बिहारी रत्नाकर
Bihari Ratnakar
(सं. जगन्नाथ दास रत्नाकर)
( 1 )
- मेरी भव - बाधा हरौ , राधा - नागरि सोई ।
- जा तन की झांई पर , श्यामु हरित - दुति होई ॥
व्याख्या
प्रस्तुत दोहे के प्रसंगानुसार तीन प्रकार के अर्थ किए जा सकते हैं जो कि निम्नानुसार है । ये तीनों अर्थ झाई ,स्यामु और हरित दुति इन तीन शब्दों के अर्थ वैविध्य के कारण सम्भव हो सकते हैं । दोहे के तीन अर्थ इस प्रकार किए गए हैं ।
( क ) जिस चतुर राधिका के शरीर की परछाई पड़ने से श्याम वर्ण वाले श्री कृष्ण हरे रंग की आभा वाले हो जाते हैं । वहीं राधिका मेरी सांसारिक विघ्न बाधाओं आदि का नाश करें ।
( ख ) जिस चतुर राधिका के शरीर की झलक ( नेत्रों में ) पड़ने से श्री कृष्ण प्रसन्न चित हो जाते हैं अर्थात आनन्द विभोर हो जाते हैं वहीं राधिका मेरी सांसारिक विघ्न बाधाओं का नाश करें ।
( ग ) जिस चतुर राधिका के रूप का ध्यान पड़ने से ( हृदय में ) दुःख दारिद्रादिगत धुति तेजहीन हो जाते हैं , वही राधिका मेरी सांसारिक विघ्न - बाधाओं का नाश करे ।
( 2 )
- अपने अंग के जानि के जोबन - न पति प्रवीन ।
- स्तन , मन , नैन , नितंब की बड़ौ इजाफा कीन।।
व्याख्या
कविवर बिहारी कहते हैं कि यौवन रूपी राजा ने नवयौवना मुग्धा के स्तनों , नयनों , मन और नितम्बों को अपने पक्ष का मानकर बहुत वृद्धि कर दी है । अर्थात् यौवन रूपी राजा ने नवयौवना नायिका के स्तनों , नयनों , मन और नितम्बों को अपना सहायक समझकर इन सभी की बहुत वृद्धि कर दी है । जिसके परिणामस्वरूप नायिका के स्तनों में पूरा उभार आ गया है , नयन विशाल ( विशाल नेत्र नारी - सौन्दर्य के परिचायक माने जाते है ) हो गये हैं । मन में यौवन की तरंगें हिलोरे मार रही हैं और नितम्ब पुष्ट एवं मांसल ( नारी के मांसल नितंबों की शोभा सर्वविदित है ) हो गए हैं ।
( 3 )
- अब तैं टरत न बर - परे , दई मरक मनु मैन ।
- होड़ाहोड़ी बढ़ी चले चितु , चतुराई , नैन।।
व्याख्या
नवयौवना नायिका के लावण्य पर रीझकर नायक अपने आप से कह रहा है कि यौवन के आगमन के कारण इस नायिका के उमंग से भरे हुए चित्त , चतुराई और नयनों ने अपने - अपने गौरव के लिये हठ ठान ली है और तीनों ही प्रतिद्वन्दिता की भावना से बढ़ रहे हैं जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानों कामदेव ने भी इन्हें प्रोत्साहन दिया हुआ है । कहने का आशय यह है कि यौवन के आगमन के कारण नायिका का चित्त तो उमंगों से भर ही गया है , चतुराई भी बहुत आ गई है तथा नैन भी बहुत विशाल हो गये हैं ।
( 4 )
- और-ओप कनीनिकनु गनी धनी सिरताज ।
- मनी धनी के नेह की बनी छनी पट लाज।।
व्याख्या
