विनय पत्रिका Vinaya Patrika

 विनय पत्रिका
Vinaya Patrika
पद सं . 154 से 161
(श्री हरि - तोषिणी टीका सं . वियोगी हरि)

विनय पत्रिका  Vinaya Patrika

[154]

  • ' देव , दूसरो कौन दीन को दयालु । 
  • सीलनिधान सुजान - सिरोमनि , सरनागत - प्रिय प्रनत - पालु ।।१ ।। 
  • को समरथ सर्बग्य सकल प्रभु , सिव - सनेह - मानस - मरलु । 
  • को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु ।।२ ।। 
  • नाथ , हाथ माया - प्रपञ्च सब , जीव - दोष - गुन - करम - कालु । 
  • तुलसिदास भलो पोच रावरो , नेकु निरखि कीजिय निहालु ॥३।।

भावार्थ

हे देव ! ( श्रापको छोड़कर ) दीनोंपर दया करनेवाला दूसरा और कौन है ? श्राप ही एक शीलके स्थान , शानियोंमे श्रेष्ठ , शरणागतोंके प्यारे और भक्तोंके पालनेवाले हैं ॥ 1 ॥ कौन आपके समान सर्वशक्तिमान् है ? हे नाय ! श्राप सब जाननेवाले हैं , सबके स्वामी हैं और शिवजीके प्रेम रूपी मान सरोवरमें ( विहार करनेवाले ) हंस हैं , सदैव शिवजीके प्रेमाधीन होकर उनके हृदयमें वास करते हैं । किस मालिकने प्रेमवश पक्षी ( जटायु ) , राक्षस ( विभी षण ) , बन्दर , भील ( निषाद ) और भालुओंको अपना मित्र बनाया है । भाव यह है , कि ऐसे एक श्रीरघुनाथजी ही हैं , दूसरा नहीं ।।2 ॥ हे नाथ ! आपके हाथ मायाका सारा प्रपंच एव जीवोंके दोष , गुण , कर्म और काल हैं । यह तुलसीदास , भला हो वा बुरा , आपका ही है । तनिक इसकी ओर देखकर इसे निहाल कर दीजिए ॥3 ॥ 

[155]

  • राग सारंग
  • बिस्वास एक राम - नाम को । 
  • मानत नहिं परतीति अनत ऐसोई सुभाव मन बाम को ॥१ ॥
  •  पढ़िबो परयो न छठी , छ मत रिगुजजुर अथर्वन साम को ।
  •  व्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को ॥२ ॥
  •  करम - जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दाम को ।
  •  ग्यान बिराग जोग जप तप भय लोभ मोह कोह काम को ।।३ ।। 
  • सब दिन सब लायक भवक्षगायक रघुनायक गुन - ग्रामको ।
  •  बैठे नाम - कामतरु - तर हर कौन घोर घन घाम को ।।४।।
  •  को जाने को जैहै जमपुर , को सुरपुर परधाम को । 
  • तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलाम को ॥५ ॥ 

भावार्थ 

मुझे एक राम - नामका ही विश्वास है । मेरे कुटिल मनकी कुछ ऐसी प्रकृति है , कि वह और कहीं प्रतीति ही नहीं करता ( चाहे कोई कितना ही लोभ क्यों न दिखाये ) ॥1 ॥ छः शास्त्रोके सिद्धान्तों तथा ऋक् , यजु , अथर्वण और साम वेदोका पढ़ना मेरे भाग्यहीमे नहीं लिखा गया है ( मुझे काला अक्षर भैस - बराबर है , अब रहे और उपाय , सो ) व्रत , तीर्थ , तप आदि सुनकर मन डर रहा है । कौन ( इन साधनोंमे ) पच - पचकर मरे , या शरीरको क्षीण करे ।।2 ।। कर्म - काण्ड कलियुगमे कठिन है , और वह द्रव्याधीन भी है । भाव यह है , कि एक तो पासमे पैसा नहीं , कि जिससे यज्ञ आदि किया जाय , दूसरे कलियुगमे अनेक विघ्न - बाधाएँ हैं , जिनके मारे कभी पूरा नहीं पड़ सकता । और ज्ञान , वैराग्य , योग , जप और तपमे लोभ , अज्ञान , क्रोध और कामका भय लगा है ( इनके मारे वे भी सधनेके नहीं ) ।। 3 ।। इस संसारमें श्रीरघुनाथजी की गुणावली गानेवाले ही सदा सब प्रकारसे योग्य हैं । भाव , हरिकीर्तन करनेवाले ही सर्वगुण सम्पन्न हैं , उन्हें कोई विघ्न - बाधा नहीं सताती । जो रामनाम - रूपी कल्पवृक्षकी छायामे बैठे हैं , उन्हे घन - घोर घटा अथवा तेज धूपका क्या डर है । तात्पर्य यह है , कि उन्हें न तो संसारी विपत्तियों ही सता सकती है और न पाप सन्ताप ही , क्योकि उनकी सारी मनस्कामनाएँ पूरी हो जाती हैं ।। 4।। कौन जानता है , कि कौन नरक जायगा , कौन स्वर्ग जायगा और कौन ब्रह्म - लोक जायगा ? तुलसीदासको तो इस संसारमे रामजीका गुलाम होकर जीवा ही बहुत अच्छा लगता है ।।5।।

