भारतीय काव्यशास्त्र काव्य परिभाषा व काव्य लक्षण
Definition and Characteristics of Poetry

भारतीय काव्यशास्त्र काव्य- परिभाषा व काव्य लक्षण

परिभाषा व लक्षण का अर्थ

" लक्षणसंस्कृत का एक पारिभाषिक शब्द है , जिसका अर्थ है ‘वह सरल तथा संक्षिप्त परिभाषा है , जो अव्याप्ति , अतिव्याप्ति और असम्भव दोषों से मुक्त हो ।‘ सामान्यत: परिभाषा और लक्षण को एक माना जाता है । इस दृष्टि से दोनों समानार्थी हैं । किसी विषय या वस्तु के बारे में ऐसा सर्वव्यापक नियम जो उस पर पूरी तरह से लागू हो , उसे- "पारिभाषा” कहते हैं । जिस विषय या वस्तु की परिभाषा होती है उसके बारे में उसका निश्चित और स्पष्ट अर्थ होता है ।

लक्षण का शाब्दिक अर्थ है - चिह्न निशान , यथार्थ वर्णन , विशेषता । इसका व्यूत्पत्तिमूलक अर्थ है - लक्ष्यते अनेन इति लक्षणम् । जिसके द्वारा किसी वस्तु की पहचान करायी जाती है उसे लक्षण कहते हैं । आदर्श - लक्षण में यह अपेक्षा की जाती है कि वह निर्दोष और पूर्ण हो । उसमें किसी प्रकार की कमी ( अव्याप्ति ) और आधिक्य ( अतिव्याप्ति ) न हो , असंभव जैसी बात भी न हो । उसमें यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह सटीक , संक्षिप्त और सुबोध हो । ऐसी दुरूह पारिभाषिक शब्दावली से लक्षण को दूर रखना पड़ता है जिसकी लम्बी व्याख्या करनी पड़े । कुल मिलाकर लक्षण किसी वस्तु के बाहरी - भीतरी स्वरूप का बोध कराने में सक्षम होता है जो लक्षण वस्तु के बाहरी स्वरूप का बोध कराता है वह ' बाह्ययांगनिरुपक ' और जो उसके भीतरी स्वरूप का बोध कराता है । ' अंतरंग ' लक्षण कहलाता है । पूर्ण लक्षण एक साथ वस्तु के बाहरी - भीतरी स्वरूप का बोध कराता है ।

संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य के स्वरूप पर पर्याप्त विचा विमर्श हुआ है , जिससे विभिन्न काव्य सम्प्रदायों का विका हुआ और काव्य के प्रमुख तत्वों की चर्चा करते हुए काव्य लक्षण निर्धारित करने का प्रयास किया गया । विद्वानों में मतभेद होने के कारण काव्य की कोई सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत करने में वे सफल नहीं हो सके । आचार्यों ने अपने - अपने मत को प्रमुखता देते हुए जो काव्य लक्षण निर्धारित किए हैं , वे सर्वमान्य नहीं कहे जा सकते । यहां हम कालक्रमानुसार संस्कृत आचार्यों द्वारा दिए गए काव्य लक्षणों को प्रस्तुत करने के उपरान्त हिन्दी के प्रमुख आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षणों को प्रस्तुत करेंगे , तदुपरान्त अंग्रेजी के प्रमुख समीक्षकों द्वारा दी गई काव्य की परिभाषाओं का उल्लेख करेंगे ।

संस्कृत आचायों के मत

भामह ( छठी शताब्दी )

भामह ने अपने ग्रन्थ ' काव्यालंकार ' में काव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है : “ शब्दार्थों सहितौ काव्यम् । "

अर्थात् शब्द और अर्थ के ' सहित भाव ' को काव्य कहते हैं । इस परिभाषा में ‘ सहित ' शब्द अस्पष्ट है । इसके दो अर्थ हो सकते हैं

साहित्यिक सामंजस्य ।

हित सहित ।

आचार्य दण्डी ( 7 वीं शताब्दी )

आचार्य दण्डी ने अपने ग्रन्थ ' काव्यादर्श ' में काव्य की निम्नलिखित परिभाषा दी है : “ शरीरंतावदिष्टार्थ व्यवच्छिना पदावली । "