बिहारी लिखते हैं कि नायिका को संबोधित करते हुए एक सखी नायिका से कह रही है कि ' हे सखी , अब यौवनागम के कारण तेरी आँखों की पुतलियों की आभा और ही हो गई है जिसका शुभ परिणाम यह हुआ है कि तू अपनी सपत्नियों में सर्वाधिक प्रमुख हो गई है अर्थात् प्रियतम के अत्यधिक निकट हो गई है । तेरी आँखों की ये पुतलियाँ लज्जा रूपी वस्त्र में छिपी हुई हैं और इसी कारण नायक के स्नेह की मणियां बन गई हैं । आशय यह है कि नायिका की यौवन - दीप्त पुतलियों नायक के स्नेह को आकृष्ट करने के लिए लज्जा रूपी आवरण में छिपी हुई मणियों की तरह शोभा पा रही है । यौवन के आगमन के साथ मुग्धा नायिका की पुतलियों में एक विशेष प्रकार की लज्जामिश्रित कान्ति आ जाना स्वाभाविक है ।
( 5 )
- नीकी दई अनाकनी , फीकी परी गुहार ।
- तज्यौ मनौ तारन बिरदु बारक बारनु हारि ।।
व्याख्या
अपना उद्धार न होने पर भगवान के उपालम्भ देते हुए एक भक्त कहता है कि " हे भगवान् , आपने यह अच्छी रीति शुरू कर दी है कि मेरी सभी प्रार्थनाएँ सुनकर भी अनसुनी कर दी हैं जिसके परिणाम स्वरूप मेरी सभी आर्त - प्रार्थनाएँ प्रभाव - रहित हो गई हैं । अर्थात् अब मेरी आर्त - पुकार का आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । यह स्थिति देखकर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मानों एक बार हाथी का ( ग्राह से ) उद्धार कर देने के पश्चात् आपने भक्तों के उद्धार करने की कीर्ति को छोड़ दिया है । भक्त लगातार ईश्वर भक्ति करके दर्शन चाह रहा है ।
( 6 )
- जोग - जुगति सिखए सबै मनौ महामुनि मैन ।
- चाहत पिय – अद्वैतता काननु सेवत नैन ।।
व्याख्या
प्रस्तुत दोहे में दो अर्थ हैं जो कि इस प्रकार है –
( क ) नायिका की समवयस्क युवतियां नायिका के विस्तृत नेत्रों की शोभा का वर्णन करते हुए उसे कहती हैं कि हे सखी तेरे इन नेत्रों की कामदेव रूपी महामुनि ने योग क्रिया की सारी युक्तियाँ सिखा दी हैं जिससे की परमात्मा के साथ तुम्हारी अभिन्नता प्राप्त करने हेतु तुम्हारे ये नेत्र रूपी योगी वन - प्रदेश में तपस्या - रत हो गए हैं । "
( ख ) नायिका के विस्तृत नेत्रों की शोभा का वर्णन करते हुए उसकी सखियों उससे कहती हैं कि " हे सखी कामदेव रूपी महात्मा ने तेरे इन विस्तृत नेत्रों को प्रियतम से मिलने की सारी युक्तियाँ सिखा दी है । तेरे ये नेत्र प्रियतम के दर्शन पाने के हेतु कान तक हो गए हैं ।
( 7 )
- प्रिय बिछुरन की दुसहु दुख , हरषु जात प्यासार ।
- दुरजोधन लौं देखियति तजत प्रान इही बार ।।
व्याख्या
नैहर जा रही नायिका को एक ओर तो प्रियतम से बिछोह का भारी दुःख है और दूसरी ओर नैहर में परिजनों से मिलने का हर्ष भी है । नायिका की यह सुख दुखात्मक मनोदशा दुर्योधन जैसी है , जिसने की हर्ष और विषाद की द्विविधापर्ण स्थिति में प्राण त्यागे थे । नायिका की सखी दूसरी सखी से यही कह रही है कि “ अबकी बार नैहर जाती हुई नायिका की मनोदशा दुर्योधन की सी लग रही है । जिसने हर्ष और शोक के मिश्रित वातावरण में प्राण त्यागे थे । "
( 8 )
- झीने पट में झुलमुली झलकति ओप अपार ।
- सुरतरू की मनु सिंधु मैं लसति सपल्लव डार ।।
व्याख्या
