विनय पत्रिका
Vinaya Patrika
पद सं . 146 से 153
(श्री हरि - तोषिणी टीका सं . वियोगी हरि)
[146]
- हौं सब बिधि राम , रावरो चाहत भयो चेरो ।
- ठौर ठौर साहिबी होत है , ख्याल काल कलि केरो ॥१ ॥
- काल - कर्म - इंद्रिय - विषय गाहकगन घेरो ।
- हौं न कबूलत बाँधि के मोल करत करेरो ।।२।।
- ना बन्दि - छोर तेरो है बिरुदैत बड़ेरो ।
- मैं कह्यों तब छल - प्रीति के माँगै उर डेरो ॥३ ॥
- नाम ओट अब लगि वच्यो कलजुग जग जेरो ।
- अब गरीब जन पोषिये पायबो न हेरो ॥४ ।।
- जेहि कौतुक बक स्वान को प्रभु न्यावानिबेरो ।
- तेहि कौतुक कहिये कृपालु ' तुलसी है मेरो'।।5।।
भावार्थ
हे रामजी ! मै सब तरहसे आपका गुलाम बनना चाहता हूँ । पर यहाँ तो ठौर - ठौर पर साहबी दिखायी देती है । भाव यह है , कि मन अपनी प्रभुता जमा रहा है , इद्रियाँ अपना आधिपत्य दिखा रही है । अब में किस - किस की गुलामी करता फिरूं ? यह सब कौतुक कलिकाल का है ।।1।। काल , कर्म और इन्द्रियरूपी ग्राहकोने मुझे घेर लिया है । जब मै उनके हाथ बिकना कबूल नहीं करता , तब वे मुझे बांधकर मुझर कडा दाम चढाते हैं , जैसे - तैसे लालच दिखा दिखाकर अपने अधीन करना चाहते हैं ।।2।। आपका नाम बंधनसे मुक्त कर देनेवाला है और आपका बाना भी बड़ा है ; जब मैने उन ( ग्राहको ) से यह कहा , कि भाई ! मै तो रघुनाथजीके हाथ बिक चुका हूँ , तब वे ऊपरी प्रेम दिखाकर मुझसे मेरे हृदयमें बसने के लिये स्थान माँगने लगे । ( अब मै क्या करूँ ? यदि उन्हे स्थान दिये देता है तो पहले तो वे दीनता दिखा रहे हैं , पर जगह मिल जानेपर धीरे - धीरे उसपर अपना अधिकार कर लेंगे ॥3॥ अबतक मैं आपके नामके सहारेसे बचा हूँ ( नहीं तो कभीका इन ग्राहकों के हाथ बिक गया होता , इन्द्रिय - लोलुप हो गया होता ) , पर अब यह कलियुग मुझे घेर लिया हैं । अतएव अब इस गरीब गुलामका पालन कीजिए , नही तो फिर यह खोज करनेसे भी न मिलेगा ( क्योकि कलियुग इसका नाम निशान तक मिटा देगा , ' रामदास ' से ' कामदास ' बना लेगा ) ॥4 ॥ हे नाथ ! आपने जिस कौतुकसे बगुले और कुत्तेका फैसला कर दिया था , उसी लीलासे यह भी कह दीजिए , कि ' तुलसी मेरा है । ' ( बस इतना कह देनेसे फिर कलियुगका इस पर कुछ भी वश न चलेगा , अपना - सा मुँह लिये चला जायगा ) ।।5।।
[147]
- कृपासिंधु , ताते रहौं निसिदिन मन मारे ।
- महाराज , लाज आपुही निज जाँघ उघारे ।।१।।
- मिले रहै , मारयो चहै कामादि संघाती ।
- मो बिनु रहैं न , मेरियै जारै छल छाती ॥२ ॥
- बसत हिये हित जानि मै सबकी रुचि पाली ।
- कियो कथिक को दंड हौं जड़ करम कुचाली ॥३ ॥
- देखी सुनी न आजु लौं अपनायत ऐसी ।
- करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी ॥४ ।।