अर्थात् इष्ट अर्थ से युक्त पदावली तो उसका ( अर्थात् काव्य का ) शरीर मात्र है । स्पष्ट है कि दण्डी केवल शब्दार्थ को काव्य नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार शब्दार्थ तो काव्य का शरीर मात्र है , उसकी आत्मा नहीं । दण्डी अलंकारवादी आचार्य थे और अलंकार को काव्य की आत्मा मानते थे ।

आचार्य वामन ( 8 वीं शताब्दी )

रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन ने अपने ग्रन्थ ' काव्यालंकार सूत्रवृत्ति ' में काव्य की निम्न परिभाषा दी है । ‘गुणालंकृतयो शब्दार्थयो काव्य शब्दो विद्यते । '

अर्थात गुण और अलंकार से युक्त शब्दार्थ ही काव्य के नाम से जाना जाता है ।

आचार्य मम्मट ( 12 वीं शताब्दी )

संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख विद्वान् आचार्य मम्मट ने अपने ग्रन्थ ' काव्यप्रकाश ' में काव्य की निम्न परिभाषा दी है : " तददोषौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि । "

अर्थात् काव्य होता है वह शब्द और अर्थ जो दोष से रहित हो , गुण से मंडित हो तथा कभी - कभी अलंकार से रहित भी हो सकता है । इस परिभाषा के आधार पर काव्य के निम्न लक्षण सामने आते हैं 

शब्दार्थो अर्थात् काव्य शब्द और अर्थ का योग है ।

काव्य शब्द है अथवा शब्दार्थ - इस विषय में विद्वानों के दो वर्ग हैं । एक वर्ग उन आचार्यों का है जो काव्य को शब्दार्थ स्वीकार करते हैं । मम्मट इसी वर्ग के आचार्य हैं । उनके अतिरिक्त आचार्य भामह , वामन , रुद्रट आदि ने काव्य को शब्दार्थ स्वीकार किया है ।

अदोषौ अर्थात् काव्य दोष रहित होना चाहिए ।

मम्मट ने काव्य का एक लक्षण दोषहीनता माना है । आचार्य विश्वनाथ ने दोषहीनता को काव्य परिभाषा में स्थान देना अनुपयुक्त माना है , क्योंकि दोष हीन काव्य आकाश कुसुमवत् अर्थात असम्भव है । दोष इतने सूक्ष्म और व्यापक होते हैं कि कवि के सावधान रहने पर भी उसकी रचनाओं में दोष आ ही जाते हैं । वास्तविकता यह है कि दोष काव्य के सौन्दर्य में व्याघात तो उत्पन्न करते हैं , किन्तु उसका काव्यत्व नष्ट नहीं करते ।

सगुणौ अर्थात् काव्य गुण युक्त होना चाहिए ।

मम्मट ने काव्य का गुण युक्त होना स्वीकार किया है , पर आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट के काव्य लक्षण में सगुणौ पद की आलोचना की है । उनके अनुसार सगुणौ शब्दार्थो का विशेषण कदापि नहीं हो सकता । वस्तुतः गुण रस के धर्म हैं , शब्दार्थ के नहीं ।

अनलंकृति पुनः क्वापि अर्थात् काव्य में अलंकार अनिवार्य नहीं हैं ।

मम्मट अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं मानते । उनके अनुसार अलंकार काव्य में होने तो चाहिए , पर वे काव्य के ऐसे तत्व नहीं हैं जिनके अभाव में काव्य का काव्यत्व ही नष्ट हो जाएगा । अलंकार रहित होने पर भी कोई सरस उक्ति कविता की श्रेणी में ही गिनी जाएगी । अलंकारवादी आचार्य जयदेव ने तो यहां तक कहा है कि अलंकार काव्य के स्वाभाविक धर्म हैं , उसी प्रकार से जैसे उष्णता आग का धर्म है , अतः बिना अलंकारों के कोई रचना काव्य हो ही नहीं सकती । मम्मट रसवादी आचार्य थे अतः वे काव्य में अलंकारों की अपेक्षा गुण और रस पर विशेष बल देते हुए दिखाई पड़ते हैं ।

आचार्य विश्वनाथ ( 14 वीं शती )

साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट के काव्य लक्षण का तर्क पूर्ण खण्डन किया है । उन्होंने काव्य की निम्न परिभाषा प्रस्तुत की है । ' वाक्य रसात्मकं काव्यम् '