नायिका के कानों में सुशोभित आभूषण की शोभा का वर्णन करते हुए उसकी दूती नायक से कहती है कि " नायिका ने कानों में जो झुलमुली धारण कर रखी है , उसकी अपार आभा महीन वस्त्र के भीतर से प्रकाशित हो रही है । जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानों समुद्र के भीतर कल्प लत्ता की पत्तों से युक्त डाल शोभायमान हो रही है । "
( 9 )
- डारे ठोड़ी - गाड़ , गहि - नैन - बटोही , मारि ।
- चिलक चौंध में रूप - ठग , हाँसी - फाँसी डारि ।।
व्याख्या
नायिका की ठोड़ी में पड़े हुए गड्डे पर रीझते हुए नायक कहता है कि ' हे नायिका , तेरे अपार सौन्दर्य रूपी ठग ने अपनी चमक की चौंध से मेरे नेत्रों रूपी पथिकों को , हँसी रूपी फाँसी का फंदा डालकर अपनी ठोढी में पड़े हुए गड्ढे में डाल दिया है अर्थात् मेरे ये नेत्र तेरी ठोड़ी के गड्ढे के प्रति इतने अधिक आकृष्ट हो गए हैं कि वे वहाँ से हटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं । " कहने का तात्पर्य यह है कि नायक उस नायिका की ठोडी में पड़े हुए गड्ढे और उसकी हँसी के प्रति पूर्णतः समर्पित हो गया है ।
( 10 )
- लाग्यौ सुमनु ह्वै है सफलु , आतप-रोसु निवारि ।
- बारी , बारी आपनी सीथि सुहृदता - चारि ।।
व्याख्या
इस दोहे के दो अर्थ हो सकते हैं जो कि निम्नानुसार हैं ।
( क ) नायिका के अर्थ में - नायक के नियत समय पर न पहुँच पाने के कारण रूष्ट हुई नायिका वाटिका में पहुँच जाती है । तभी नायक से मिलकर आयी हुई नायिका की सखी उसे कहती है कि " हे भोली नायिका जिस नायक के प्रति तेरा सुन्दर मन अनुरक्त है उसे वांछित फल की प्राप्ति होगी तू अपने नायक के प्रति रोष का भाव छोड़ दे और अपनी पारी को मैत्रीपूर्ण वचनों से सरस कर ले । अभिप्राय यह है कि नायक भी तेरे प्रति पूर्णतः आसक्त है अतः मान का त्याग करके , स्थिति का लाभ उठाकर प्रेम - रस का सुख भोग ।
( ख ) माली के अर्थ में नायिका के समीप अनेक समवयस्क सखियों को उपस्थित देखकर नायिका की सखी माली को संबोधित करते हुए कहती है कि ' हे माली , तेरी वाटिका में जो फूल लगा हुआ है इसमें फल अवश्य ही लगेंगे । तू अपनी वाटिका को सूर्य के ताप से बचा और उपयोगी जल से इसका सिंचन कर । "
( 11 )
- अजौं तरयोना ही रहयौ श्रुति सेवत इक - रंग ।
- नाक बास बेसरि लहयौ बसि मुकुतनु के संग ।।
व्याख्या
प्रस्तुत दोहे के दोनों अर्थ इस प्रकार हैं
( क ) ( बेसरि के अर्थों में ) कवि कहता है कि नायिका ने अपने कान में जो आभूषण पहन रखा है वह आज तक भी कानों की सेवा करते रहने पर भी तर नहीं पाया आर्थात् उसने नायिका कानों की अत्यधिक सेवा की फिर भी उसका उद्धार नहीं हो सका । इसके विपरीत नायिका की नाक के बेसरि नामक अभूषण ने मोतियों के संग रहकर नायिका की नासिका का वास प्राप्त कर लिया अर्थात यह नाक में धारण किया गया और इस प्रकार उच्च पद का अधिकारी बन गया । ( नासिका का स्थान उच्च माना जाता है ) ।
