूप में प्रकट हो जाया करती है । इसी प्रकार कवि के मन में भी पुरानी - बीती घटनाओं के पलस्तर - रेत - चूना झर कर आँखों के सामने विचारों भावों की आकृतियों सी खड़ी कर रहे हैं । कवि मन की आँखों से देख लेता है पर पहचान नहीं पाता । कवि अन्तर्चेतना में उभरी अंजान - अलक्षित आकृति से प्रश्न करता है - मेरे मन के अंधेरे में , विचारों की गहराई में क्या स्वयं मनु ( आदि मानव ) उभर आया है ?
- बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब...
- अँधेरा सब ओर,
- निस्तब्ध जल,
- पर, भीतर से उभरती है सहसा
- सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति
- कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है
- और मुसकाता है,
- पहचान बताता है,
- किन्तु, मैं हतप्रभ,
- नहीं वह समझ में आता।
- अरे ! अरे !!
- तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष
- चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक
- वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ,
- शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर
- चीख़, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्--
- वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक
- तिलस्मी खोह का शिला-द्वार
- खुलता है धड़ से
- ........................
- घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी
- अन्तराल-विवर के तम में
- लाल-लाल कुहरा,
- कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,
- रहस्य साक्षात् !!
व्याख्या
अरे ! अरे ! गहरे अंधेरे में तालाब के आस - पास हरे - हरे जंगली वृक्ष एका - एक चमक उठते हैं । अचानक वृक्षों की चोटियों पर प्रकाश फैलाने वाली बिजलियाँ रह - रहकर नाच उठती हैं । वृक्षों की शाखाएँ , डालियों तेज औंधी से एक - दूसरे पर अपना सिर - सा पटकती हुई नजर आती हैं । तभी अचानक वृक्षों के गहन अंधकार में जादुई गुफा का पत्थर बना द्वार धड़ - धड़ाधड़ की आवाज करता हुआ खुलता है । उसमें एक अजीब - सी लाल लाल मशाल घुसती हुई दिखती है । उस गुफा के भीतरी भाग में लाल - लाल कुहरा छा रहा है । उस कुहरे में प्रकाश की लालिमा से नहाया हुआ - सा एक पुरुष दिखाई देता है । इस प्रकार यह सारा का सारा वातावरण एवं यह रक्तरंजित पुरुष किसी रहस्य , भेद को साकार कर रहे हैं ।
- तेजो प्रभामय उसका ललाट देख
- मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर
- गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख
- सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर
- विलक्षण शंका,
- भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्
- गहन एक संदेह।
- वह रहस्यमय व्यक्ति
- अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
- पूर्ण अवस्था वह
- निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
- मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
- हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
- आत्मा की प्रतिमा।
- प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी,
- इसी लिए बाहर के गुंजान
- जंगलों से आती हुई हवा ने
- फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी-
- कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
- मौत की सज़ा दी !
- किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही
- आँखों में बँध गयी,
- किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,
- किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में
- गिरा दिया गया मैं
- अचेतन स्थिति में !
व्याख्या
इस अंधेरी गुफा में रक्त - रंजित रूप में सहसा उभरने वाली वह दिव्य आकृति , वस्तुतः मेरे भावों , विचारों का ही स्वरूप है जो अब तक अभिव्यंजित हो पाने में असमर्थ है । मेरे ऊपर जो अब तक प्रभाव पड़े हैं , मेरे मन में जो भिन्न - भिन्न प्रतिमाएँ हैं और मेरे मन में जीवन के भविष्य की अनेकविध सम्भावनाएँ हैं , यह रहस्यपूर्ण व्यक्ति उन्हीं सब का साकार रूप है । इसके रूप में मेरे ही सम्पूर्ण मानवीय रूप एवं व्यक्तित्व का उदय हो रहा है । मेरे मन मस्तिष्क में बौद्धिकता एवं ज्ञान विज्ञान का संघर्ष एवं तनाव चल रहा है , यह उसी का प्रतीक है । इसे मेरी आत्मा की प्रतिमा भी कहा जा सकता है । कवि प्रश्न करता हुआ कहता है कि वह फटे हुए कपड़े क्यों पहने हुए है ? इसका सुनहरी रंग का मुँह साँवला क्यों हो गया है ? और उसकी छाती पर गहरा घाव क्यों हो गया है । उसने जेल की सजा क्यों काटी । उसकी भयंकर स्थिति क्यों है ? उसे कौन रोटी और पानी देता है ? यह सब होते हुए भी उसके मुँह पर मुस्कराहट क्यों है ? फिर भी वह शक्तिशाली क्यों दिखाई देता है ? कवि कहता है कि ये प्रश्न न केवल गम्भीर है बल्कि खतरनाक भी हैं । शायद इसीलिए बाहरी वातावरण के सूनेपन एवं वातावरण की हवा अर्थात् प्रभाव ने मेरे अन्दर की ज्ञान रूपी मशाल को फूंक मार कर ही बुझा दिया । ताकि मैं बाहरी जीवन की विषमताओं को , अत्याचारों को , अनाचारों को न देखू , न व्यक्त करूँ इसीलिए मुझे अंधेरे में पकड़कर मौत की सजा दी । मेरी आँखों पर काली पट्टी बाँध दी गयी है । मेरे विचारों के पीछे विराम चिहन लगा दिया । मुझे खड़ी पाई की सूली पर टांग दिया गया है मुझे किसी शून्य बिन्दु के गहरे - अंधेरे खड्डे में गिरा दिया गया है ताकि मैं कुछ भी न सोचूं , व्यक्त करूँ । मुझे शून्यता की स्थिति में अवचेतन की स्थिति में पहुंचा दिया गया ।
- कमज़ोर घुटनों को बार-बार मसल,
- लड़खड़ाता हुआ मैं
- उठता हूँ दरवाज़ा खोलने,
- चेहरे के रक्त-हीन विचित्र शून्य को गहरे
- पोंछता हूँ हाथ से,
- अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर
- बढ़ता हूँ आगे,
- पैरों से महसूस करता हूँ धरती का फैलाव,
- हाथों से महसूस करता हूँ दुनिया,
- मस्तक अनुभव करता है, आकाश
- दिल में तड़पता है अँधेरे का अन्दाज़,
- आँखें ये तथ्य को सूँघती-सी लगतीं,
- केवल शक्ति है स्पर्श की गहरी।
- आत्मा में, भीषण
- सत्-चित्-वेदना जल उठी, दहकी।
- विचार हो गए विचरण-सहचर।
- बढ़ता हूँ आगे,
- चलता हूँ सँभल-सँभलकर,
- द्वार टटोलता,
- ज़ंग खायी, जमी हुई जबरन
- सिटकनी हिलाकर
- ज़ोर लगा, दरवाज़ा खोलता
- झाँकता हूँ बाहर....
व्याख्या
कवि विषमताओं की मार से कमजोर पड़े अपने घुटनों को बार - बार मसल कर अर्थात् उनमें शक्ति लाने का प्रयास कर लड़खड़ाते कदमों से नए युग के द्वार खोलने के लिए उठता है । कवि कहता है कि मैं आगे बढ़ने की चेष्टा करता हूँ । मैं रक्तहीन , सूखे पड़े चेहरे और उस पर छाई हुई वातावरण की बर्बरता एवं शून्यता को अपने हाथों से पोछने का प्रयास करता हूँ । मैं अंधेरे में आगे - पीछे टटोलकर आगे बढ़ता हूँ । मैं संपूर्ण धरती पर फैली मानवता के दर्द को महसूस करता हूँ । मैं जिस दिशा में हाथ बढ़ाता हूँ उसी दिशा में वही दर्द महसूस करता हूँ और साँसों से पूरी दुनिया के दर्द को अनुभव करता हूँ । मस्तक के ऊपर आकाश का अनुभव भी करता हूँ । मेरा तडपता दिल चारों ओर के विषम वातावरण का अनुमान लगाता है । मेरी आँखें जीवन के यथार्थ को सँधने की कोशिश करती हैं । बस स्पर्श की शक्ति है अर्थात् जीवन के विषम वातावरण के अनुभव की शक्ति है । मेरी आत्मा में सत्य एवं नित्य वेदना की आग जलने लगी है । अब मेरे विचार ही विचार के साथी बन गए हैं । अर्थात् विचार ही मेरे उत्प्रेरक है । मैं आगे बढ़ता हूं सम्हल - सम्हल कर कदम रखता हूँ । बन्द दरवाजे को खोलने के लिए अर्थात् चेतना के प्रकटीकरण के लिए उसे टटोलता हूँ । जंग लगी पुरानी मान्यताओं को जबरन तोड़कर नवयुग को देखने के लिए झौंकता
- रात के दो हैं,
- दूर-दूर जंगल में सियारों का हो-हो,
- पास-पास आती हुई घहराती गूँजती
- किसी रेल-गाड़ी के पहियों की आवाज़!!