- बड़े अलेखी लखि परें ,, परिहरे न जाही ।
- असमंजस में मगन हौं , लीजै गहि बाहीं ॥५ ॥
- बारक बलि अवलोकिये , कौतुक जन जी को ।
- अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसी को ।।६ ।।
भावार्थ
हे कृपासागर ! इसीलिए मै रात - दिन मन मारे रहता हूँ , कि हे महाराज ! अपनी जॉघ उघाड़ने से अपनी ही लाज जाती है , अपने हाथों अपना परदा खोलनेसे खुद ही बेशर्म बनना पड़ता है ।। 1 ।। यह काम आदि साथी मिले भी रहते हैं और मारना भी चाहते हैं , ऐसे कपटी हैं ! वह बिना मेरे रह भी नहीं सकते , अर्थात् जबतक मुझमे “ जीवत्व " भाव है , तभीतक काम , क्रोध आदिका अस्तित्व है । और मुझे ही छल कर - कर छाती जलाते हैं । भाव यह कि , जिस पत्तलमे खाते हैं , उसीमें छेद करते हैं ।। 2 ।। यह जानकर , कि ये मेरे हृदयमे बसते है , प्रेमपूर्वक मैंने इन सबकी रुचि भी पूरी कर दी है , अर्थात् सब विषय भोग चुका हूँ , फिर भी इन दुष्टो और कुचालियों ने मुझे कत्थककी लकड़ी बना रखा है ( लकड़ीके इशारेसे जैसे नाच नचाते है , वैसा मुझे नाचना पड़ता है ) ॥3॥ आजतक मैने ऐसी पराधीनता न तो देखी है और न सुनी ही है । कर्म तो करते हैं सब आप और जो कुछ बुराई होती है , वह मेरे मत्थे मढ़ी जाती है । अर्थात् इन्द्रियों भोग - विलास करती हैं , और कुफल भोगना पड़ता है अनेक जन्मोतक बेचारे जीवको ! कैसा अन्याय है ! ॥ 4 ॥ ये सब बड़े अन्यायी है ! देखनेमें तो आते नहीं ( अज्ञानके मारे इनकी चाल समझ नहीं पाती ) और दिख भी पढ़ें , तो छोड़नेको जी नहीं चाहता । हे प्रभो ! इसी दुबिधामें पड़ा रहता हूँ । बस , अब हाथ पकड़कर मुझे निकाल लीजिए ( नहीं तो , इस संसार - सागरमे डूबने ही वाला हूँ ) ॥5॥ आपकी बलैया लेता हूँ , कृपाकर एक बार अपने इस दासका कौतुक तो देखिए । आपके देखते ही तुलसीका दुःख दूर हो जायगा , ( क्योंकि ब्रह्म - दर्शन मात्रसे जन्म - मरण छूट जाता है ) ॥6॥
[148]
- कहौ कौन मुँह लाइ के रघुबीर गुसाई ।
- सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥ १ ॥
- सेवत बस , सुमिरत सखा , सरनागत सो हौं ।
- गुनगन सीतानाथ के चित करत न हौं हौं ।। २ ।।
- कृपासिन्धु बन्धु दीन के आरत - हितकारी ।
- प्रनत - पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी ।।३ ।।
- सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद - प्रीति सुधारी ।
- पाइ सुसाहिब रास सों , भरि पेट बिगारी ॥४ ॥
- नाथ गरीबनिवाज हैं , मैं गही न गरीबी ।
- तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परैसो कीबी ।। ५ ।।
भावार्थ