( ख ) ( सत्संग के पक्ष में ) कवि कहता है कि यद्यपि मनुष्य ने वेदों की बहुत सेवा की फिर भी वह अधम पापी के स्तर से ऊपर नहीं उठ सका । फिर महापापी बेसरि ने जीवन से मुक्त व्यक्तियों अर्थात संतों के साथ रहकर स्वर्ग का निवास प्राप्त कर लिया अर्थात् गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया । कवि के अनुसार वेदों से कहीं श्रेयस्कर सत्संगति होती है ।
( 12 )
- जमकरि मुँह तरहरि परयौ , इहिं घरहरि चित लाउ ।
- विषय - वृषा परिहारि अजौ नरहरी के गुन गाउ ।।
व्याख्या
बिहारी अपने ही मन को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि ' हे मेरे मन , तु अब मृत्युरूपी हाथी के नीचे आ चुका है अर्थात् अब तेरी मृत्यु बहुत निकट है इस निश्चय की ओर प्रवृत हो जा । हे मन , मत्यु के इतने निकट पहुँचने पर अब सभी सांसारिक विषय - वासनाओं का त्याग कर दें और भगवान का गुण गाना आरम्भ कर दें । यदि नरहरि का नाम भगवान न लगा कर गुरू नरहरि दास से लगाया जाए तो दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ इस प्रकार होता " हे मन , अब तू मृत्युरूपी हाथी के नीचे आ चुका है अर्थात् अब तेरी मृत्यु में देरी नहीं है । अत : अपने इस अन्तकाल में तो सांसारिक विषय वासनाओं से विमुख होकर गुरू नरहरिदास में चित्त लगा ।
( 13 )
- तो पर बारौं उरबसी , सुनि राधिका सुजान ।
- तू मोहन के उर बसी है उरबसी समान ।।
व्याख्या
बिहारी लिखते हैं कि मानवती नायिका की सखी उसे समझाती हुई कहती है कि , " हे चतुर राधिका , मेरी बात सुन तेरे अपूर्व सौन्दर्य के सामने राजा इन्द्र के पास दरबार की उर्वशी नामक अप्सरा न्यौछावर की जा सकती है अर्थात् इन्द्र की अप्सरा उर्वशी ( जिसे सर्वाधिक सुन्दरी और लावण्यमयी माना जाता है ) तेरे अनुपम सौन्दर्य के सामने कुछ भी नहीं है । हे राधिके , मेरी इस बात को ध्यानपूर्वक सुन ले कि मोहन के हदय में तेरा वही स्थान है जो कि हदय पर पड़े हुए आभूषण का होता है अर्थात् जिस प्रकार हृदय पर धारण किया जाने वाला आभूषण रात - दिन , सोते - जागते , उठते - बैठते हृदय पर पड़ा रहता है , ठीक उसी प्रकार तेरे प्रियतम मोहन को हर घड़ी तेरा ध्यान रहता है । ऐसी स्थिति में तुझे मान छोड़ देना चाहिए ।
( 14 )
- कौन भाँति हैं बिरदु अब देखिवी , मुरारि ।
- बीधे मौंसौं आइ कै गीधे गीधहिं तारि ।।
व्याख्या
भगवान श्री कृष्ण को चुनौती देते हुए भक्त कवि के रूप में कवि बिहारी कहते हैं कि " हे भगवान् श्री कृष्ण अब मुझे यहीं देखना है कि आप अपने यश को किस प्रकार सुरक्षित रख सकेगें । आप को यह यश प्राप्त है कि आप जटायु जैसे अनेक पापियों का उद्धार करते रहे हैं किन्तु अबकी बार आप का वास्ता मुझ जैसे घोर पापी से पड़ा है । अर्थात् अबकी बार मुझसे अटके हो । अतः यह देखा जाना है कि पापियों का उद्धार करने की आपकी कीर्ति अब भी बनी रह सकेगी अथवा नहीं । जटायु तो एक साधारण पापी था । अतः उसका उद्धार करने में आप को विशेष कठिनाई नहीं हुई होगी किन्तु मैं तो अधम पापी हूँ , मेरा उद्धार करना कोई साधारण बात नहीं है ।