 [156]

  • कलि नाम कामतरु राम को । 
  • दलनिहार दारिद दुकाल दुख , दोष घोर घन घाम को ॥१॥
  •  नाम लेत दाहिनो होत मन , बाम बिधाता बाम को । 
  • कहत मुनीस महेश महातम , उलटे सूधे नाम को ॥२ ॥ 
  • भलो लोक - परलोक तासु जाके बल ललित - ललाम को ।
  •  तुलसी जग जानियत नाम ते सोच न कूच मुकाम को ।।३ ।। 

भावार्थ 

कलियुगमें श्रीराम - नाम कल्पवृक्ष है । वह दारिद्रय , दुर्भिक्ष , दुःख , दोष और सांसारिक धनघटा ( विपत्तियों ) तथा कड़ी धुप ( ताप - संताप ) का नाश करनेवाला है ; अथवा संसारी कड़ी धूपसे बचाने के लिए मेघरूप है ॥1॥ रामनाम लेते ही प्रतिकूल विधाताका प्रतिकूल मन अनुकूल हो जाता है , रूठा हुआ दैव भी प्रसन्न हो जाता है । मुनीश्वर वाल्मीकिने उलटे अर्थात् ' मरा मरा ' नामकी महिमा गाई है । और शिवजीने सीधे रामनामका महात्म्य बताया है । तात्पर्य यह है , कि उलटा नाम जपते जपते वाल्मीकि बहेलियासे ब्रह्मर्षि हो गये और शिवजी सीधा नाम जपनेसे हलाहल विषका पान कर गये तथा स्वयं भगवत्स्वरूप माने गये ॥ 2 ॥ जिसे इस सुन्दरसे भी सुन्दर राम नामका बल भरोसा है , उसके लोक और परलोक दोनो ही बने बनाये हैं , दोनों ही हाथ लड्डु है । हे तुलसी ! रामनामसे इस ससारमें न तो मौतहीका सोच जाना जाता है और न गर्भवासहीका , आवा गमन दोनोंही हँसी - खेल हो जाते हैं ॥3 ॥

[157]

  • सेइये सुसाहिब राम सो । सुखद् सुसील सुजान सूर सुचि , सुन्दर कोटिक काम सोश । सारद सेस साधु महिमा कहै , गुनगर - गायक साम सो । सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति , चाहत चन्द्र - ललाम सो ।। ।। गमन विदेस न लेस कलेस को , सकुचत सकृत प्रनाम सो । साखी ताको बिदित बिभीपन , बैठो है अविचल धाम सो ॥३ ॥ टहल - सहज जन महल - महल , जागत चारो जुग जाम सो । देखत दोष न खीझत , रीझत सुनि सेवक गुन - ग्राम सो ॥४ ॥ जाके भजे तिलोक - तिलक भये , त्रिजग जोनि तनु तामसो । तुलसी ऐसे प्रभुर्ति भजै जो न ताहि विधाता बाम सो ॥५ ॥ 