हे रघुबीर ! हे प्रभो ! क्या मुँह लगाकर आपसे कुछ कहूँ ! स्वामी की सौगन्ध है , जब मैं अपने करतबको समझता हूँ , तब संकोचके मारे कुछ कह नहीं सकता ॥1 ॥ आप सेवा करनेसे वशमें हो जाते हैं , स्मरण करनेसे मित्र बन जाते हैं और शरणमें आन्स सामने प्रकट हो जाते हैं । ऐसे जो आपके गुण - समूह हैं , उनपर मैं ध्यान नहीं देता , श्राप - जैसे स्वामीको भुलाये बैठा हूँ ॥2 ॥ आप कृपाके समुद्र हैं , दीनोंके बन्धु हैं , दुखियोंके हितू हैं , और शरणागतोंके पालनेवाले हैं , ऐसी श्रापकी विरदावली सुनकर और जानते हुए भी मैं भूल गया हूँ ॥3॥ न तो सेवा ही की और न ध्यान ही । स्मरण करके आपके चरणोंमे प्रेम भी तो नहीं किया । श्राप - जैसे श्रेष्ठ स्वामीको पाकर भी मुझसे जितना हो सका उतना बिगाह किया । भाव , अपने हाथों अपने पैरपर कुल्हाड़ी मारी ॥ 4॥ श्राप दीनोपर कृपा करनेवाले हैं , पर मैंने दीनता धारण नहीं की । भाव यह है , कि देहाभिमानके कारण मुझमें कभी दैन्य - भाव नहीं श्राया , सदा ऐंठ ही बनी रही । अब दीन - वत्सल भगवान् कृपा करें तो कैसे ? इसलिए हे नाथ ! अब अपनी ओर देखकर जो श्रापसे बन पड़े सो कीजिए । साराश यह , कि आप बिगड़ीके बनानेवाले हैं । सो मुझपर भी अवश्य कृपा करेंगे ॥5॥
[149]
- कहाँ जाउँ , कासों कहौं , और ठार न मेरोछ ।
- जनम गँवायो तेरेहि द्वार मैं किंकर तेरो ॥१ ॥
- मैं तो बिगारी , नाथ सों आरति के लीन्हें ।
- तोहि कृपानिधि क्यों बने मेरी सी कीन्हें ॥२ ॥
- दिन दुरदिन , दिन दुरदसा , दिनदुख , दिन दूषन ।
- जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस - विभूषन ॥ ३ ॥
- दई पीठ बिनु डीठ मै तुम बिस्व - बिलोचन ।
- तो सों तुही न दूसरो नत - सोच - बिमोचन ॥४ ॥
- पराधीन देव ! दोन हौं , स्वाधीन गुसाई ।
- बोलनिहारे सों करै बलि बिनय कि झाई।।५ ।।
- आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो ।
- बड़ी ओट रामनाम की जेहि लई सो बॉचों ।। ६ ॥
- रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है ।
- ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो ' तुलसी है ।।७ ।।
भावार्थ
कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ! मुझे कोई और ठौर ही नहीं । तेरे ही दरवाजे पर ( पड़े - पड़े ) ज़िन्दगी काटी है , और तेरा ही गुलाम रहा हूँ । मतलब यह है , कि मै सब तरहसे तेरा ही हूँ , दूसरेका नही ॥ 1 ॥ दुःखोंसे सताये जाने के कारण , हे नाथ ! मैं तो अपनी सारी करनी बिगाड़ चुका हूँ । अब हे कृपानिधे ! यदि तूने भी जैसेके लिए तैसा किया , तो फिर हो चुका ! भाव यह है , कि मुझसे तो सब बिगाड़ ही हुश्रा है ; अब तेरे हाथ है , तू सुधार ले , क्योंकि तू दयाका समुद्र है ॥ 2॥ हे रघुकुल में श्रेष्ठ ! जबतक तूने ( इस जीवकी ओर ) नहीं देखा ( कृपा नहीं की ) तबतक नित्य ही खोटे दिन , नित्य ही बुरी दशा , नित्य ही दुःख और नित्य हो दोष लगते रहेगे ।।