( 15 )
- कहत , नटत , रीझत , खिझत , मिलत , खिलत , लजियात ।
- भरे भौन में करत हैं नैननु ही सब बात ।।
व्याख्या
घर में लोगों की भीड़ है फिर भी नायक - नायिका द्वारा चुपचाप आपस में बात कर लेने की चतुराई का वर्णन करते हुए एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि " हे सखी , नायक और नायिका लोगों से भरे हुए भवन में औंखों की आँखों में सारी बातें कर लेते हैं । " नायक और नायिका के मध्य संकेतात्मक शैली में हुई बातचीत को स्पष्ट करते हुए सखी कहती है कि " जब नायक ने अभिसार के लिए प्रार्थना की ( कहत ) तो नायिका ने सहज की उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया ( नटत ) नायक - नायिका की अस्वीकृति को स्वीकृति मानकर मुग्ध हो जाता है ( रीझत ) और नायिका जब यह देखती है कि नायक ने उसकी ' ना ' का अर्थ ही लगाया , तो वह खीझ उठती है । नायिका की यह खीझ किंचित बनावटी है क्यों कि उसका मूल उद्देश नायक को केवल खिझाना है , नाराज करना नहीं हैं तदनन्तर दोनों की दृष्टि मिल जाती है ( मिलत ) और फिर दोनों ही प्रेम के रंग में डूबकर प्रफुल्लित हो जाते है ( खिलत ) । तथापि दोनों को यह भी आशंका है कि कहीं उनके इस प्रणय - व्यापार पर , वहाँ उपस्थित किसी व्यक्ति की दृष्टि न पड़ गई हो अतः स्वभावतः दोनों को लज्जा का भी अनुभव होता है ( लजियात ) । " इस प्रकार प्रेम की पूरी अभिव्यक्ति हुई है ।
विशेष- थोड़े शब्दों में ही पूरी बात कह देने की कला के कारण ही कहा गया है
सतसइया के दोहरे , ज्यों नावक के तीर ।
देखन में छोटे लगे , घाव करें गम्भीर
( 16 )
- नहिं परागु नहि मधुर मधु , नहिं विकासु इहि काल ।
- अली कली ही सौं बध्यो , आगे कौन हवाल ।।
व्याख्या
दो अर्थ इस प्रकार सामने आते है
( क ) अविकसित कली के मोहपाश में जकड़े हुए भ्रमर को सम्बोधित करते हुए कवि कहता है कि ' हे भ्रमर , जिस कली के प्रेमपाश में जकड़ा हुआ है उसमें अभी न तो पुष्परज है , न मधुर मकरन्द है और न अभी इसका विकास ही हो पाया है । जब तू अभी से इस अविकसित कली से बंध गया है तो उस समय तेरी क्या दशा होगी जब यह कली विकसित होकर एक सुन्दर पुष्प का रूप धारण कर लेगी ।
( ख ) अन्योक्ति से इस दोहे का अन्य अर्थ ऐसे नायक को लेकर किया जा सकता है जो कि किसी अल्पवयस्का नायिका के प्रति आसक्त है । ऐसी अल्प वयस्का नायिका के प्रति नायक आसक्ति को देखकर कवि कहता है कि " हे नायक तू ऐसी अल्प वयस्का नायिका के प्रति आसक्त है जो कि अभी अविकसित कली की तरह है । इस नायिका में न तो नवयौवना का सौन्दर्य प्रस्फुटित हुआ न इसमें अभी प्रेम रस का संचार ही हो पाया है और न इसके अंगों- प्रत्यगों का विकास हुआ है । जब तू अभी से इसके प्रति आसक्त है तो उस समय तेरी क्या होगी जब यह अल्प वयस्का यौवन के पूरे सौन्दर्य और आकर्षण से युक्त हो जाएगी अर्थात् वस्तुतः नवयौवना बन जाएगी ।