भावार्थ

राम - जैसे सुन्दर स्वामीकी सेवा करनी चाहिए । वह सुख देनेवाले , सुशील , चतुर , वीर , पुण्यश्लोक और करोड़ों कामदेवोंके समान सुंदर है ।।1 । उनकी महिमाका बखान सरस्वती , शेषनाग और सन्तजन करते हैं । उनकी गुणावलीके गानेवाले सामवेद - सरीखे है । जिनका नाम प्रेमपूर्वक स्मरण करते हुए शिवजी सरीखे ( महादेव ) भी उनसे लगन लगाना चाहते हैं ॥2 ॥ उन्हे विदेश अर्थात् वन जाते समय तनिक भी दुःख न हुआ । भाव यह है , कि वह ऐसे एकरस , सदा प्रसन्न रहनेवाले हैं कि उन्हें बन जाते हुए कुछ भी कष्ट नहीं हुअा । उन्हें यदि कोई एकबार भी प्रणाम कर लेता है , तो वे संकोच के मारे दब जाते है ( ऐसे शीलवान् है ) , इसका साक्षी विभीषण प्रसिद्ध है , कि जो आज भी ( लंकामे ) अटल राज्य कर रहा है ॥3 ॥ उनकी चाकरी बड़ी सहल है ( चूक भी पड़ जाय , तो माफ़ कर देते है ) ; वह अपने भक्तोंके घट घटमे , चारों युगसे ( रात्रिके अथवा अविद्यारूपी रातिके ) चारों पहर , जागते रहते हैं । भाव , मोह या संकट के समय उनके हृदयमें बैठकर चौकसी किया करते हैं , रखवाली करते हैं । अपराध देखते हुए भी सेवकपर क्रोध नहीं करते । और जब अपने सेवककी गुणावली सुनते है , तब उसपर निहाल हो जाते है ॥4॥ उन्हे भजनेसे , उनकी उपासना करनेसे , पशु - पक्षी एव तामसी शरीर वाले । राक्षस ) भी त्रिलोक - शिरोमणि माने गये । हे तुलसी ! ऐसे ( सुशील , सुन्दर , जनवत्सल , पतितपावन एव शरण्य ) प्रभुको जो नहीं भजते उनपर विधाता ही प्रतिकूल है , यही समझना चाहिये ॥5 ॥ 

[158]

राग नट

  • कैसे देउँ नाथहि खोरि । 
  • काम - लोलुप भ्रमत मन हरि , भगति परिहरि तोरि ॥१ ॥ बहुत प्रीति पुजाइबे पर , पूजिबे पर थोरि । 
  • देत सिख सिखयो न मानत , मूढ़ता अस मोरि ।।२ ।। 
  • किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि । 
  • संग - बस किये सुभ मुनाये सकल लोक निहोरि ।। ३ ॥ 
  • करौं जो कछु धरौं सचिपचि सुकृत - सिला बटोरि । 
  • पैठि उर बरबस दयानिधि , दंभ लेत अँजोरि ॥४ ॥ 
  • लोभ मनहि नचाव कपि ज्यों , गरे आसा - डोरि । 
  • बात कहौं बनाइ बुध ज्यों , बर बिराग निचोरि ॥५ ॥ 
  • एतेहूँ पर तुम्हरो कहावत , लाज अँचई घोरि । 
  • निलजता पर रीझि रघुबर , देहु तुलसिहि छोरि ।। ६ ॥ 

भावार्थ

मै अपने स्वामीको कैसे दोष देता हूँ ! हेहरे ! तुम्हारी भक्तिको छोड़कर मेरा मन काममे फँसा हुअा इधर - उधर घूमता रहता है ( कभी क्षणभर भी निश्चल होकर तुम्हारा ध्यान नहीं करता ) ॥1 ॥ अपने पुजानेमे तो मेग बड़ा प्रेम है , सदा यही चाहता रहता हूँ , कि लोग मुझे सन्त - महन्त मानकर मेरी प्रतिष्ठा करें ; किन्तु तुम्हें पूजनेमे बहुत ही कम श्रद्धा है । दूसरोको तो उपदेश करता हूँ ( यह चाहता हूँ , कि लोग मेरे उपदेशपर चले ) पर स्वय किसीकी शिक्षा नही मानता - ऐसी मेरी मूर्खता है ॥ 2 ॥ जिन - जिन पापोको मैने बड़े ही चावसे किया है , उन्हें तो हृदयमे छिपा कर रख लिया , पर कभी किसी सत्संग में पड़कर मुझसे जो अच्छे काम बन गये है , उन्हे मै सारे ससारको निहोरा कर कर सुनाता फिरता हूँ । भाव यह , कि मुझे सदा यही पडी रहती है , कि दुनियाँ मुझे महात्मा समझे ॥ 3 ॥ कना जो - कुछ सत्कर्म बन जाता है उसे खेतमे पड़े हुए अन्नके दानोकी तरह बटोर बटोरकर रख लेता हूँ , किन्तु हृदयमे जबरदस्ती पैठकर पाखड उसे भी खोज - खोजकर बाहर निकाल फेकता है । भाव यह है , कि पाखड सारे किये हुएको मिट्टीमे मिला देता है ॥ 4 ॥ लोभ मेरे मनको आशारूपी रस्सीसे इस तरह नचा रहा है , जैसे कोई बदरके गले मे डोरी बॉधकर उसे मनमाना नचावे । ( और इसी लोभके वश हो ) मै वैराग्य और तत्त्वकी बातें , बड़े बड़े पंडितोकी नाई , मारा करता हूँ ॥ 5 ॥ इतना सब ( पाखण्ड ) होनेपर भी तुम्हारा ( दास ) कहाता हूँ । जो लाज थी , उसे भी घोलकर मानों पी गया हूँ । भाव , अब बेशर्म होकर जो चाहे सो किया करता हूँ । हे रघुनाथजी ! ( और तो मेरे पास कुछ रहा नहीं ) बस , इस निर्लज्जतापर ही रीझकर , मेरा बंधन काट दो , मुझे ससार - जालसे मुक्त कर दो ॥ 6 ॥