3।। मै तुझे पीठ दिथे फिरता हूँ , तुझसे विमुख हो रहा हूँ , क्योंकि मैं दृष्टिहीन हूँ , अन्धा हूँ , पर तू तो संसारमात्रका द्रष्टा है न ? भाव यह , कि तू मुझसे विमुख न हो , मुझे शरणमे ले ले । तुझ - सा तू ही है । दूसरा कौन है , जिससे तेरी उपमा दूं ? दीन - दुखियोंके संकटको दूर करनेवाला एक तू ही है ॥ 4 ।। हे देव ! मै परतंत्र हूँ दीन हूँ , पर तू तो स्वतन्त्र है , स्वामी है । बलिहारी ! क्या छाया बोलनेवालेसे विनय कर सकती है ? अर्थात् यह जड़ जीव चैतन्य विभुसे विनती नहीं कर सकता ।। 5 ।। अतएव तू पहले अपनी ओर देख , तब मेरी ओर देख , तभी इस दासको सच्चा मानना [ राम - नामकी , श्रोट बड़ी भारी है । जिस किसीने भी रामनामका सहारा लिया , वह ( मृत्यु - भयसे ) बच गया ।। 6 ।। हे राम ! तेरी रहन - सहन सदा मेरे हृदयमे फूली नहीं समाती , तेरा शील स्वभाव विचारकर मै मन - ही - मन बड़ा प्रसन्न हो रहा हूँ , कि अब मेरी सारी करनी बन जायगी । बस , यह तुलसी तेग है , जिस तरह हो , उस तरह इसपर कृपा कर , जैसे बने तैसे , इसे अपना ले ।। 7 ।।
[150]
- रामभद्र । मोहि आपनी सोच है अरु नाहीं ।
- जोव सकल संताप के भाजन जग माहीं ।। १ ।।
- नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ ।
- तोको मोसे अति घने मोको एकै तू ॥ २ ॥
- बड़ी गलानि हिय हानि है सर्वग्य गुसाई ।
- कर कुसेवक कहत हौं सेवक की नाई ॥ ३ ॥
- भला पोच राम को कहै मोहि सव नरनारी ।
- विगरे सेवक स्वान ज्यो साहिब - सिर गारी ॥ ४ ॥
- असमंजस मन को मिटै सो उपाय न सूझे ।
- दीनबन्धु , कीजै सोइ बनि परै जो बूझै ॥ ५ ॥
- बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमे कोउ हौं हौं ।
- तुलसी प्रभु को परिहरयो सरनागत सो हौं ॥ ६ ॥
भावार्थ
हे कल्याण - स्वरूप रामचन्द्रजी ! मुझे अपना सोच है भी और नहीं भी है । जितने जीव हैं वे सभी इस संसारमे दुःखके पात्र हैं , सभी दुखी हैं । साराश यह है , कि मुझे सोच तो इस बातका है , कि हाय ! मै ससार - सागरमे ही डुबा पड़ा हूँ , अभीतक मुक्त नहीं हुआ । और निश्चिन्त इसलिए हूँ , कि जब सभी जीवोंकी मेरी - जैसी दशा है , तो मुझे कर्मफल भोगनेमें कुछ चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।।1 ।। पर यह तो बताश्रो कि , क्या आप - जैसे बड़े समर्थ से सिर्फ एक ही श्रोरसे सम्बन्ध है क्या , जिस प्रकार मैं आपको अपना मानता हूँ , आप मुझे न मानेंगे ? एकाङ्गी प्रेम रखेंगे क्या ? ( संभव है , क्योंकि ) श्रापको तो मेरे - जैसे अनेक हैं , किन्तु मुझे एक श्रापही है । भाव यह है , कि आप चाहें तो मुझसे निरपेक्ष हो जाये , पर मैं आपसे विमुख होनेका नहीं ।। 