विशेष :- प्रस्तुत दोहा बिहारी सतसई का अत्यधिक महत्वपूर्ण दोहा है और कतिपय आलोचकों के मत से तो बिहारी की इस सतसई की रचना की मूल प्रेरणा इसी दोहे में निहित है । कहते हैं कि जयपुर के राजा जयसिंह नवौढा रानी के प्रेमपाश में जकड़े हुए थे और वे राजकाज की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते थे । राज्य पर संकट की घड़ी आई हुई थी किन्तु राजा जयसिंह को अपने रनिवासों से ही अवकाश नहीं मिलता था । जब कविवर बिहारी को राजा जयसिंह की इस स्थिति का ज्ञान हुआ तो उन्हें उपदेश देने की दृष्टि से उन्होंने यह दोहा लिखकर राजा जयसिंह तक पहुँचाया । कहते हैं कि इस दोहे का आशातीत प्रभाव हुआ और नवौढा रानी के प्रेम पाश में जकड़ा हुआ राजा जयसिंह पुनः राजकाज की और ध्यान देने लगा । बिहारी के इस दोहे को पढ़कर राजा जयसिंह इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने बिहारी को अनेक स्वर्ण मुद्राएं प्रदान की ।
( 17 )
- मंगलू बिन्दु सुंरगु , मुख , ससि , केसरि आड़ गुरू ।
- इक नारी लहि संगु , रसमय किए लोचन जगत ।।
व्याख्या
( क ) नायिका के माथे पर लगी हुई मंगलकारी बिन्दी और केसर तिलक की शोभा का वर्णन करते हुए नायक नायिका की सखी से कहता है कि " सुन्दर लाल रंग से युक्त बिन्दी रूपी मंगल , मुखरूपी चन्द्रमा तथा केसर के आड़े लगे हुए तिलक रूपी बृहस्पति को एक ही नारी में उपस्थित देखकर नेत्रों रूपी संसार को अनुरागमय बना दिया है । ज्योतिष के अनुसार ऐसा माना जाता है कि जब मंगल चन्द्रमा और बृहस्पति ये तीनों ग्रह एक साथ मिल जाते हैं तो वृष्टि होती है । इसी प्रकार नायिका में ये तीनों ग्रह एक साथ उपस्थित हो गए हैं , अतः लोचन रूपी संसार का प्रेममय हो जाना स्वाभाविक है । "
( स ) प्रस्तुत सारठे का एक अर्थ ज्योतिष विज्ञान के संदर्भ में भी हो सकता हैं प्रस्तुत नायिका मैं मंगल ( बिंदी ) चन्द्रमा ( मुख ) तथा बृहस्पति ( केसर का तिलक ) ये तीनों ग्रह एक साथ मिल गए हैं । ज्योतिष के एक सिद्धान्त के अनुसार जब मंगल , चन्द्रमा और वहस्पति तीनों ग्रह एक ही राशि में स्थित होते हैं तो अत्यधिक वृष्टि का योग होता है । नायक कहता है कि " इस नायिका रूपी राशि में मंगल , चन्द्रमा और बृहस्पति तीनों ग्रह एक साथ उपस्थित हो गए हैं अतः लोचन रूपी समग्र संसार जलमय हो गया है । "
( 18 )
- खेलन सिखये अलि भलैं चतुर अहेरी मार ।
- कानन - चारी नैन - मृग नागर नरनु सिकार ।।
व्याख्या
बिहारी लिखते हैं कि नायिका के प्रति आसक्त होने वाले लोगों को नायिका की आँखें आहत कर देती हैं । नायिका के नेत्रों की इस क्षमता का वर्णन करते हुए नाविका की एक सखी कहती है कि " हे , सखी कामदेव रूपी चतुर शिकारी ने तेरे कानों तक फैले हुए नेत्रों रूपी मृगों को शिकार करने के के पूरा प्रशिक्षण दे दिया है और इस प्रकार तेरे ये नेत्र नगर निवासियों को बुरी तरह आहत कर देते हैं " कहने का आशय यह है कि वह नायिका अपने सुन्दर और सुदीर्घ नेत्रों से जिस धावित की ओर देख लेती है , वहीं आहत हो जाता है ।