[159]

  • है प्रभु मेरोई सब दोसु । 
  • सीलसिंधु , कृपालु , नाथ अनाथ , आरत - पोसु ॥१ ॥ 
  • बेप बचन विराग मन अघ अवगुननि को कोसु । 
  • राम , प्रीति - प्रतीति पोली , कपट - करतब ठोसु ॥२ ॥ 
  • राग - रग कुसंग ही सों , साधु - संगति रोसु । 
  • चहत केहरि - जसहिं सेइ सुगाल ज्यों खरगोसु ॥३ ।।
  • संभु - सिखवन रसन हूँ नित राम - नामहिं घोसु । 
  • दंभहू कलि नाम कुम्भज सोच - सागर सोसु ॥४ ॥ 
  • मोद - मंगल - मूल अति अनुकूल निज निरजोसु । 
  • रामनाम - प्रभाव सुनि तुलसिहूँ परम संतोसु ॥५ ।। 

भावार्थ

हे प्रभो ! सब मेरा ही दोष है । आपतो शीलके समुद्र , कृपालु , अनाथोंके नाथ और दन - दुखियों के पालने पं.सनेवाले है ॥1॥ मेरे भेष और बचनोंमे तो वैराग्य झलक रहा है , किन्तु मन पापों और अवगुणोंका खजाना है । हे रामजी ! श्रापकी भक्ति और श्रद्धाके लिए मेरा मन खोखला है अर्थात् उसमे तनिक भी भक्ति और प्रतीति नहीं है ; किन्तु छल - कपटके कामोके लिए ठोस है , कपट ही - कपट भरा है ।।2 ।। जैसे खरगोश सियारकी सेवा करके सिंह की कीर्ति चाहता है , वैसे हो मैं कुसंगतिसे नो प्रेम करता हूँ , अानन्द मनाता हूँ , और साधुनोंके संगसे रूठा रहता हूँ । भाव यह है , कि जैसे खरगोश गीदड़ . के बूते पर सिंहका - सा यशोलाभ करना चाहता है , गजेन्द्र के पछाड़नेकी बहादुरी दिखाना चाहता है , पर यह सब कैसे हो सकता है ? सियार तो उसे भक्षण करनेवाला है । यश दूर रहा , उसे प्राणोसे हाथ धोने पड़ेगे । इसी प्रकार जो कुसंगमे पड़कर कीर्ति कमाना चाहता है , सो कीर्तिके बदले उसे अपकीर्ति ही मिलेगी और भी बदनाम हो जायगा ॥3 ।। शिवजीका उपदेश यही है , कि " नित्य जीभसे रामनामका उच्चारण कर " । कलियुगमे पाखण्डसे भी लिया हुआ रामनाम , अगस्त्यकी तरह दुःख - सागरको सोख लेता है ( प्रायः ऊपरी तौरसे रामनाम रटनेपर लोग यह श्राक्षेप किया करते हैं , कि अन्तःकरण तो शुद्ध नहीं , ऊपरसे , पाखडसे , " रामनाम " जपनेसे क्या होता है ? इसपर यह कहा गया है , कि पाखडसे रटा हुअा नाम भी लोक - परलोक दोनोकी चिंताओको दूर कर देता है ) ॥4॥ वह ( नाम ) श्रानन्द और कल्याणकी जड़ है , कारणका भी कारण है । यह मेरा निश्चय है , कि अपने लिए एक रामनाम ही अत्यन्त अनुकूल है । रामनामका ऐसा प्रभाव सुनकर तुलसीको भी बड़ा सन्तोष है इसलिए , कि मेरा भी उद्धार हो जायगा ) ।।5।।