2 ॥ हे नाथ ! श्राप तो घट - घटकी जानते हैं , मुझे बड़ी ग्लानि हो रही है और हृदयमें इसे मैं हानि भी समझता हूँ कि हूँ तो मैं दुष्ट और बुरा सेवक , बेईमान नौकर , पर बातें ऐसी कर रहा हूँ जैसे कोई सच्चा सेवक करे । भाव यह है , कि मेरा यह पाखंड आपके आगे कैसे छिप सकता है , क्योंकि आपतो सर्वश है ।। 3 ।। भला हूँ या बुरा , पर कहते तो सब स्त्री - पुरुष मुझे रामका ही हैं ! सेवक और कुत्ते के बिगढ़नेसे स्वामीके मत्थे गालियों पड़ती हैं । तात्पर्य यह है , कि यदि मैं खोटाई करूँगा , तो लोग यही कहेंगे कि बुरा हो उस रामका , जिसके ऐसे - ऐसे नीच सेवक हैं । मुझे वह उपाय भी नहीं सूझ रहा है , कि जिससे चित्तकी यह दुविधा दूर हो जाय , अर्थात मेरी नीचता दूर हो जाय और आपको भी कोई भला बुरा न कहे । अब हे दीनबन्धु ! जो श्रापको समझ पड़े और जो बन सके , सो ( मेरे साथ ) कीजिए ।।4।। तनिक अपनी विरुदावलीकी ओर तो देखिए ! क्या मैं कहीं उसमे स्थान पा सकता हूँ ? ( भाव यह है , कि श्राप दीनबन्धु हैं , तो क्या मैं दीन नहीं हूँ ।।5।। आप पतित पावन हैं , तो क्या मैं पतित नहीं हूँ , आप प्रणतपाल हैं , तो क्या मैं प्रणत नहीं हूँ ! इनमेसे कुछ भी तो हूँगा ) बस उसी सम्बन्धसे श्रापको दबना पड़ेगा । यदि स्वामी इस तुलसीको छोड़ भी देंगे , तो भी यह उन्हींके सामने शरणमे जाकर पड़ा रहेगा , धरना दिये रहेगा ।।6 ।।
[151]
- जो पैचेराई राम की करतो न लजातो ।
- तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर - कर न बिकातो ॥१ ॥
- जपत जीह रघुनाथ को नाम नहिं अलसातो ।
- बाजीगर के सूम ज्यों खल खेह न खातो ॥२ ।।
- जो तू मन , मेरे कहे राम - नाम कमातो ।
- सीतापति सनमुख सुखी सब ठॉव समातो ॥३ ॥
- राम सोहाते ताहिं जौ तू सबहिं सोहातो ।
- काल करम कुल कारनी कोऊन कोहातो ॥४ ॥
- राम - नाम अनुरागही जिय जो रति आतो ।
- स्वारथ - परमारथ - पथी तोहिं सब पतितो ॥५ ॥
- सेइ साधु सुनि समुझि के पर - पीर पिरातो ।
- जनम कोटिको काँदलो हद - हृदय , थिरातो ॥६ ॥
- भव मग अगम अनन्त है , बिनु लमहि सिरातो ।
- महिमा उलटे नाम की मुनि कियो किरातो ॥७ ॥
- अमर - अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो ।
- होतो मंगल - मूल तू , अनुकूल बिधातो ॥८ ॥
- जो मन , प्रीति - प्रतीति सों राम - नामहिं रातो ।
- तुलसी रामप्रसाद सों तिहुँताप न तातो ॥९॥
भावार्थ