( 19 )
- रससिंगार मंजनु किए , कंजनु भंजनु दैन ।
- अंजनु रंजनु हुँ बिना खंजनु गंजनु नैन ।।
व्याख्या
बिहारी ने लिखा है कि नायिका के नेत्रों की शोभा का वर्णन करते हुए नायक अथवा नायिका की सखी कहती है कि " हे नायिका , तेरे ये नेत्र श्रृंगार रस के अनुरूप हावभाव में अत्यधिक दक्ष है और इस कारण अपनी स्निगधता के कारण कमल का मान भी भंग करने वाले सिद्ध हुए हैं अर्थात् तेरे ये नेत्र इतने अधिक स्नेहपूर्ण स्निग्ध और आकर्षक हैं कि इनके समक्ष कमल भी अपने आप को लज्जित पाता है । तेरे ये नेत्र नैसर्गिक एवं स्वाभाविक श्यामलता से परिपूर्ण हैं । और इस कारण बिना काजल लगाए ही खंजन पक्षी का तिरस्कार कर रहे हैं अर्थात् तेरे इन नेत्रों की स्वाभाविक श्यामलता के समक्ष काजल के बिना भी तेरे ये नेत्र खंजन पक्षी को लज्जित कर रहे हैं ।
( 20 )
- दीरय साँस न लेहि सुख , सुख साईहि न भूलि ।
- दइ दइ क्यों करतु है दइ दइ सु कबूलि ।।
व्याख्या
बिहारी का कथन है कि घोर विपत्तियों में पड़े हुए किसी भक्त अथवा व्यक्ति को सांत्वना देता हुआ उसका गुरू कहता है कि " हे भक्त , दुःख विपत्ति से घिर जाने पर इतने लम्बे लम्बे साँस मत ले अर्थात् दुःख की घड़ी में इतना व्याकुल मत हो और सुख में उस स्वामी को ( अर्थात् ईश्वर को ) विस्मृत मत कर । विपत्तियों से घिर जाने पर हाय दैव , हाय देव क्यों कर रहा है ? यदि तू सच्चा सुख चाहता है तो जो कुछ ईश्वर ने तुझे दिया है उसे सहर्ष स्वीकार कर और ईश्वर को धन्यवाद दे । "
( 21 )
- बैठि रहि अति सघन बन , पैठि सदन - तन माँह ।
- देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छांह ।।
व्याख्या
जेठ की दुपहरी की प्रचण्डता का वर्णन करते हुए कवि कहता है । इस जेठ(ज्येष्ठ) की दुपहरी के प्रचण्ड ताप को देखकर वृक्षों आदि की छाया भी छाया चाहती है अर्थात वृक्षों आदि की छाया भी दिखाई नहीं देती । मानो वह भी सूर्य की प्रचण्डता से बचने के लिए किसी आच्छादन के नीचे जा छिपी हो । यह छाया इस समय अत्यन्त घने जंगल अथवा घर के शरीर अर्थात घर के भीतर ही छिपी हुई है । कहने का तात्पर्य यह है कि जेठ मास की ठीक दुपहरी के समय वृक्षों , घरों आदि की छाया अलग दिखाई नहीं देती ।
( 22 )
- हा हा ! बदनु उघारि , दृग सफल करैं सबु कोई ।
- रोज सरोजनु कै परैं , हँसी ससी की होइ ।।
व्याख्या