अर्थात " रस से पूर्ण वाक्य ही काव्य है । " इस परिभाषा से स्पष्ट है कि आचार्य विश्वनाथ ने रस को ही काव्य का प्रमुख तत्व माना है ।

पण्डितराज जगन्नाथ ( 17 वीं शती )

पण्डितराज जगन्नाथ ने अपने ग्रन्थ रस गंगाधर में काव्य लक्षण को निम्न शब्दों में व्यक्त किया : “ रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम् '

अर्थात् रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द ही काव्य है । इस परिभाषा में रमणीय शब्द अस्पष्ट है ।

हिन्दी आचार्यों के मत

हिन्दी में काव्यशास्त्रीय चिन्तन का प्रारम्भ रीतिकाल से होता है रीतिग्रन्थों में काव्य के स्वरूप पर बहुत प्रकाश डाला गया है , किन्तु इनमें मौलिकता के दर्शन प्रायः नहीं होते संस्कृत - ग्रन्थों की कारिकाओं को ही छन्दबद्ध कर दिया गया है मम्मट इस काल के विशेष उपजीव्य रहे हैं

रीतिकाल के प्रारम्भिक आचार्य - कवि चिन्तामणि का काव्य - लक्षण इस प्रकार से है

" सगुन अलंकारन सहित , दोषरहित जो होइ
शब्द अर्थ वारी कवित , विबुध कहत सब कोइ ।।

मम्मट से इनके लक्षण में इतना ही अन्तर है कि यहाँ अलंकारों की स्थिति वैकल्पिक होकर अनिवार्य हो गई है

कुलपति मिश्र ने अपने लक्षण में पूर्णतः मम्मट को ही आधार बनाया है उनका लक्षण इस प्रकार

" दोषरहित अरु गुनसहित , कछुक अल्प अलंकार
सबद अरथ सो कवित है , ताको करो विचार ।। "

आधुनिक युग के विचारों में कुछ की काव्य - विषयक धारणाएँ तो पाश्चात्य विचारधारा पर आधारित है , किन्तु कुछ ने मौलिक विवेचन भी किया है इन विचारकों ने काव्य - रूपक का क्रमबद्ध विवेचन बहुत कम किया है उनके ये काव्य विषयक उल्लेख प्रायः अन्य प्रसंगों से ही मिलते हैं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के यत्र - तत्र विकीर्ण काव्य - विषयक उल्लेख इस प्रकार है

' ज्ञानराशि के संचित कोश का नाम ही साहित्य है " कविता प्रभावशाली रचना है.जो पाठक या श्रोता के मन पर आनन्दमय प्रभाव डालती है मनोभाव शब्दों का रूप धारण करते है वही कविता है , चाहे वह पद्यात्मक हो , चाहे गद्यात्मका " अन्तःकरण की प्रवृतियों के चित्र का नाम कविता है "

उक्त पंक्तियों से इनकी काव्य - विषयक मान्यताओं का पता चलता है मनोभाव या अन्तःकरण की वृत्तियों का चित्र जब शब्दाकार ग्रहण करता है और इतना प्रभावी हो कि पाठक के हृदय पर आनन्दमय प्रभाव डाल सके तो उसे काव्य कहते हैं

आचार्य रामचन्द्रशुक्ल रसवादी आचार्य हैं वे काव्य में भाव - सम्पदा पर विशेष बल देते हैं साधारणीकरण द्वारा लोकोत्तर भावभूमि पर पहुंचाकर मानवीय रागों का परिष्कार ही काव्य का उद्देश्य है नका मत इस प्रकार है

" जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है , उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है हदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मानव की वाणी जो शब्द - विधान करती आई है , उसे कविता कहते हैं इस साधना को हम भावयोग कहते है और कर्मयोग और ज्ञानयोग के समकक्ष मानते हैं "

आचार्य शुक्ल की भाषा कुछ जटिल होने से परिभाषा रहस्यमय बन गई है उनका तात्पर्य यही है कि शब्द - रचना मानव - हदय को जिस पर चेतना से ऊपर उठाकर विशुद्ध भावना के धरातल पर प्रतिष्ठित कर सके उसे लोकोत्तर आनन्द दे सके , वही काव्य है यहाँ शुक्ल जी रस - सिद्धान्त के साधारणीकरण को ही , शब्दान्तर से काव्यनिकष स्वीकार रहे है