अरे ! जो तू श्रीरामचन्द्रजीकी गुलामी करनेमे शर्म न खाता तो तू खरा दाम होकर , खोटे दामकी नाई हाथो हाथ न बिकता फिरता । भाव यह है , कि तू है तो परमात्माका अश , पर अपने स्वरूपको भुला देने तथा मायाहीन होनेसे अनेक योनियोंसे टकराता फिरता है , कहीं तेरा आदर नहीं होता ।।1।। यदि तू जीभसे श्रीरघुनाथजीका नाम जपने में श्रालस्य न करता , तो आज तुझे बाजीगरके सूमके समान धूल न फॉकनी पड़ती । अर्थात् जैसे बाजीगर जब उसे कोई कंजूस खेल देखनेपर भी कुछ नही देता , उसके नामसे काठके पुतलेके मुँहमे धूल डालकर गालियों सुनाता है , उसी प्रकार यदि तू भगवन्नाम स्मरण करनेमे कजूसी न करता , खुले दिलसे दिन - गत नाम जपता , तो तुझे गालियों न खानी पड़ती , धूल न फॉकनी पड़तीं , तेरी ऐसी दुर्दशा न होती ॥2॥ अरे मन ! यदि तू मेरे कहने से राम - नाम कमाना , राम - नाम - रूपी धन संग्रह करता तो श्रीजानकी - बल्लभ रघुनाथजी तुझे अपनी शरण मे लेलेते , तू सुखी हो जाता और सर्वत्र तेरा श्रादर होता ; लोक भी बन जाता और पर लोक भी ॥ 3 ॥ जो तुझे श्रीरामजी अच्छे लगे होते , तो तू भी सबको अच्छा लगता ; काल , कर्म आदि जितने ( इस जीवके ) प्रेरक हैं , वे सब फिर क्रोध न करते , सभी तेरे अनुकूल हो जाते ॥ 4॥ यदि श्रीराम - नामसे ही तू अपनी लगन लगाता , प्रेम करता , तो स्वार्थ और परमार्थ इन दोनोंके ही बटोही तुझ पर विश्वास करते । अर्थात् संसार और परलोक दोनों ही बन जाते ॥5॥ जो तू सतोंकी सेवा करता , एवं दूसरोंकी पीड़ा सुन - समझकर दुखी होता , तो तेरे हृदय - रूपी तालाबमे जो अनेक जन्मोंका जमा मैल है , वह नीचे बैठ जाता , तेरा अंतःकरण निर्मल हो जाता ॥6 ॥ संसारका मार्ग अगम्य है , इसपर चलना महान् दुष्कर है , किन्तु ( उपर्युक्त आचरण करता हुश्रा ) तू बिना ही श्रमके उसे पार कर जाता । क्योकि श्रीरामका उलटानाम भी लेनेकी महिमाने किरात ( वाल्मीकि ) को मुनि बना दिया था । भाव यह है , कि जब उलटे नामका यह प्रभाव है , तब सीधा नाम जपनेसे क्या न सिद्ध हो जायगो । ॥7 ॥ अरे जड़ ! तेरा यह देवताओको भी दुर्लभ ( मानव ) शरीर यों ही न चला जाता । तू कल्याणका मूल हो जाता । अर्थात् “ ब्राझी " अवस्थाको पहुँच जाता , और दैव भी तुझपर कृपा करता ।। 8।। अरे मन ! यदि तू प्रेम और विश्वाससे राम नाममे लौ लगा देता , तो तुलसी , श्रीराम - कृपासे , तीनो तापोमे न जलता , ससारी बाधामोसे बच जाता ।।9।।
[152]
- राम भलाई आपनी भल कियो न काको ।
- जुग जुग जानकिनाथ को जग जागत साको ॥१ ॥
- ब्रह्मादिक बिनती करी कहि दुख बसुधा को ।
- रबिकुल कैरव - चन्द भो आनन्द - सुधा को ॥ २ ॥
- कौसिक गरत तुषार ज्यों तकि तेज तिया को ।
- प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपा को ॥ ३ ॥
- हरयो पाप आप जाइकै संताप सिला को ।
- सोच - मगन काढ्यो सही साहिब मिथिला को ।। ४ ॥
- रोष - रासि भृगुपति धनी अहमिति ममता को ।
- चितवत भाजन करि लियो उपसम समता को ॥५ ॥
- मुदित मानि आयसु चले बन मातु - पिता को ।
- धरम - धुरन्धर धीरधुर गुन - सील जिता को ॥६ ॥