नायक से रुष्ट होने के कारण नायिका मुख पर घूंघट डाले हुए है । ऐसी नायिका से उसकी सखी कहती है कि " हे नायिका , मैं तेरी हा हा , करती हूँ कि तू अपना घुंघट उठा दे जिससे कि वहाँ उपस्थित हम सभी सखियों के नेत्र तेरे रूप- सौन्दर्य को देखकर सफल हो जाएँ क्यों कि इस प्रकार दो प्रयोजनों की एक साथ सिद्धी हो जाएगी । तेरे मुखचन्द्र को देखकर नायक के नेत्र रूपी कमल विपत्ति में पड़ जाएँगें और जब वह तेरे चन्द्रमा जैसे मुख को देखेगा तो उसे तेरी सपत्नी का चन्द्रमा उपहास का विषय बन जाएगा । इस प्रकार तेरे चन्द्रमा जैसे मुख को देखकर नायक तो तेरे प्रति समर्पित ही हो जाएगा तेरी सपत्नियों का भी खूब उपहास होगा ।
( 23 )
- होमति सुखु , करि कामना , तुमहिं मिलन की , लाल ।
- ज्वालमुखी - सी जरति लखि , लगनि अगनि की ज्वाल ।।
व्याख्या
विरहिणी नायिका की सखी उसके प्रियतम ( नायक ) को सम्बोधित करते हुए कह रही है कि " हे लाल , निरन्तर , तुमसे मिलन की कामना करके वह ( नायिका ) अपने समस्त सुखों की आहुति देती रहती है । हे लाल , उसे तो केवल तुम्हारी कामना है और तुम्हारे समक्ष वह किसी भी प्रकार के सुख का बलिदान कर सकती है । नायिका प्रेम रूपी अग्नि की ज्वाला की निरन्तरता को देखकर स्वयं ज्वालामुखी की तरह जलती रहती है ।
( 24 )
- सायक - सम मायक नयन रेगे त्रिविध रंग गात ।
- झखौं बिलखि दुरि जात जल , लखि जलजात लजात ।।
व्याख्या
जलाशय अर्थात् मिलन - स्थल पर बैठी हुई नायिका के नेत्रों की शोभा का वर्णन करते हुए नायिका की दूती नायक से कह रही है कि " हे नायक , उस नायिका के नेत्र सायंकाल की तरह मायापूर्ण है और वे त्रिविध रंगों अर्थात् काला , सफेद और लाल रंगों में रंगे हुए हैं । इन नेत्रों को देखकर जलाशय में खिले हुए कमल लज्जित तथा संकुचित हो जाते हैं और मछलियाँ भी दुःखी होकर जल के भीतर छिप जाती है । इस दोहे से यह स्पष्ट हो जाता है कि नायिका जलाशय के तट पर बैठी हुई है अतः परोक्षतः नायक को मिलन स्थल का ज्ञान हो जाता है ।
( 25 )
- कागद पर लिखत न बनत , कहत संदेसु लजात ।
- कहिहै सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात ।।
व्याख्या
विरहिणी नायिका अपने प्रियतम को सम्बोधित करते हुए कहती है कि " हे ! प्रियतम , मेरे लिए कागज पर अपनी विरह व्यथा लिखकर भेजना कठिन है । क्यों कि मेरी विरह अग्नि की प्रचण्डता ने मुझे पत्र लिखने योग्य नहीं छोड़ा है । विरहजन्य स्वेद , कंप और अश्रु आदि के कारण मैं पत्र लिखने में असमर्थ हूँ । यदि मैं किसी सखी अथवा दूती के माध्यम से अपनी विरह व्यथा का सन्देश तुम्हारे पास भिजवाती हूँ तो मुझे लज्जा आती है क्योंकि प्रेम का प्रदर्शन उपहास का कारण होता है । मैं यह नहीं चाहती कि मेरी सखी या दूती मेरे प्रेम सम्बन्ध को जान जाए मैं तो अन्ततः यही लिख सकती हूँ कि यदि तू सच्चे मन से सोधेगा तो तेरा हृदय स्वयं मेरे हृदय की सारी बात कह देगा अर्थात यदि तेरे हृदय में मेरे प्रति प्रेम की वही तीवता होगी जो कि मेरे हृदय में तेरे प्रति है तो तुझे मेरी विरह - व्यथा को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी । "
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