- किसी अनपेक्षित
- असंभव घटना का भयानक संदेह,
- अचेतन प्रतीक्षा,
- कहीं कोई रेल-एक्सीडेण्ट न हो जाय।
- चिन्ता के गणित अंक
- आसमानी-स्लेट-पट्टी पर चमकते
- खिड़की से दीखते।
- ..........................
- हाय! हाय! तॉल्सतॉय
- कैसे मुझे दीख गये
- सितारों के बीच-बीच
- घूमते व रुकते
- पृथ्वी को देखते।
- शायद तॉल्सतॉय-नुमा
- कोई वह आदमी
- और है,
- मेरे किसी भीतरी धागे का आख़िरी छोर वह
- अनलिखे मेरे उपन्यास का
- केन्द्रीय संवेदन
- दबी हाय-हाय-नुमा।
- शायद, तॉल्सतॉय-नुमा।
व्याख्या
कवि कहता है कि रात के दो बजे हुए है । दूर जंगलों से सियारों की हुआ हुआं की आवाज सुनाई दे रही है । किसी रेलगाड़ी के पास आती उसके पहियों की गरजती , गूंजती भयानक आवाज सुन रही है । अर्थात् समय चक्र चल रहा है और उसके परम्परागत क्रम भी ज्यों के त्यों चल रहे हैं । किन्तु मेरे मन में किसी अघटित , असम्भावित घटना के घटने का भयानक सन्देह है । पता नहीं क्यों मेरे अवचेतन में किसी रेल दुर्घटना के घट जाने की प्रतीक्षा हो रही है । आसमान रूपी स्लेट की पट्टी पर चिन्ता रूपी गणित के अंक चमक रहे हैं अर्थात् डर है कि कहीं जीवन में भी कोई दुर्घटना न घट जाए । कवि को चिन्ता के क्षणों में ( war and Peace = युद्ध और शान्ति उपन्यास के ) रूसी लेखक तॉल्सताय की याद आ जाती है । कवि कहता है कि सितारों के बीच - बीच से कभी घूमते , कभी रूककर पृथ्वी की ओर देखते हुए महान दार्शनिक , लेखक तॉल्सताय न जाने क्यों दिखाई देने लगे हैं । शायद वह तॉल्सताय नहीं बल्कि उसी जैसा कोई और है जो मेरे अन्तर्मन में स्थित अभिलिखित उपन्यास का केन्द्रीय संवेदन है । हाय ! हाय ! वह ताल्सताय नुमा मेरा दबा केन्द्रीय संवेदन है ।
- उनके पीछे यह क्या!!
- कैवेलरी!
- काले-काले घोड़ों पर ख़ाकी मिलिट्री ड्रेस,
- चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ
- आधा भाग कोलतारी भैरव,
- आबदार!!
- कन्धे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा।
- कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तोल,
- रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है,
- कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल
- कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
- चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,
- उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,
- उनके लेख देखे थे,
- यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
- भई वाह!
- उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण
- मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान
- यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
- डोमाजी उस्ताद
- बनता है बलवन
- हाय, हाय!!
- यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय।
- भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
- साफ़ उभर आया है,
- छिपे हुए उद्देश्य
- यहाँ निखर आये हैं,
- यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।
व्याख्या
कवि कहता है कि उस जुलूस के पीछे घुड़सवार सैनिकों का दल है । काले - काले घोड़ों पर खाकी रंग वाली सैनिक पोशाक में सैनिक हैं । उनके चेहरों का आधा भाग तो सिन्दूरी गेरुए रंग जैसा है , आधा काले कोलतार जैसा भयानक किन्तु चमकदार है । उनके हाथों में चमकती हुई तलवार है । कन्धे से कमर तक कारतूसों से भरा बैल्ट तिरछा बांधे हुए हैं । और चमड़े के कवर में लिपटा पिस्तौल भी है । उनकी क्रुद्ध और निशाना साधने वाली पैनी दृष्टि है । उनमें कर्नल , ब्रिगेडियर , जनरल , मार्शल आदि सभी टैंकों के सेनाध्यक्ष और सेनापति हैं । ये सभी चेहरे मेरे परिचित - से हैं , जाने पहचाने - से है क्योंकि इनके फोटो अखबारों में देखे थे । इनके लेख एवं कविताएँ पढ़ी थीं । वाह ! भई वाह ! इन सबके क्या कहने । इनमें तो प्रसिद्ध आलोचक , विचारक , कवि , मंत्री , उद्योगपति , विद्वान तो है ही साथ ही है शहर का कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद । जो अपने को बलबन के समान समझता है । हाय ! ये सभी भूत - पिशाचों के समान दिखाई देते हैं । इनके भीतर जो स्वार्थी राक्षस छिपा है यह सब इनके चेहरों पर दिखाई दे रहा है । इनके भीतर जो स्वार्थी उद्देश्य छिपे हुए हैं वे बाहर आ गए हैं । यह शोभा - यात्रा नहीं है । यह तो शव की शोभा यात्रा है ।
- रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल!!
- गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर!!
- एकाएक टूट गया स्वप्न व छिन्न-भिन्न हो गये
- सब चित्र
- जागते में फिर से याद आने लगा वह स्वप्न,
- फिर से याद आने लगे अँधेरे में चेहरे,
- और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक
- गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
- हर रात जुलूस में चलतीं,
- परन्तु दिन में
- बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
- विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में।
- हाय, हाय! मैंने उन्हे दैख लिया नंगा,
- इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।
व्याख्या
कवि कहता है कि मेरे अन्तर्मन में उभरने वाला यह सपना प्रतिक्रियाओं की ध्वनियों सुनकर एकाएक टूट गया , छिन्न - भिन्न हो गया । विचारों और स्वप्नों के सभी चित्र गायब हो गए । मेरे जाग - जाने पर वे सारे अनुभूत घटनाबद्ध स्वप्न फिर से मेरी स्मृतियों में आने लगे । अंधेरे में अर्थात् गुप्त रूप से लगे स्वार्थों की सिद्धि करने वाले सारे चेहरे फिर से मेरी स्मृती में आने लग गए । मुझे प्रतीत हुआ की इस नगर में मरी हुई आत्माएँ प्रत्येक रात जुलूस में चलती हैं । अर्थात् गुप्त रूप से अपने स्वार्थों की सिद्धि में निकलते हैं । पर दिन में ये सभी आत्माएँ मिल बैठकर विभिन्न दफ्तरों , कार्यस्थलों , केन्द्रों , घरों में बैठकर मानवता के विरुद्ध अनेक प्रकार के षड़यन्त्र रचा करती हैं । हाय हाय ! आज मैंने इन सब षडयन्त्रकारियों का वास्तविक रूप देख लिया है अर्थात् षड़यन्त्र रचते देख लिया है । अतः मैं उनकी स्वार्थी नीयत को और घिनौने स्वरूप को उजागर करता हूँ । इसीलिए मुझे सजा मिलेगी ।
- एकाएक मुझे भान होता है जग का,
- अख़बारी दुनिया का फैलाव,
- फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,
- पत्ते न खड़के,
- सेना ने घेर ली हैं सड़कें।
- बुद्धि की मेरी रग
- गिनती है समय की धक्-धक्।
- यह सब क्या है
- किसी जन-क्रान्ति के दमन-निमित्त यह
- मॉर्शल-लॉ है!
- दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मरे पैर,
- साँस लगी हुई है,
- ज़माने की जीभ निकल पड़ी है,
- कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार
- भागता मैं दम छोड़,
- घूम गया कई मोड़,
- चौराहा दूर से ही दीखता,
- वहाँ शायद कोई सैनिक पहरेदार
- नहीं होगा फ़िलहाल
- दिखता है सामने ही अन्धकार-स्तूप-सा
- भयंकर बरगद--
- सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों,
- ग़रीबों का वही घर,वही छत,
- उसके ही तल-खोह-अँधेरे में सो रहे
- गृह-हीन कई प्राण।
- अँधेरे में डूब गये
- डालों में लटके जो मटमैले चिथड़े
- किसी एक अति दीन
- पागल के धन वे।
- हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन।
व्याख्या
कवि कहता है कि एकाएक संसार की वास्तविकता का स्वरूप मुझे ज्ञात होता है । चारों ओर अखबारी दुनिया का फैलाव है अर्थात् सम्पूर्ण वातावरण में एक - दूसरे को फंसाने , घेरने , का तनावपूर्ण माहौल व्याप्त है । इस मानसिक तनाव के क्षणों में सेना ने सड़के घेर ली है ताकि कहीं कोई विद्रोहात्मक हलचल एवं आन्दोलन क्रान्ति न हो । मेरी बौद्धिकता की रगे समय की धड़कन को गिन रही है । बौद्धिकता के स्तर पर मन - मस्तिष्क में एक ही प्रश्न उठता है कि आखिर यह क्यों हो रहा है ? क्या कहीं जन - क्रान्ति हो रही है जिसे दबाने के लिए यह मार्शल - लो लागू कर दिया है । परन्तु कहीं कोई क्रान्ति दिखाई नहीं देती । फिर साहस छोड़ मेरे पैर गलियों में क्यों भाग रहे हैं । सभी भाग रहे हैं । क्यों नहीं सभी जन - क्रांति के लिए विरोधों से भीड़ जाते हैं । सभी जैसे हाँफ रहे हैं । हाँफने से जीभ बाहर निकल आई है और लगता है कि कोई लगातार मेरा पीछा कर रहा है । मैं साहस छोड़ भागता हुआ कई मोड़ काट जाता हूँ । दूर से ही चौराहा दिखता है ( चौराहा विभिन्न मतों , सम्प्रदायों , विचारधाराओं का प्रतीक है ) अर्थात् अनेक प्रकार के विचार दूरदूर से ही आभासित हो रहे हैं और लगता है कि इन पर अब तक कोई भी प्रतिबन्ध नहीं लगा है । तभी मुझे सामने ही अंधकार स्तूप सा भयंकर बरगद जो कि जीवन का प्रतीक है , दिखाई देता है । वह बरगद ( मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार जीवन स्थल ) सभी उपेक्षितों , अधिकार - वंचितों , गरीबों को आश्रय देने वाली घर की छत के समान है । उसके नीचे खोह में - अंधेरे में कई गृहहीन प्राणी सो रहे हैं । एक निर्धन - व्यक्ति के कपड़े डालियों पर लटक रहे हैं । वही उस पागल के धन एवं सम्पत्ति हैं जो उस बरगद के नीचे रहता है । अर्थात् दुःखी मानवता का बरगद ही आश्रय स्थल है ।
- "ओ मेरे आदर्शवादी मन,
- ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
- अब तक क्या किया?
- जीवन क्या जिया!!
- उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
- भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
- किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
- दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
- अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
- असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
- ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
- अब तक क्या किया,
- जीवन क्या जिया!!
व्याख्या
कवि कहता है कि ओ मेरे आदर्शवादी और सिद्धान्तवादी मन ! अब तक तुमने आदर्शों और सिद्धान्तों की राह पर चलकर मानवता की मुक्ति के लिए क्या किया है । तुमने इस आतंकपूर्ण जीवन को कैसे जिया है । तुमने केवल अपने पेट की सोची है तुम जड़ हो गए हो । तुम शादी में तनी कनातों की तरह हो अर्थात् बूत बने प्राणियों के विवाह में तनी कनातों के समान ही जड़ बनकर रह गये हो । या तुम व्यभिचार में डूबे , अत्याचार में डूबे , शासकों , पूंजीपतियों साम्राज्यवादियों के लिए बिस्तर का ही काम कर रहे हो । वातावरण में व्याप्त अव्यवस्था और विषमता के कारण जो अनेक प्रकार के दुःख तुम्हारे जीवन में आए तुमने उनके प्रतिकार का प्रयास नहीं किया बल्कि उन्हें जीवन के परितोषक तमगे समझकर अपना लिया है । तुमने सुख - दुःखों से निर्लिप्त रहकर अकेले में ही सब कुछ सहते रहने को जीवन की सफलता मान लिया है अर्थात् सामूहिक शक्ति एवं श्रम से जिंदगी को बदलने की कोशिश नहीं की । इस तरह तुम्हारा जीवन निष्क्रिय बन कर रह गया है । तुम सोच - विचार के देखो कि आज तक मानवता के हित के लिए तुमने क्या किया है । तुमने कैसा जीवन - यापन किया है तनिक सोचो । कवि ने सभी आदर्शों , सिद्धान्तों के खोखलेपन को उजागर किया है । कवि ने तुलनात्मकता से स्वार्थियों एवं मानवता - विद्रोहियों का अंकन किया है ।
- लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
- जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,
- स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
- भावना के कर्तव्य--त्याग दिये,
- हृदय के मन्तव्य--मार डाले!
- बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
- तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
- जम गये, जाम हुए, फँस गये,
- अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
- विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
- आदर्श खा गये!
- अब तक क्या किया,
- जीवन क्या जिया,
- ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
- मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..."
व्याख्या
अरे स्वार्थी मानव तूने अपने स्वार्थों के लिए मानवीय हित रूपी पिता को और जन - मन में परिव्याप्त करुणा की भावना रूपी माँ को अपने मन रूपी जीवन के घर से निकाल दिया है और बदले में स्वार्थ के भयावह टेरियर कुत्तों को पाल लिया है , ताकि तुम्हारे स्वार्थों की रक्षा हो सके । सहज उदात मानवीय भावनाएँ एवं पावन कर्तव्यों को त्याग दिया है और अपने हृदय के सभ्य भाव - विचारों को स्वार्थी बर्बरता से मार डाला है । इसी तरह उचित - अनुचित का ज्ञान रखने वाली बुद्धि का मस्तक ही फोड़ दिया है और तर्क के हाथ तोड़ दिए हैं । अर्थात् आज के जीवन में हृदय , बुद्धि एवं तर्क के औचित्य के लिए कहीं भी स्थान नहीं रहा है । इस तरह आज सद्भाव , मानवीय विचार परम्परित स्वार्थ के कीचड़ में धंस कर रह गए हैं । तुमने स्वार्थ के तेल में सूझों को बघार कर , तन - भुनकर रख दिया है । तुम अपने आदर्श , मूल्य खा गए हो । हे स्वार्थी बताओं तुमने अब तक मानवता के हित के लिए क्या किया है ? कैसा जीवन जिया ? तुमने जीवन में अधिक से अधिक स्वार्थ साधने की कोशिश की है । अतः तुमने मानवता के हित के लिए कुछ नहीं किया है या बहुत कम किया जबकि अपने हित के लिए अधिकाधिक किया है ।
- एकाएक मुझे भान !!
- पीछे से किसी अजनबी ने
- कन्धे पर रक्खा हाथ।
- चौंकता मैं भयानक
- एकाएक थरथर रेंग गयी सिर तक,
- नहीं नहीं। ऊपर से गिरकर
- कन्धे पर बैठ गया बरगद-पात तक,
- क्या वह संकेत, क्या वह इशारा?
- क्या वह चिट्ठी है किसी की?
- कौन-सा इंगित?
- भागता मैं दम छोड़,
- घूम गया कई मोड़!!
- बन्दूक़ धाँय-धाँय
- मकानों के ऊपर प्रकाश-सा छा रहा गेरुआ।
- भागता मैं दम छोड़
- घूम गया कई मोड़।
- घूम गयी पृथ्वी, घूम गया आकाश,
- और फिर, किसी एक मुँदे हुए घर की
- पत्थर, सीढ़ी दिख गयी, उस पार
- चुपचाप बैठ गया सिर पकड़कर!!
- दिमाग में चक्कर
- चक्कर........भँवरें
- भँवरों के गोल-गोल केन्द्र में दीखा
- स्वप्न सरीखा—
व्याख्या
कवि को सहसा अहसास हुआ कि किसी अपरिचित ने आकर कंधे पर हाथ रख दिया है । इससे चौंककर कवि के सिर से पैर तक थर - थर कंपन हो गई । कवि को लगा कि ऊपर से बरगद का पत्ता गिरा है । कवि कहता है कि वह किस बात का संकेत एवं इशारा है । क्या वह किसी का पत्र है ? कवि बरगद से प्रश्न करता है कि क्या वह जीवन रूपी बरगद की आत्मा का पत्र है अर्थात् क्या वह शोषितों , गरीबों , पीड़ितों की आत्मा की आवाज है ? कवि कहता है कि मैं साहस छोड़ कर भागने लगा और विचारों के कई मोड़ काट गया । मुझे लगा कि बंदूक से धांय - धांय गोलियाँ दागी जा रही हैं और इनसे निकली आग के कारण मकानों पर गेरुआ प्रकाश - छा गया है । मैं अपने ही विचारों के कई मोड काट गया हूँ । मुझे पृथ्वी और आकाश भी घूमते हुए नजर आए । फिर मुझे एकाएक किसी बन्द मकान की पथरीली सीढ़ियां दिखाई दी । इन सीढ़ियों पर मैं अपना सिर पकड़कर भुपचाप बैठ गया । बैठने पर भी दिमाग में भिन्न - भिन्न विचारों के चक्कर चल रहे थे । ऐसा लग रहा था मानो विचार किसी भँवर में फंस कर रह गए हैं । उन्हीं भंवरों में मंडराता एक स्वप्न दिखा ।
- हाय, हाय! मैंने उन्हे गुहा-वास दे दिया
- लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित
- जनोपयोग से वर्जित किया और
- निषिद्ध कर दिया
- खोह में डाल दिया!!