बाबू श्याम सुन्दरदास ने शास्त्र और काव्य में भेद करते हुए कलात्मकता को भेदक तत्व माना है उनका कथन है

किसी पुस्तक को हम काव्य या साहित्य की उपाधि तभी दे सकते हैं जब जो कुछ उसमें लिखा है , वह कला के उद्देश्यों की पूर्ति करता हो - यही एकमात्र उचित कसौटी है "

तात्पर्य यह है कि जिस कृति को पढ़ने से पाठक को कलात्मक आनन्द की प्राप्ति हो , उसे काव्य कहा जा सकता है

कविवर जयशंकरप्रसाद ने काव्य को आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति माना है उनका विचार है

" कविता आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है , जिसका सम्बन्ध विश्लेषण , विकल्प या विज्ञान नहीं है वह एक श्रेयमयी प्रेम रचना है काव्य या साहित्य आत्मा की अनुभूतियों का नित्य नया रहस्य खोलने में प्रयत्नशील है

इस परिभाषा में पाठक की अपेक्षा कवि को प्रमुख स्थान दिया गया है इसमें शिवं तथा सुन्दरम् का भी अच्छा समावेश दृष्टिगत होता है और क्रोचे की सहजानुभूति से भी इसका पर्याप्त साम्य है

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द्र ने काव्य को मानव हित में सहायक स्वीकार किया है उसकी उपादेयता मार्गदर्शन में सक्षम होने में ही है उनका अभिमत इस प्रकार है

" साहित्य की बहुत - सी परिभाषाएँ की गई हैं पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा ' जीवन की आलोचना ' है , चाहे वह निबन्ध के रूप में हो , चाहे कहानी या काव्य के उसे हमारे जीवन और व्याख्या करनी चाहिए "

मुंशी जी की परिभाषा पाश्चात्य उपयोगितावाद से प्रभावित जान पड़ती है वे कला को कला के निमित्त स्वीकारकर मानव - जीवन के निमित्त स्वीकार करते हैं

महादेवी जी ने काव्य में प्रेषणीयता तथा भावोद्बोधन - क्षमता को प्रमुखता दी है काव्य के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा है

" कविता कवि - विशेष की भावनाओं का चित्रण है और यह चित्रण इतना ठीक है कि उससे वैसी ही भावनाएँ किसी दूसरे के हृदय में अभिभूत होती है "

महादेवी जी का उक्त वक्तव्य रसात्मक काव्य या गीतिकाव्य पर विशेषतः लागू होता है , अन्य विधाओं पर नहीं

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने काव्य के स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है

" काव्य तो प्रकृत मानव अनुभूतियों का नैसर्गिक कल्पना के सहारे ऐसा सौन्दर्यमय चित्रण है , जो मानवमात्र में स्वभावतः अनुरूप भावोच्छ्वास और सौंदर्य संवेदन उत्पन्न करता है इसी सौन्दर्य - संवेदन को पारिभाषिक शब्दावली में रस कहते हैं , यद्यपि यह स्वीकार करना होगा कि रस का हमारे यहाँ दुरुपयोग भी कम नहीं किया गया '

स्पष्ट है , वाजपेयी जी काव्य में अनुभूति और कल्पना का ऐसा मणिकांचन योग स्वीकारते हैं जो पाठक के हृदय में अनुरूप भावोबोध कर सकें इस वक्तव्य में जहाँ एक ओर काव्य निर्माण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है , वहीं दूसरी ओर भावात्मक प्रभाव को महत्त्व दिया गया है अन्तिम वाक्य में कोरे रसवाद की कटु आलोचना की गई है

पाश्चात्य विचारकों के मत

काव्य या साहित्य के स्वरूप के विषय में पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक प्रकार के विचार प्रकट किए हैं

प्लेटो ने काव्य को अनावश्यक तथा अनुपादेय मानते हुए भी उसके प्रभाव को स्वीकार किया था

अरस्तु ने काव्य को एक कला माना है अनुकरण कला का मौलिक तत्त्व है काव्य भी कला का ही एक रूप है काव्य में यह अनुकरण शब्दों के माध्यम से होता है और मानव मन पर अमिट प्रभाव डालता है " It is an initiation by means of words . "

कालरिज ने काव्य का उद्देश्य मानव को भावजन्य आहलाद प्रदान करना ही स्वीकारा है वे काव्य में भावनाओं को सुन्दर रूप से सजाने के पक्ष में हैं तथा अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों पर समान बल देते हैं उन्होंने काव्य की अनुभूतिपरक तथा अभिव्यक्तिपरक दोनों प्रकार की परिभाषाएँ की

Poetry is the excitement of emotion for purpose of Immedinte pleasure through the medium of beauty . " " .