- गुह गरीब गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को ।
- पायो पावन प्रेम ते सनमान सखा को ।। ७ ॥
- सदगति सबरी गिद्ध की सादर करता को ।
- सोच - सीव सुग्रीव के संकट - हरता को ।। ८ ॥
- राखि बिभीपन को सकै अस काल - गहा को ।
- आज बिराजत राज है दसकंठ जहाँ को ॥९ ॥
- बालिस बासी अवध को बूझिये न खाको ।
- सो पावर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि - मन थाको ॥१० ॥
- गति न लहै राम - नाम सों बिधि सो सिरजा को ।
- सुमिरत कहत प्रचारि के बल्लभ गिरिजा को ॥११ ॥
- अकनि अजामिल को कथा सानन्द न भा को ।
- नाम लेत कलिकाल हू हरिपुरहिं न गा को ॥१२ ॥
- राम - नाम - महिमा करै काम - भूरुह आको ।
- साखी बेद पुरान है तुलसी - तन ताको ॥१३ ॥
भावार्थ
श्रीरामजीने अपने भले स्वभावसे किसका भला नहीं किया ? भाव , सबका भला किया । युग - युगसे श्रीजानकी - रमणजीका यश संसार में प्रसिद्ध है ॥1 ॥ ब्रह्मा श्रादि देवताोने पृथ्वीका दुःख कहकर विनय की थी , सो ( पृथ्वीका भार रहनेके लिए , राक्षसों को मारनेके लिए ) सूर्यवंशरूपी कुमोदनी को प्रफुल्लित करनेवाले एवं अमृतोपम आनन्द देनेवाले श्रीरामच द्रजी प्रकट हुए , अर्थात् अवतार लिया ॥2 ॥ विश्वामित्र ताड़काका तेज देखकर श्रोलेकी नाई गले जाते थे । प्रभुने ताड़काको मारकर , शत्रुको मित्रका - सा फल दिया एवं क्रोधके बदले कृपा की । भाव यह है , कि दुष्ट ताड़काको स्वर्ग भेजकर उस पर कृपा की ॥ 3 ॥ स्वयं जाकर पाषाणी ( अहल्या ) का पाप - संताप दूर कर दिया , उसे दिव्य देह देकर पति - लोक भेज दिया , फिर , मिथिलाके महाराज जनकको शोक सागरमेसे डुबते हुए निकाल लिया , अर्थात् धनुष तोड़कर उनकी प्रतिज्ञा पूरी कर दी ॥4 ॥ परशुराम क्रोधके भडार एव अहकार और ममत्व के धनी थे , उन्हे भी आपने देखते ही शान्ति और समताका पात्र बना लिया । अर्थात् वह क्रोधीसे शान्त और अहंकारीसे समद्रष्टा हो गये । यह सब श्रीरामजीके शील - स्वभावहीका प्रभाव है ॥5॥ माता ( कैकेयी ) और पिताकी श्राशा मानकर प्रसन्नचित्तसे वन चले गये । ऐसा , भला , धर्मधुरंधर और धैर्य पुंगव तथा सद्गुण ओर शीलका जीतनेवाला दूसरा कौन है ? कोई भी नहीं ॥6 ॥ जिसकी जातिका कोई ठिकाना नहीं , जिसने सब प्रकारके जीवोंका भक्षण किया , जो गरीब था ऐसे गुह निषादने भी ( जिस रघुनाथजीसे ) पवित्र प्रेमके कारण सखा - जैसा आदर प्राप्त किया ॥7॥ शबरी और गीध ( जटायु ) -को मोक्ष देनेवाला कौन है ? और शोककी सीमा अर्थात् महान् दुखी सुग्रीवका संकट करनेवाला कौन है ? ( वही रघुनाथजी ) ॥8 ॥ ऐसा कौन कालका पास था , जो ( रावणसे बहिष्कृत ) बिभीषणको अपनी शरण में रखता , जिस रावणके राज्य में आज भी बिभीषण राजा बना बैठा है ( यह सब कृपा रघुनाथजीकी ही है ) ॥