- वे ख़तरनाक थे,
- (बच्चे भीख माँगते) ख़ैर...
- यह न समय है,
- जूझना ही तय है।
व्याख्या
कवि कहता है कि बड़े दुःख की बात है कि मैंने मानवता का हित करने वाले विचारों को जानबूझ कर अन्तर्मन की गुफा में भेज दिया है जबकि इन विचारों की अभिव्यक्ति से लोक - क्षेत्र लाभान्वित हो सकता था लेकिन मैंने अपने स्वार्थ हेतु हठधर्मिता से लोगों को इन विचारों से वंचित रखा । उन्हें गुफाओं के अंधकार में डालकर बन्ध कर दिया है क्योंकि उनके प्रति खतरनाक होने की सम्भावना थी और यह समय आलोचना करने का नहीं है , यह समय तो वर्तमान परिस्थितियों से संघर्ष करने का है ।
- सीन बदलता है
- सुनसान चौराहा साँवला फैला,
- बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर,
- ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद,
- साँवली हवाओं में काल टहलता है।
- रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,
- मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,
- चार अलग कोण,
- कि चार अलग संकेत
- (मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ)
- खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं,
- शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास
- बेचैन ख़यालों के पंखों के कीड़े
- उड़ते हैं गोल-गोल
- मचल-मचलकर।
- घण्टाघर तले ही
- पंखों के टुकड़े व तिनके।
- गुम्बद-विवर में बैठे हुए बूढ़े
- असम्भव पक्षी
- बहुत तेज़ नज़रों से देखते हैं सब ओर,
- मानो कि इरादे
- भयानक चमकते।
व्याख्या
कवि कहता है कि सीन बदलता है । एक सूनसान चौराहा है जिस पर अँधेरा - सा छाया हुआ है । उस चौराहे के बीच में लाल रंग का एक घण्टाघर है अर्थात् चारों ओर के वातावरण में विभिन्न मतवादों के फैले अंधेरे के बीच एवं क्रान्ति का मतवाद भी है और यह मत मार्क्सवादी विचारधारा का है । उस घण्टाघर के ऊपर कत्थई रंग के पुराने गुम्बद हैं । वहाँ लगता है कि उस अंधेरे में स्वयं काल टहल रहा है । उस काल - पुरुष के प्रभाव से चार पीली पड़ी रुपी चेहरे हैं । उनमें मिनटों को दर्शाने वाली चार सुइयाँ हैं अर्थात् अलग - चार अलग - अलग विचारधाराओं को दिखाने वाली सुईयों हैं । उनके चार अलग ही कोण बन रहे हैं । अर्थात् चार मत एवं खेमे बने हुए हैं । इनके अलग - अलग संकेत मेरे मानस को भी चार अलग - अलग दिशा में गतिशील कर रहे हैं । आस - पास के खम्बों पर लटकते बल्ब ऐसे लगते हैं जसे बिजली की गर्दनें लटक रही हों । लगता है ये बल्ब शरमा रहे हों और उन बल्बों के आस - पास मचल - मचलकर उन्हीं के पास समान गोल पंखों वाले बेचैन ख्याल रूपी कीडे उड़ उस घण्टाघर के नीचे नुथे हुए पंखों के टुकड़े और बीट तथा तिनके बिखरे पड़े हैं । पंखों के टुकड़े , बीट और तिनके प्राचीनता का प्रतीक है । इसीलिए कवि कहता है कि इन्हें आज त्याग दिया गया है । घण्टाघर के गुम्बद के छिद्रों में जो असम्भव पक्षी बैठे हैं वे बड़ी पैनी नजर से चारों ओर की गतिविधियों को देख रहे हैं । इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि जैसे इरादे इनके भयानक हैं ।
- हाय, हाय, पितः पितः ओ,
- चिन्ता में इतने न उलझो
- हम अभी ज़िन्दा हैं ज़िन्दा,
- चिन्ता क्या है!!
- मैं उस पाषाण-मूर्ति के ठण्डे
- पैरों की छाती से बरबस चिपका
- रुआँसा-सा होता
- देह में तन गये करुणा के काँटे
- छाती पर, सिर पर, बाँहों पर मेरे
- गिरती हैं नीली
- बिजली की चिनगियाँ
- रक्त टपकता है हृदय में मेरे
- आत्मा में बहता-सा लगता
- ख़ून का तालाब।
- इतने में छाती के भीतर ठक्-ठक्
- सिर में है धड़-धड़ !! कट रही हड्डी!!
- फ़िक्र जबरदस्त!!
- विवेक चलाता तीखा-सा रन्दा
- चल रहा बासूला
- छीले जा रहा मेरा निजत्व ही कोई
- भयानक ज़िद कोई जाग उठी मेरे भी अन्दर
- हठ कोई बड़ा भारी उठ खड़ा हुआ है।
व्याख्या
कवि अपनी अन्तश्चेतना में लोकमान्य तिलक की प्रतिमा को रक्तरंजित एवं चिन्तित देखकर आश्वस्त भरे स्वर में कहता है कि हे क्रान्ति के विचारों के प्रणेता पिता ! तुम चिन्ताओं में इतने मत उलझों । अभी हम जिन्दा है अर्थात तुम्हारे क्रान्तिकारी विचारों को जीवित रखने के लिए हम जिन्दा है । अतः तुम्हें चिन्ता नहीं करनी चाहिए । इतना कहता हुआ कवि प्रतिमा के पैरों को बरबस अपने हृदय से लगा लेता है । कवि रोने - सा हो गया उसका कण्ठावरोध हो गया । मेरे सारे शरीर में करुणा के कांटे चुभने लगे अर्थात् कण - कण से करुणा व्यक्त होने लगी । मेरे सिर , छाती और बाहों पर बिजली की नीली चिंगारिया - सी गिरने लगी । अर्थात् मेरा मस्तिष्क , मेरा हृदय और मेरी बाहें सभी क्रान्ति लाने की भावना से फड़क उठे । मुझे लगता कि मेरे हृदय में खून की बूंदें टपकने लग गयी हैं और इनसे मेरी आत्मा का लालाच भरता ही जा रहा है । अर्थात् मेरा खून कुछ करने के लिए मचल रहा है । आगे कवि कहता है कि इतने में ही मुझे अपनी छाती के भीतर से ठक ठक कर ठोकने और सिर में घड़ - धड करने की आवाज सुनने लगी । मुझे ऐसा लगा कि कोई शक्ति मेरी भीतरी हड्डी को काट रही है । यह सब महसूस कर मैं बहुत ज्यादा चिन्तित हैं । विवेक अपने तीखे रन्दे से मेरे विचारों को तराशने लग गया । मुझे ऐसा लगा कि कोई वसूला चलाकर मुझसे मेरे निजत्व को ही छील - तराश कर अलग कर देना चाहता है । किसी महत्वपूर्ण कार्य को करने की जिद्द , हठ मेरे अन्दर जाग उठी । अर्थात् क्रांति लाने की जिद्द मेरे अन्दर उठी ।
- अँधेरे की स्याही में डूबे हुए देव को सम्मुख पाकर
- मैं अति दीन हो जाता हूँ पास कि
- बिजली का झटका
- कहता है-"भाग जा, हट जा
- हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे
- आगे तू बढ़ जा।"
- किन्तु मैं देखा किया उस मुख को।
- गम्भीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही,
- शब्दों में गुरुता।
- वे कह रहे हैं--
- "दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
- दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
- कोई भी मुरग़ा
- यदि बाँग दे उठे जोरदार
- बन जाये मसीहा"
- वे कह रहे हैं--
- मिट्टी के लोंदे में किरगीले कण-कण
- गुण हैं,
- जनता के गुणों से ही सम्भव
- भावी का उद्भव ...
- गम्भीर शब्द वे और आगे बढ़ गये,
- जाने क्या कह गये!!
- मैं अति उद्विग्न!