" Poerty is the best words in the best order , "

प्रसिद्ध कवि वर्डसवर्थ का विचार है कि कविता प्रबल अनुभूतियों का सहज उदेक है , जिसका स्रोत शान्ति के समय में स्मत मनोवेगों से फुटता है " Poerty is the spontaneous overflow of powerful fellings it takes its origin from emotions recollected in tranquillity . " "

मैथ्यू आर्नल्ड के काव्य को सर्वाधिक सुखद तथा पूर्ण वक्तव्य माना है , जो मानवीय भाषा का चरमोत्कर्ष है उनकी काव्य - विषयक मान्यता इस प्रकार है " Poerty is a criticism of life under the conditions fixed for such criticism by the laws of poetic truth and poetic beauty . अर्थात् काव्य - जीवन की आलोचना है यह आलोचना काव्यगत सत्य और काव्यगत सौन्दर्य के नियमों से परिचालित होती है

जानसन महोदय काव्य को उस कला के रूप में स्वीकार करते हैं , जो कल्पना की सहायता से यक्ति द्वारा सत्य को आनन्द से समन्वित करती है उनका वक्तव्य इस प्रकार है " Poetry is the art of uniting pleasure with truth by colling imagination to the help of reason . "

डॉक्टर जानसन ने भाव कल्पना , बुद्धि और आनन्द सभी का उचित समावेश किया है

कविता की एक महत्त्वपूर्ण परिभाषा चैम्बर्स कोश में दी गई है इस परिभाषा में काव्य का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है " Poetry is the art of expressing words , thoughts , which are the creations imagination and feeling . " " अर्थात् कविता कल्पना और अनुभूति से उत्पन्न विचारों को मधुर शब्दों में अभिव्यक्त करने की कला है

इस परिभाषा में काव्य के समस्त तथ्यों का उल्लेख हुआ है अभिव्यंजना कौशल काव्य का प्रमुख तत्व है , जो विचार व्यक्त किए जाते हैं , वे भी कल्पना और अनुभूति के संयोग से विस्मृ होते हैं इस परिभाषा में दोष केवल यह है कि शैली सदैव मधुर ही मानी गई है वैदर्भी श्रेष्ठ रीति है , अतः परिभाषा में कलात्मकता का कथन अनावश्यक है

सारांश

काव्य की अनेक परिभाषाओं और लक्षणों को ऐतिहासिक कालक्रम में विश्लेषित और व्याख्यायित करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इनमें से एक भी परिभाषा लक्षण ऐसा नहीं है जिसे काव्य पर पूरी तरह से घटित किया जा सके अर्थात् एक भी लक्षण ऐसा नहीं है जो काव्य के समग्र स्वरूप को अपने दायरे में बांधकर उसे स्पष्ट कर सके बात यह है कि काव्य के लक्षणों का सीधा - सीधा सम्बन्ध है - लक्षणकार आचार्यों की अपनी - अपनी दृष्टि से जो लक्षणकार अलंकार के विशेष पक्षपाती है वे शब्दार्थ यानि काव्य को अलंकार की सीमा में बांधकर देखने की आग्रही है भामह और दण्डी इसी प्रकार के लक्षणकार है आचार्य कुन्तक वक्रोक्ति के विशेष प्रेमी है , इसलिए वे काव्य को वक्रता की तराजू पर तौलकर देखते हैं आचार्य मम्मट , विश्वनाथ आदि रस और ध्वनि के आधार पर काव्य का स्वरूप निर्धारित करते हैं

हिन्दी विचारक ने प्रायः संस्कृत आचार्यों की ही उक्तियों को अनुदित मात्र किया है । कुछ ने मौलिक विचार रखें हैं परन्तु वे सन्दर्भ मात्र हैं पूर्ण एकीकृत नही हैं । पाश्चात्य आलोचकों ने भी उल्लेखनीय कार्य किया है लेकिन काव्य लक्षणों के पूर्ण प्रकटीकरण में वे भी सफल नही हो पाए हैं ।

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