9 ॥ अयोध्याका रहनेवाला मूर्ख धोबी , जिसमे खाक - बराबर भी बुद्धि न थी , अथवा जिसे कोई धूलके बराबर भी नहीं समझना था , वह पापी भी वहाँ पहुँच गया , जहाँ पहुँचनेमें मुनियोंका मनतक थक जाता है । भाव यह है , जिस परमधामके सम्बन्धमें बड़े - बड़े मुनि विचारतक नहीं कर सकते , वहाँ वह धोबी सदेह चला गया ।।10 ॥ ब्रह्माने ऐसा कौन बनाया , जो राम - नामके प्रभावसे मुक्तिका भागी न हो ? भाव , जीवमात्र राम - नामसे मुक्त हो सकते हैं । पार्वती वल्लभ शिवजी ( जिस ) राम - नामका स्वयं स्मरण करते हैं और दूसरोको सुना सुनाकर उसका प्रचार करते हैं ॥11 ॥ अजामेलकी कथा सुनकर कौन प्रसन्न नहीं हुआ ? और राम नाम स्मरण कर , इस कलिकालमे कौन ऐसा है जो विष्णुलोक न गया हो ? ॥12 ॥ राम - नामका महत्व अकौवाको भी कल्पवृक्ष कर सकता है । इस बातके प्रमाण वेद और पुराण हैं । ( इसपर भी विश्वास न हो , तो ) तुलसीकी अोर देखो । भाव यह है , कि मै महानीच था , पर राम नामके प्रभावसे ही आज रामभक्तोमे गिना जाता हूँ ॥ 13 ॥
[153]
- मेरे राबरिये गति रघुपति है बलि जाउँ ।
- निलज नीच निर्गुन निर्धन कहँ , जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ ।। १ ।।
- हैं घर घर बहु भरे सुसाहिब , सूझत सबनि आफ्नो दाउँ ।
- बानर - बंधु बिभीषन - हितु बिनु , कोसलपाल कहूँ न समाउँ ।। २ ॥
- प्रनतारति - भंजन जन - रंजन , सरनागत पबि - पंजर नाउँ ।
- कीजै दास दासतुलसी अंब , कृपासिंधु , बिर्नु मोल बिकाउँ ।। ३ ॥
भावार्थ
हे रघुनाथजी ! बलिहारी , मुझे तो केवल आपकी ही शरण है , मेरी दौड़ अापही तक है । क्योकि निर्लज्ज , नीच , मूर्ख और गरीबके लिए संसार में ( श्रापको छोड़कर ) न तो कोई स्वामी है , और न ठिकाना ही । वह किसका होकर रहे और कहाँ जाय ॥1 ॥ वैसे तो घर - घर बहुतसे अच्छे - अच्छे मालिक हैं , किन्तु उन सबोको अपना ही दॉव दिखता है , वे अपना ही स्वार्थ साधना चाहते है । मैं तो बन्दरो के मित्र और बिभीषणके हितू कोशलेश श्रीरामचन्द्र जीको छोड़कर और कहीं भी शरण नहीं पा सकता , मेरी पूछ और किसी साहब के यहाँ न होगी ॥2 ॥ श्रापका नाम भक्तोंके दुःखोका नाश करनेवाला , सेवक जनोंको सुख देनेवाला और शरणागतोंके लिए बज - निर्मित पिंजड़े के समान है , ( अमोघ कवच है ) । बस , अब तुलसीदासको अपना दास बना लीजिए । हे कृपासागर ! अब मैं बिना ही मोलके ( आपके हाथमें ) बिकना चाहता हूँ । भाव यह है , कि आपका निष्काम सेवक बनना चाहता हूँ , मुझे अपना कोई स्वार्थ नहीं साधना है ।।3।।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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