व्याख्या
उस अंधेरे अर्थात् अतीत की कालिमा में डूब चुके अर्थात् व्यतीत हो चुके उस देवपुरुष ( गांधी ) को मैं अपनी अन्तश्चेतना के सम्मुख पाकर में अत्यधिक दीन बनकर उसके सम्मुख पहुँचने की कोशिश करता हूँ । तभी बिजली सा झटका कहता है - अरे दूर हट जा । यहाँ से हट जा भाग जा । हम तो बीते युग के चेहरे हैं अर्थात् हमारे पास तो बीते युग की केवल यादें ही हैं । हमें पीछे छोड़कर तू आगे बढ़ जा । मैं चेतना में उभरे गांधी के चेहरे को एक आशा - भरी नजर से देख रहा था । उनके चेहरे पर दृढ निश्चय लेने की गंभीर सलवटें पहले के समान ही थी । उनके शब्दों में गंभीरता एवं गरिमा भी पहले ही जैसी थी । अर्थात् आज भी वे प्रत्येक स्थिति का सामना करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए लग रहे थे । कवि कहता है कि ऐसा लगता है कि मेरी चेतना में उभरे गांधी मुझे कह रहे हैं कि यह दुनिया गए बीते कुड़े करकट का देर नहीं है । जिस पर दाना चुगने के लिए कोई भी मुर्गा चढ़ आया और वह जोरदार बांग देने लगे तो उसे मसीहा मान लिया जाय । अर्थात् जैसे केवल बांग देने वाला मुर्गा महत्व नहीं रखता उसी प्रकार कोरे सिद्धान्तों का भाषण देने वाला महत्व नहीं रखता और न ही वह युग नेता बन सकता है । वे पैगम्बर और भी कहते हैं कि मिट्टी के ढेलों से खुरने वाले कणों में ही कुछ उत्पन्न कर सकने के गुण हुआ करते हैं । कवि का कहना है कि जो जनता अपने को मिट्टी का लोदा समझ रही है । उसके होने पर सुखद भविष्य की संभावना है । इस प्रकार मेरी चेतना में उभरे गांधी के मुख से गुंजते शब्द और भी बहुत कुछ कह गए और मैं उद्विग्न सा होकर सुनता रहा ।
- सहसा रो उठा कन्धे पर वह शिशु
- अरे, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित!!
- पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना था,
- उसमें तो स्फोटक क्षोभ का आयेगा,
- गहरी है शिकायत,
- क्रोध भयंकर।
- मुझे डर यदि कोई वह स्वर सुन ले
- हम दोनों फिर कहीं नहीं रह सकेंगे।
- मैं पुचकारता हूँ, बहुत दुलारता,
- समझाने के लिए तब गाता हूँ गाने,
- अधभूली लोरी ही होठों से फूटती!
- मैं चुप करने की जितनी भी करता हूँ कोशिश,
- और-और चीख़ता है क्रोध से लगातार!!
- गरम-गरम अश्रु टपकते हैं मुझपर।
व्याख्या
कवि कहता है कि कंधे पर बैठा वह शिशु एकाएक रोने लगा । उसका रोने का स्वर कवि को जाना - पहचाना लगने लगा । इस प्रकार का स्वर तो पहले भी कई जगह सुना था अर्थात् पहले भी क्रांति के स्वर कई जगह , कई बार सुने थे । उसके स्वर में विस्फोट भरा क्रोध है उसे जो शिकायत है वह गहरी है अर्थात उसकी शिकायत सही है । उसका उसके प्रति क्रोध उसके इस स्वर को सत्ता के , व्यवस्था के ठेकेदार न सुन ले । अगर उन्होंने इसे सुन लिया तो वे लोग हम दोनों को ही नष्ट कर देंगे । यह विचार आते ही कवि बच्चे को चुप करने के लिए प्यार से सहलाता है , दुलारता है . पुचकारता है । पर कवि जितना भी चुप कराने की कोशिश करता है । वह उतना ही अधिक क्रोधित होकर चीखता , चिल्लाता है । फिर बच्चे की आँखों से आंसू वो भी गर्म - गर्म जो कि क्रांति का सूचक है कवि पर टपककर उसके तन - मन को भिगोने लगे ।
- किन्तु, न जाने क्यों ख़ुश बहुत हूँ।
- जिसको न मैं जीवन में कर पाया,
- वह कर रहा है।
- मैं शिशु-पीठ थपथपा रहा हूँ,
- आत्मा है गीली।
- पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे जा रहा।
- डूबता हूँ मैं किसी भीतरी सोच में--
- हृदय के थाले में रक्त का तालाब,
- रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँ,
- रुधिर से फूट रहीं लाल-लाल किरणें,
- अनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्प,
- और ये संकल्प
- चलते हैं साथ-साथ।
- अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ।
व्याख्या
कवि के मन में बच्चे के रोने से कई प्रकार की आशंकाएँ उठती हैं पर आशंकाओं के बावजूद भी कवि को प्रसन्नता का अनुभव रहता है । कवि को खुशी है कि वह चाहकर भी जो आज तक नहीं कर पाया था । आज उसी जन - स्वतन्त्रता रूपी शिशु को सम्भालने का दायित्व भार कंधों पर आ गया है । इसी अनुभूति के कारण कवि शिशु की पीठ थपथपाता है । उसे चुप करने की कोशिश करता है । ऐसे करते समय कवि की आत्मा करूणा से भर जाती है । पैर भी , मन भी क्रान्ति की ओर निरन्तर बढ़ते लग रहे हैं । अन्तर्मन किसी गहरी सम्वेदना में उतर महसूस करने लगता है कि जैसे हृदय - रूपी थाली में रूधिर का एक सरोवर - सा उमड़ने लगता है । उसमें लाल - लाल मणिमा चमक रही हैं । अर्थात् कवि के मन में अनेक स्वर्णिम अनुभूतियों होती है । उसी अनुभव के रक्त में अनेक संकल्प तैरते प्रतीत होते हैं । अधेरी गलियों में उस नन्हें शिशु के साथ चलते हुए रक्त में नहाए अनेक प्रकार के संकल्प भी उसी के साथ चलते दिखाई देते हैं ।
- खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,
- झाँकते हैं खिड़कियों में से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे
- फैली है बर्फ़ीली साँस-सी वीरान,
- तितर-बितर सब फैला है सामान।
- बीच में कोई ज़मीन पर पसरा,
- फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आख़िर।
- मैं उस जन पर फैलाता टार्च कि यह क्या--
- ख़ून भरे बाल में उलझा है चेहरा,
- भौहों के बीच में गोली का सूराख़,
- ख़ून का परदा गालों पर फैला,
- होठों पर सूखी है कत्थई धारा,
- फूटा है चश्मा नाक है सीधी,
- ओफ्फो!! एकान्त-प्रिय यह मेरा
- परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ,
- सचाई थी सिर्फ़ एक अहसास
- वह कलाकार था
- गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था
- पर, कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति,
- चलाता था अपना असंग अस्तित्व।
- सुकुमार मानवीय हृदयों के अपने
- शुचितर विश्व के मात्र थे सपने।
- स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो--
- हलचल करता था रह-रह दिल में
- किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो।
- शून्य के जल में डूब गया नीरव
- हो नहीं पाया उपयोग उसका।
- किन्तु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुज़रा कि
- सन्देहास्पद समझा गया और
- मारा गया वह बधिकों के हाथों।
- मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अन्तर
- मुक्ति के यत्नों के साथ निरन्तर
- सबका था प्यारा।
- अपने में द्युतिमान।
- उनका यों वध हुआ,
- मर गया एक युग,
- मर गया एक जीवनादर्श!!
- इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई।
- सवाल है-- मैं क्या करता था अब तक,
- भागता फिरता था सब ओर।
- (फ़िजूल है इस वक़्त कोसना ख़ुद को)
- एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूँ
- पाऊँ मैं नये-नये सहचर
- सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!