[160]

  • मैं हरि , पतित - पावन मुने । 
  • मै पतित म पतित - पावन दोउ बानक बने ।।१।। 
  • ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने । 
  • और अधम अनेक तारे जात कापै गने ।।२ ।। 
  • जानि नाम अजानि लीन्हे नरक जमपुर मने । 
  • दासतुलसी सरन आयो , राखिये आपने ॥ ३।।

भावार्थ

हे हरे ! मैंने तुम्हें पापियोको पवित्र करनेवाला सुना है । सो मैं तो पापी हूँ और तुम हो पापियोका उद्धार करनेवाले बस , दानो के बाने बन गये , दोनोंका मेल मिल गया । भाव यह , कि मुझे पतित - पावनकी जरूरत थी और तुम्हें पतित की । मेरी भी कामना पूरी हो गयी और तुम्हारी भी ।।1 ।। वेद साक्षी भर रहे हैं , कि तुमने व्याध ( वाल्मीकि ) , गणिका ( पिंगला वेश्या ) , गजेन्द्र और अजामेलको ससार - सागरसे पार कर दिया है , ( इतनाही नहीं ) तुमने और भी अनेक नीचोको तारा है । उनकी गिनती किससे हो सकती है ? ।।2 ।। जिन्होने जानकर या बिना जाने तुम्हारा नाम - स्मरण किया है , उन्हे नरक और यमपुर जानेकी मनाई कर दी गयी है ( ये सीधे वैकुंठ चले गये हैं । यह सब समझ बूझकर ) तुलसी भी तुम्हारी शरणमें आया है । इसे भी अपना लो ॥3॥

[161]

  • राग मलार 
  • तो सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो । 
  • तौ सहि निपट निरादर निसिदिन , रटिलटि ऐसो घटि को तो ॥१ ॥ 
  • कृपा - सुधा - जलदान मागिबो कहौं सो साँच निसोतो ।
  •  स्वाति - सनेह - सलिल - सुख चाहत चित - चातक को पोतो ॥२ ॥ 
  • काल - करम - बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कछु भो तो ।
  •  ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो ॥३ ॥ 
  • जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो । 
  • तेरे राज राय दशरथ के , लयो बयो बिनु जोतो ॥४ ॥

भावार्थ

यदि तेरे जैसा कहीं कोई दूसरा मालिक होता , तो भला ऐसा कौन क्षुद्र था , जो बड़ा भारी अपमान सहकर एव दिन - रात तेरा नाम रट - रटकर दुर्बल होता । तात्पर्य यह है , कि तेरे सिवा और कोई कही समर्थ नहीं है । सब जगह भटककर ही तेरे द्वारपर धरना दिया है ।। 1 ।। जो मै तुझसे कृपारूपी अमृतजल माँग रहा हूँ , वह सचमुच ही निराला है । मेरा चित्तरूपी चातकका बच्चा प्रेमरूपी स्वातिनक्षत्रका आनन्दरूपी जल चाहता है । भाव , तेरे प्रेमा नन्दके लिए मेरा चित्त तड़प रहा है , उसे पलभर भी कल नहीं पड़ता ; बच्चा ही है , धीरज कैसे बँध सकता है ।। 2।। काल अथवा कर्मके कारण यदि कभी कभी मनमे कोई बुरी वासना आ भी जाती है , ( उस प्रेमानन्दसे चित्त हटने लगता है ) तो वह ऐसा हो है , जैसे मछलो सुखसे जलमे रहती हुई कभी - कभी उछलकर फिर उसीमे घबराकर गोता लगा जाती है । साराश , उसे जैसे क्षण भरका भी जल - वियोग सहन नहीं होता , वैसे ही मेरा चित्त - चातक तेर प्रेमजलसे अलग होनेपर घबरा जाता है , बार फिर उसीके लिए चेष्टा करता है ॥ 3 ॥ जितना छल - कपट तुलसी - दासके हृदय मे है , उतना किस प्रकार कहा जा सकता है ? ( पर इतना विश्वास है कि ) हे दशरथ - दूलारे ! तेरे राज्यमे लोगोने बिना ही जोते - बोये पाया है । भाव यह , कि बिना ही सत्कर्म किये अनेक पापियोंने मोक्ष - लाम किया है । मेरी भी , उसी प्रकार , बन जायगी , यही विश्वास है ॥ 4 ॥

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