व्याख्या
कवि कहता है कि कमरा खुला है पर षडयन्त्र रूपी संवलाई हवा बह रही है । दूर अंधेरे आकाश पर टंगे तारे खिड़कियों से झोंक रहे हैं अर्थात् दूर - दूर तक टोह हो रही है । वातावरण में सूनापन फैला हुआ है । सारा सामान अव्यवस्थित है । उस सब के बीच में बाहें फैलाये कोई गिरकर अंततोगत्वा पसराया फैला - सा या गिर पड़ा है । उसके शरीर पर टार्च मारने पर स्पष्ट दीख जाता है । एकदम कवि के अन्तस् से आवाज निकलती है - ओह ! यह क्या ? उसका चेहरा खून भरे बालों में उलझ रहा है । उसकी भौंहों के बीच में गोली लग जाने का एक सूराख है । उसके गालों पर खून की परतें जमी हुई हैं । खून की सूख कर कत्थे जैसी बन गई धारा उसके होठों पर जम गई है । उसका चश्मा टूट गया है । लेकिन नाक सीधी है । अर्थात् सम्मान उसका ज्यों का त्यों ही है । ओफ हो ! मेरे एकान्त का यह परिचित है । अर्थात् मेरा अन्तर्मन इसकी शक्ति से परिचित है । वस्तुतः यह महान कलाकार था और सच्चाई ही इसका अहसास था । गलियों के अंधेरे ने मन को चिन्तित कर रखा था । फिर भी कार्य करने की शक्तियों से सर्वथा विरहित होकर यह जो व्यक्ति पड़ा है , वह नितांत निजी और व्यक्तित्व के लिए , अपने पथ पर निरन्तर चला जा रहा था । इस महान व्यक्तित्व के संबल कोमल और एकाकी पवित्रतर मानवता के हृदय में पलने वाले महानता के स्वप्न हैं । मानवता हित एवं सुखद भविष्य के लिए इसके मन में जो कल्पनाएं थी , ज्ञान और जीवन के महान् अनुभव थे , उनको वह साकार नहीं कर सका था और न ही संसार को दे सका था । आज वह बर्वरता की आग में जला दिया गया है । उसे मार दिया गया है । उसके ज्ञान , अनुभव का जीवन के लिए कोई उपयोग नहीं हो पाया । पता नहीं किस मोड़ पर , झक में उसने क्या कर दिया । उस पर संदेह किया जाने लगा और उसे पापी हत्यारों के हाथों मार डाला गया । उसका हृदय तो सम्पूर्ण मानवता की मुक्ति का प्यासा था । वह मानवता की मुक्ति का प्रयास करता रहा इसीलिए वह सभी का प्यारा था । वह अपने मन मस्तिष्क से मानवता के आलोक से आलोकित था । उसका इसी तरह वध किया । अर्थात् यह मानवता का वध हुआ । उसके साथ ही एक पूरा युग मर गया । जीवन का महान् आदर्श भी मर गया है । इन विचारों में डूबे देख कोई मुझे चिढ़ाता है । प्रश्न है - मैं अब तक क्या कर रहा था ? मैं भिन्न - भिन्न विचारों में भटकता हुआ सभी दिशाओं में भाग - दौड़ ही रहा था अर्थात् मैं बौद्धिकता एवं वैचारिकता के स्तर पर कहीं भी स्थिर नहीं हो पाया था । पर इस समय अपने को कोसना फजूल है । इस समय तो नए - नए दोस्तों के खोजने की आवश्यकता है जो सक्रिय रूप से नित्य सत्यों और सहज मानवीय वेदनाओं के सूर्य के समान प्रज्ज्वलित हो । अर्थात् उन मित्रों की आवश्यकता है जो सत्य को , मानवीय वेदना को पहचान कर कुछ करें ।
- रिहा!!
- छोड़ दिया गया मैं,
- कोई छाया-मुख अब करते हैं पीछा,
- छायाकृतियाँ न छोड़ी हैं मुझको,
- जहाँ-जहाँ गया वहाँ
- भौंहों के नीचे के रहस्यमय छेद
- मारते हैं संगीत--
- दृष्टि की पत्थरी चमक है पैनी।
- मुझे अब खोजने होंगे साथी--
- काले गुलाब व स्याह सिवन्ती,
- श्याम चमेली,
- सँवलाये कमल जो खोहों के जल में
- भूमि के भीतर पाताल-तल में
- खिले हुए कबसे भेजते हैं संकेत
- सुझाव-सन्देश भेजते रहते!!
व्याख्या
कवि कहना चाहता है कि मैं विभिन्न वैचारिक धारणाओं में मुक्ति का अनुभव करता हूँ । अर्थात् कवि की अंतश्चेतना मुक्ति का अनुभव करती है । फिर भी कवि को लगता है कि जहाँ भी जाता हूँ वहाँ कई प्रकार की परछाईयाँ निरन्तर पीछा करती रहती है । ये परछाइयाँ नए संगीत का आभास कराने का प्रयास करती रहती है । ये रहस्यमयी छायाएँ कहीं भी कवि का पीछा नहीं छोड़ती । इनकी पथराई दृष्टियों की चमक बहुत तेज है । वह अन्तर्मन तक को बेधने में सक्षम है । कवि कहता है कि मुझे अब साथियों के रूप में काले गुलाब , स्याह सिवन्नी और श्याम चमेली के फूल खोजने होंगे । अर्थात् विषमताओं से उत्पीडित विवश मेरे साथी होंगे । मुझे वे कमल खोजने होंगे जो काले पड़ गए हैं । और जो खड़े जैसे जीवन के चल की पाताली गहराई में धंसे संकर्ता की भाषा में अपने सुझाव और संदेश भेजा करते हैं । अर्थात मेरी प्रेरणा का स्रोत वे ही बन सकते हैं जो युगों - युगों से विवशता का जीवन यापन कर रहे हैं ।
- अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
- उठाने ही होंगे।
- तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
- पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
- तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
- जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
- अरुण कमल एक
- ले जाने उसको धँसना ही होगा
- झील के हिम-शीत सुनील जल में।
- जादुई झील को करनी ही होगी मेरी प्रतीक्षा ।
व्याख्या
कवि कहता है कि यहाँ अपने विचारों को स्वतन्त्र रूप से व्यक्त करने की छूट नहीं है । जीवन के घिनाने यथार्थ को व्यक्त करना ही होगा । उसे खत्म करने के लिए अपने क्रान्तिकारी विचारों को प्रकट करना ही होगा । इनके व्यक्त करने के लिए भले ही कितने ही खतरों का सामना करना पड़े अर्थात् सत्ता का कोपभाजन बनना पड़े । लेकिन सब कुछ झेलना पड़ेगा । मानवता के विरोधी जितने भी मठ एवं गढ़ है सभी को तोड़ना ही होगा और मानवता का विकास करना ही होगा । इस कार्य के लिए जो भी पहाड़ रूपी प्रतिरोध खड़े हैं उन्हें तोड़कर उनके पार जाना ही होगा । तभी वे बांहें देखने को मिलेंगी जिनमें प्रत्येक क्षण क्रान्ति का सूचक लाल कमल कांप रहा है । उस कमल को लाने के लिए इस विषमता के शीतल जल में फँसना ही होगा ।
- भागता मैं दम छोड़
- घूम गया कई मोड़,
- ध्वस्त दीवालों के उस पार कहीं पर
- बहस गरम है
- दिमाग़ में जान है, दिलों में दम है
- सत्य से सत्ता के युद्ध को रंग है,
- पर कमजोरियाँ सब मेरे संग हैं,
- पाता हूँ सहसा--
- अँधेरे की सुरंग-गलियों में चुपचाप
- चलते हैं लोग-बाग
- दृढ़-पद गम्भीर,
- बालक युवागण
- मन्द-गति नीरव
- किसी निज भीतरी बात में व्यस्त हैं,
- कोई आग जल रही तो भी अन्तःस्थ।
व्याख्या
कवि कहता है कि मैं साहस छोड़ भाग लेता हूँ । मैं भागता - भागता विचारों के कई मोड़ काट जाता है । जहाँ मैं जाता हूँ वहाँ परम्परा की टूटी - फूटी दीवारों के पार कहीं उत्तेजनापूर्ण गर्म - गर्म बहस हो रही है । उसे सुनकर ऐसा लगता है कि लोगों के बौद्धिकता में काफी जीवन्तता है । उनके दिलों में कुछ कर गुजरने की हिम्मत भी है । आज सत्य और शासन में जो युद्ध चल रहा है , बहस एवं तर्कों का केन्द्र बिन्दु वही है । पर हमारे साथ अनेक कमजोरियों , दुर्बलताएँ भी जुड़ी हैं । सहसा अनुभव होता है कि विचारों एवं मनोमानों की अंधेरी गलियों में लोगों के चुपचाप चलते हुए भी उनके कदम दृढ़ गम्भीर है । अर्थात् उनमें वैचारिक गम्भीरता आ रही है । बालक , युवक , सभी मौन और मन्दगति से अपने भीतरी विचारों की उलझन में फंसे हुए हैं । सभी के भीतर ही भीतर कोई आग जरूर जल रही है । लेकिन वह आग प्रकट नहीं हो पा रही है ।
- गलियों के अँधेरे में मैं भाग रहा हूँ,
- इतने में चुपचाप कोई एक
- दे जाता पर्चा,
- कोई गुप्त शक्ति
- हृदय में करने-सी लगती है चर्चा!!
- मैं बहुत ध्यान से पढ़ता हूँ उसको!
- आश्चर्य!
- उसमें तो मेरे ही गुप्त विचार व
- दबी हुई संवेदनाएँ व अनुभव
- पीड़ाएँ जगमगा रही हैं।
- यह सब क्या है!!
व्याख्या
कवि कहता है कि मैं अंधेरी गलियों में भाग रहा होता हूँ कि कोई मेरे हाथ में एक पर्चा थमा देता है । कवि के कहने का तात्पर्य है कि अभी तक कुछ करने के लिए कोई भी विचार स्पष्ट नहीं है कि कोई हाथ में पर्चा थमा जाता है । उस पर्चे को पाकर मेरा अन्तर्मन स्वयं से ही विचार - विमर्श करने लगता है और कुछ तर्क - वितर्क के बाद मैं उस पर्चे को खोलकर देखता हूँ और बड़े ही ध्यान से पढ़ता हूँ । कवि यह जानकर हैरान हो जाता है कि इस पर्चे में तो उन्हीं के संचित विचार है । गरीबों , शोषितों के प्रति दबी हुई संवेदनाएँ है और इस घिनौने जीवन का यथार्थ अनुभव है । शोषकों के , सत्ता के दिए दुःखों की पीड़ाएँ तारों की भाँति जगमगा रही है । आखिर यह सब क्या है । अर्थात् यह मेरी ही अभिव्यक्ति इस पर्चे में कैसे व्यक्त हुई मिली है ।
- आसमान झाँकता है लकीरों के बीच-बीच
- वाक्यों की पाँतों में आकाशगंगा-फैली
- शब्दों के व्यूहों में ताराएँ चमकीं
- तारक-दलों में भी खिलता है आँगन
- जिसमें कि चम्पा के फूल चमकते
- शब्दाकाशों के कानों में गहरे तुलसी श्यामल खिलते हैं
- चेहरे !!
- चमकता है आशय मनोज्ञ मुखों से
- पारिजात-पुष्प महकते ।
- पर्चा पढ़ते हुए उड़ता हूँ हवा में,
- चक्रवात-गतियों में घूमता हूँ नभ पर,
- ज़मीन पर एक साथ
- सर्वत्र सचेत उपस्थित।
- प्रत्येक स्थान पर लगा हूँ मैं काम में,
- प्रत्येक चौराहे, दुराहे व राहों के मोड़ पर
- सड़क पर खड़ा हूँ,
- मानता हूँ, मानता हूँ, मनवाता अड़ा हूँ!!
व्याख्या
कवि कहता है कि एक निश्चित विचारधारा से उत्साहित होकर चलने वाले लोगों की पंक्तियों के बीच मुझे आकाश झाँकता हुआ दिखाई देता है । अर्थात् उनके सभ्य इरादे स्पष्ट दिखाई देते हैं । कवि को पर्चे की रेखाओं में आकाश , पंक्तियों में आकाश गंगा अर्थात् शब्दों के घेरों में जगमगाते तारे दिखाई देते हैं । ऐसा लगता है कि तारों के जगमगाते आँगन में चम्पा - चमेली के फूल खिलकर वातावरण को सुगन्धित बना रहे हैं । पर्चे में जो शब्द लिखे गए हैं उनके आकाश कोणों में हरीतिमा लिए सांवले तुलसीदल चमक रहे हैं । उनके सुन्दर मुों से चमचमाता हुआ आशय अभिव्यक्त हो रहा है कि जैसे पारिजात के स्वर्गीय फूल महक रहे हैं । कवि को वह नयी चेतना , नयी प्रेरणा देने वाला लगता है । कवि कहता है कि उस पर्चे को पढ़कर , उसमें अभिव्यक्त सामूहिक संवेदना को समझकर मैं हवा में उड़ने लगता हूँ । मेरा मन हवा के चक्रवातों में उड़ने वाले पत्तों के समान आकाश की ऊँचाइयों में उड़ने - घूमने लग जाता है । लेकिन उसी क्षण में अपने को जमीन पर भी अनुभव करता हूँ । अर्थात् मेरा मन कल्पना की ऊँचाइयों में उड़ता हुआ भी जीवन के यथार्थ से अलग नहीं होता । कवि अनुभव करता है कि धरती हो या आकाश , प्रत्येक जगह मैं अपने क्रान्तिकारी कार्यो में लगा हूँ । प्रत्येक रास्ते , दुराहे , चौराहे पर , सड़क के बीच में लोगों की बातें मानता और लोगों को अपनी बात मनवाने के लिए अडा - खड़ा हूँ ।
- कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
- वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
- पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
- स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
- छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
- जन को।
व्याख्या
कवि की चेतना एक मोड़ काट कर कहने लगी कि कविता के माध्यम से उपदेशात्मक तरीके से कुछ कहने की आदत तो नहीं फिर भी कह देता हूँ कि जड़ पत्थरों से बनी सामाजिक मूर्ति का चलन संभव नहीं है । वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था पर टिका समाज चल नहीं सकता क्योंकि शोषकों का हृदय परिवर्तन करना संभव नहीं है । यह मानवता की स्वतन्त्रता का प्रतिवादी है । ओर इस प्रतिवादी के सामने मानवीय स्वतन्त्रता का वादी मन अब मानव की मुक्ति को अधिक छल चोखा नहीं दे सकता । वह अब जनता को और अधिक दिनों के लिए भुलावे में नहीं रख सकता । अब मानवता की स्वतन्त्रता अनिवार्य ही है । कवि ने पूँजीवाद के विरूद्ध समाजवाद की घोषणा की है ।
- सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
- चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
- उनके ख़याल से यह सब गप है
- मात्र किंवदन्ती।
- रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
- नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
- प्रश्न की उथली-सी पहचान
- राह से अनजान
- वाक् रुदन्ती।
- चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,
- कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई।
व्याख्या
कवि सम्पूर्ण वातावरण को देखकर कहता है कि कहीं आग लगी हुई है कहीं गोली चली है पर समस्त बुद्धिजीवी वर्ग गूंगा बना हुआ है , मौन है । साहित्यकार , कवि , दार्शनिक , कलाकार , विचारक , नर्तक आदि सब के सब मान है , कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहे हैं । उनके ख्याल में ये क्रान्ति की घटनाएँ कोरी झूठ है । शोषक वर्ग से जन्मजात रूप से ये सत्य पर विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि ये बुद्धिजीवी लोग तो नपुंसक बनकर सिर्फ भोग - विलास की क्रियाओं एवं गतिविधियों में लगे रहते हैं । आम लोग जिन प्रश्न एवं समस्याओं से जूझ रहा है , उसके बारे में इनकी पहचान केवल ऊपरी है । लोक क्रान्ति से अनजान , अपरिचित ये बुद्धिजीवी लोग सिर्फ बातें का रोना - धोना ही रखते हैं । करते - कराते कुछ नहीं है । इनका हृदय तो किसी नितान्त निष्ठुर व्यक्ति ने इन्हीं की चेतना पर सवार होकर कुचल दिया है । अतः कहीं आग लगे , गोली चले , क्रान्ति हो इन्हें कोई सरोकार नहीं है ।
- भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
- समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल।
- गढ़े जाते संवाद,
- गढ़ी जाती समीक्षा,
- गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।
- बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
- किराये के विचारों का उद्भास।
- बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।
- नपुंसक श्रद्धा
- सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,
- कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
- धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार
- द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,
- एक स्पिलट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार।
- टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।
- रक्त में बहती हैं शान की किरनें
- विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी,
- कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
व्याख्या
कवि कहता है कि समाज में चारों ओर उथल - पुथल हो रही है । क्रान्ति हो गयी है । परिवर्तन आ रहे हैं । लेकिन समाचार पत्र मौन है । क्रान्ति की लहर में कोई भूमिका नहीं निबाह रहे हैं । उनके पूंजीपति मालिकों ने अपने मुँह भव्य भवनों के छिद्रों में छिपा लिए हैं । अर्थात् अपने विलासी भवनों में विलासिता में डुबे हुए हैं । उनमें सत्य को निकालकर समाचार - पत्रों में छापने का साहस ही नहीं है । ये संपादक तो समाचारों को , समीक्षाओं को , टिप्पणियों को कल्पनाओं से रचते हैं । जन मानस के हृदय में तीर की तरह चुभन वाला समाचार जरूर रचते हैं । इसी तरह समस्त बुद्धिजीवी वर्ग सत्ता का खरीदा हुआ गुलाम है उसी के समर्थन से , इशारे से अपने विचार प्रकट करता है । इन्हीं भाड़े के गुलामों के कारण बड़े - बड़े जन - सेवकों , आन्दोलनकारियों के चेहरे पर कालिमा लग गई है । ऐसे लोग अगर क्रान्ति के प्रति कुछ श्रद्धा भाव विखाते भी है तो उसे नपुंसकता ही कहा जाएगा । वह श्रद्धा गटरों के नीचे छिपे कीचड़ और गन्दगी से अधिक महत्त्व रखने वाली नहीं क्योंकि चाहे कहीं आग लगे , गोली चले , क्रान्ति फैले इन बुद्धिजीवियों को कोई मतलब नहीं ।
- एकाएक फिर स्वप्न भंग
- बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला।
- मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं।
- पर उन दुखते हुए रन्ध्रों में गहरा
- प्रदीप्त ज्योति का रस बस गया है।
- मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय,
- अर्थों की वेदना घिरती है मन में।
- अजीब झमेला।
- घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास
- आत्मा में चमकीली प्यास भर गयी है।
- जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको
- मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा
- प्रेम कर लिया हो
- जीवन भर के लिए !!
- मानो कि उस क्षण
- अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर
- कस लिया था इस भाँति कि मुझको
- उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है,
- याद आ रही है !!
- अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?
व्याख्या
कवि कहता है कि मैं अपने अन्तर्मन में विचारों के द्वन्द्वों में घिरा जन - चेतन और लाल क्रान्ति के जो सपने देख रहा था , वे एकाएक भंग हो गए । चेतना की यथार्थ भूमि पर आकर मैं अपने को अकेला पाता हैं । वे स्वप्न चित्र मुझे अकेलेपन का अहसास दे गए हैं । सपनों के भंग होने के कारण मेरे मन - मस्तिष्क में रिक्तता के छेद पड़ गए हैं । रिक्तता के इन दुखते छिदों में काल्पनिक लाल क्रान्ति का प्रकाश समा गया था । मैं उन सपनों की वास्तविकता खोजने का प्रयास करता हूँ । उससे जो नव - निर्माण , नव लाल क्रान्ति का आशय स्पष्ट होता है । उसकी पूर्ति के अभाव की वेदना मेरे मन में घिरकर उसे अनवरत आक्रान्त किए जा रही है । मैं इस उलझन में फंसा हूँ । सपनों के अर्थ जो आपूर्ति के घाव दे गए है मेरा मन उन्हीं के आस - पास घुम रहा है । मेरी आत्मा में लाल क्रान्ति की चेतनता , आग समा गई है । मुझे सारा ही संसार उसी आग से बने सुन्दर चित्र के समान दिखाई देता है । मुझे लगता है कि मैंने रात को किसी अयाचित क्षणों में अचानक किसी से प्यार कर लिया है । किसी को जीवन भर के लिए अपना बना लिया हो मानो उस क्षण में किन्हीं बहुत मीठी , कोमल बाहों ने आकर मुझे इस प्रकार से करा लिया था कि उसके स्वप्निल चुम्बनों , स्पर्शों की याद अभी तक मेरे शरीर में बसी हुई है । न जाने वह कौन थी जिसकी याद अब भी है ।
- कमरे में सुबह की धूप आ गयी है,
- गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर
- क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?
- हाय ! यह वेदना स्नेह की गहरी
- जाग गयी क्यों कर?
- सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल
- चुम्बकीय आकर्षण।
- प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,
- मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन
- अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,
- प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ
- झलकता साफ़-साफ़ !
- डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक
- मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,
- मेरे इस कमरे में आकाश उतरा,
- मन यह अन्तरिक्ष-वायु में सिहरा।
व्याख्या
कवि कहता है कि रात के बीत जाने के बाद सुबह के सूर्य की किरणों की धूप गैलरी मे फैल गई है । कमरे के अन्दर भी धूप आ गई है । कवि के स्मृती पटल पर आता है कि क्या कोई प्रेमिका मिलेगी । हाय प्रेम की गहरी पीड़ा मेरी हृदय में कैसे जाग गई । कवि को लगता है कि चारों ओर विद्युत की लहरों की तरह ही हलचल हो रही है । प्रेमिका का प्यार चुम्बकीय आकर्षण बना हुआ है । अपने चारों ओर दिखाई देने वाली प्रत्येक वस्तु अपने - अपने वास्तविक रंग में रंगी रंग - बिरंगे पुष्पों के समान चमकती फैलती दिखाई देने लगती है । इस अलग - अलग छाया में कोई अन्याय झलकता - सा प्रतीत हो रहा है । अर्थात् इन अलग - अलग रंगों से अलग - अलग ही आशय स्पष्ट होता सा दिखाई देता है । मेरे डेस्क पर रखे ग्रन्थों के महान लेखक अवश्य रूप से मेरी इस समय की मानसिक क्रिया - प्रक्रियाओं के दर्शक बन गए हैं । ऐसा लगता है कि सारा आकाश ही मेरे कमरे में उतर आया है । मेरा मन आकाशीय वायु से सिहर उठता है ।
- उठता हूँ, जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ।
- एकाएक वह व्यक्ति
- आँखों के सामने
- गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में
- चला जा रहा है।
- वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में।
- धड़कता है दिल
- कि पुकारने को खुलता है मुँह
- कि अकस्मात्--
- वह दिखा, वह दिखा
- वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...
- उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!
व्याख्या
सूर्योदय हो गया है । धूप भी कमरे में आ गई है । कवि कहता है कि मैं उठकर गैलरी में आकर खड़ा हो जाता हूँ । कवि कह रहा है कि जिस व्यक्ति को मैंने अन्तर्मन की गुफाओं में देखा था वही इस समय गलियों में , सड़कों में और लोगों की भीड़ बाजार में आ जा रहा है । अर्थात् कवि का मन एक बार फिर क्रान्ति की भावनाओं से भर उठता है । कवि उस क्रान्तिधर्मा व्यक्ति को पुकारने के लिए मुँह ही खोलता है कि इतने में वह व्यक्ति पुनः जन - समूह या भीड़ में खो जाता है । कवि ने उसे बुलाने के लिए जो बाँह उठाई थी वह उठी ही उठी रह गई ।
- अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,
- परम अभिव्यक्ति
- मैं उसका शिष्य हूँ
- वह मेरी गुरू है,
- गुरू है !!
- वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,
- वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,
- तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,
- आख़िरी बार ही।
- पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल
- वह फटेहाल रूप।
- तडित्तरंगीय वही गतिमयता,
- अत्यन्त उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह
- सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता
- वही फटेहाल रूप !!
- परम अभिव्यक्ति
- लगातार घूमती है जग में
- पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ
- वह है।
- इसीलिए मैं हर गली में
- और हर सड़क पर
- झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
- प्रत्येक गतिविधि
- प्रत्येक चरित्र,
- व हर एक आत्मा का इतिहास,
- हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
- प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
- विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
- खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर
- जहाँ मिल सके मुझे
- मेरी वह खोयी हुई
- परम अभिव्यक्ति अनिवार
- आत्म-सम्भवा।
व्याख्या
कवि कहता है कि मेरे अन्तर्मन में वास करने वाला वह व्यक्ति जिसे कुछ ही क्षण पहले सड़कों , गलियों और भीड़ में देखा था वह मेरी खोजी और न पाने वाली मानवीय समृद्धि का चरम विकसित रूप और श्रेष्ठ , पवित्र अभिव्यंजना का मूल आधार है । मैं उसी चेतना के क्रान्तिधर्मा व्यक्ति का शिष्य हूँ । वही मेरा एकमात्र गुरू है । इससे पहले वह मेरे पास न कभी बैठा था और न कभी आया था । अर्थात् आजतक मेरी अन्तर्मन से उसका साक्षात्कार नहीं हो सका था लेकिन आज हो गया है । मैंने उसे इससे पहले प्रथम और अंतिम बार मन की जादुई गुफा में देखा था कवि कहता है कि मुझे सुखद अनुभव होता है कि वह आज भी प्रत्येक पल क्रान्ति का शंखनाद करता हुआ घूमता रहता है । आज भी पहले की तरह ही उसकी चाल में बिजली की तरंगों के समान गति है । वह ज्ञान के तनाव में अत्यधिक व्याकुल और फटेहाल होते हुए भी सकर्मक मानवीय प्रेम की अधिकता से पूरित है । परम ओर श्रेष्ठ अभिव्यक्तियों का क्रान्तिधर्मा स्वरूप पता नहीं संसार में निरन्तर कहाँ कहाँ घूमता रहता है । न जाने वह अब कहीं है ? इसीलिए मैं उसी की खोज के लिए प्रत्येक गली , सड़क और प्रत्येक मकान को झाँक झाँक देखता रहता हूँ । मैं उसकी प्रत्येक गतिविधि में , प्रत्येक मानवीय चरित्र और मानवीय आत्मा का इतिहास , उसी की सक्रियता में प्रत्येक देश की राजनीतिक परिस्थितियों और मानव जाति के स्वयं अनुभवों से प्राप्त आदर्श और ज्ञान की क्रिया प्रक्रिया कार्य में परिणत होती जा रही है । कवि कह रहा है कि मैं अपने अन्तर्मन के क्रान्तिधर्मा व्यक्तित्व को पठारों , पहाड़ों , वनों , समुद्रों में चारों ओर खोज रहा हूँ । अर्थात् मैं अपने क्रान्तिकारी विचारों की श्रेष्ठ परम अभिव्यंजना को खोज रहा हूँ । कहीं भी , जहाँ भी मुझे वह मिल सके मैं उसे खोजता हूँ । वह मेरी आत्मा में ही सम्भव हो सकने वाली परम श्रेष्ठ अभिव्यक्ति की अनिवार्यता खो गई है , मैं उसे प्राप्त करने के लिए ही खोजता हूँ ।
4 comments
Click here for commentsअपने बहुत अच्छे से समझाया । शुक्रिया sir जी ।
ReplyThanks
Replyबहुत बहुत धन्यवाद इतने बेहतरीन कंटेंट के लिए
ReplyGreat work very useful
Replyउत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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