साहित्य का इतिहास दर्शन
History of Literature Philosophy
इतिहास के चार लक्षण यूनानी विद्वान ' हिरोडोटस ' ( 456-545 ई.पू. ) ने निर्धारित किए हैं
इतिहास वैज्ञानिक विधा है , अतः इसकी पद्धति आलोचनात्मक होती है ।
यह मानविकी के अन्तर्गत आता है , अतः मानव जाति से सम्बन्धित है ।
इसके तथ्य , निष्कर्ष प्रमाण पर आधारित होते हैं ।
यह अतीत के आलोक में भविष्य पर प्रकाश डालता है ।
पाश्चात्य इतिहास दर्शन विकासवादी दृष्टिकोण को मान्यता देता है । डार्विन का विकासवाद प्राणिशास्त्र पर, मार्क्स का विकासवाद अर्थशास्त्र पर, स्पेंसर का विकासवाद भौतिकशास्त्र पर लागू होता है । भले ही कुछ लोग विकासवादी सिद्धान्त के विरोधी रहे हैं , किन्तु सत्य यह है कि विकासवाद के बिना इतिहास को नहीं समझा जा सकता ।
साहित्य के इतिहास में हम साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में करते हैं । साहित्य के इतिहास को समझने के लिए तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन आवश्यक है , साथ ही इनके रचयिताओं की परिस्थितियों एवं मनोभावनाओं को जानना भी आवश्यक है । आचार्य शुक्ल साहित्य के इतिहास को जनता की चित्तवृत्ति का इतिहास मानते हैं । जनता की चित्तवृत्ति तत्कालीन परिस्थितियों से परिवर्तित होती है , अतः साहित्य का स्वरूप भी इन परिस्थितियों के अनुरूप बदलता है । शुक्ल जी की यह भी धारणा है कि साहित्य का इतिहास कवियों का वृत्त संग्रह न होकर साहित्य की प्रवृत्ति का इतिहास होता है । विभिन्न कालखण्डों की सामाजिक , राजनीतिक , धार्मिक , आर्थिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप साहित्य में जो प्रवृत्तियां प्रवर्तित होती हैं , उन्हीं के संदर्भ में कवियों की रचनाओं का अध्ययन किया जाना चाहिए । इतिहास के प्रति भारतीय दृष्टिकोण भले ही आदर्श प्रेरित रहा हो , किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने यथार्थ को महत्व देते हुए इतिहास को गवेषणा , खोज , अनुसन्धान का स्वरूप प्रदान करते हुए इसमें वैज्ञानिकता का समावेश किया है ।
इटेलियन विद्वान विको ( 1668-1744 ई . ) यह स्वीकार करता है कि " इतिहास का सम्बन्ध न केवल अतीत से होता है , न वर्तमान से इतिहास का निर्माता स्वयं मनुष्य है और मनुष्य चाहे जिस युग का हो उसकी मूलभूत प्रवृत्तियां एकसी रहती हैं । इतिहासकार को अतिरंजना एवं अतिशयोक्ति से बचना चाहिए । वस्तुतः इतिहासकार अतीत को वर्तमान से जोड़ने का प्रयास करता है ।
' कालिंगवुड ' के अनुसार , “ इतिहास दर्शन का सम्बन्ध न तो अपने आप में अतीत से होता है न ही अतीत के बारे में इतिहासकार के विचारों से बल्कि उसका सम्बन्ध इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध से होता है ।
" हीगल ( 1770-1831 ई . ) ने स्पष्ट किया कि “ इतिहास केवल घटनाओं का अन्वेषण एवं संकलन मात्र नहीं है , अपितु उसके भीतर कार्य कारण श्रृंखला विद्यमान है । " इतिहासकार अपने वर्तमान का अन्तः सम्बन्ध अतीत से जोड़ने का प्रयास करता है । इतिहासकार वर्तमान के झरोखे से अतीत को देखने का प्रयास करता है ।
ई . एच . कार के अनुसार , " अतीत की घटनाओं को क्रमबद्धता देकर कारण और प्रभाव के क्रम से रखना ही इतिहास है । कारण - कार्य श्रृंखला में गूँथकर ही तथ्य ऐतिहासिक बनते हैं । जब किसी तथ्य की अन्य तथ्यों के साथ संगति खोजी जाती है , उसके सही सन्दर्भ का पता चल जाता है तो वह ऐतिहासिक तथ्य बन जाता है । इतिहासकार की प्रतिभा बिखरे तथ्यों में निहित संगति के सूत्र खोज लेती है । "
फ्रेंच विद्वान तेन ( Taine ) ने यह प्रतिपादित किया कि साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों के मूल में मुख्यतः तीन प्रकार के तत्व सक्रिय रहते हैं- जाति , वातावरण और क्षण विशेष | उन्होंने यह स्पष्ट किया कि साहित्य के इतिहास को समझने के लिए उससे सम्बन्धित जातीय परम्पराओं , राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण एवं सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन विश्लेषण परमावश्यक है ।
' हडसन ' ने इस मत की आलोचना यह कहकर की है कि इसमें कृतिकार के व्यक्तित्व एवं उसकी प्रतिभा की उपेक्षा की गई है । जर्मन चिन्तक भी इस तथ्य को मान्यता देते हैं कि साहित्य के इतिहास की व्याख्या तद्युगीन चेतना के आधार पर की जानी चाहिए । मार्क्सवादी आलोचक द्वन्द्वात्मक भौतिक विकासवाद , वर्ग संघर्ष और आर्थिक परिस्थितियों को सभी साहित्यिक प्रवृत्तियों के मूल में स्वीकार करते हुए अपने एकांकी दृष्टिकोण का परिचय देते हैं । आई . ए . रिचर्डस् जैसे विद्वानों ने काव्य के शैली पक्ष की व्याख्या मनोविज्ञान एवं अर्थविज्ञान के आधार पर की है ।
कारलाइल अनुसार , " किसी राष्ट्र के काव्य का इतिहास वहां के धर्म , राजनीति और विज्ञान के इतिहास का सार होता है । काव्य के इतिहास में लेखक को राष्ट्र के उच्चतम लक्ष्य , उसकी क्रमागत दिशा और विकास को देखना अत्यन्त आवश्यक है । इससे राष्ट्र का निर्माण होता है । "
साहित्य के इतिहास लेखन में युगीन परिवेश की महत्ता पर भारतीय विचारकों ने पर्याप्त बल दिया है । रामचंद्र शुक्ल ने साहित्येतिहास की परिभाषा देते हुए 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में लिखा है, "जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अतः कारणस्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित् दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है।"
डॉ . गणपति चन्द्र गुप्त के अनुसार , साहित्य के क्षेत्र में सर्जन शक्ति साहित्यकार की नैसर्गिक प्रतिभा , सांस्कृतिक परम्पराओं , युगीन चेतना और क्रिया प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर गतिशीलता प्राप्त करती है ।
'साहित्य और इतिहास दृष्टि' में मैनेजर पांडेय साहित्य और इतिहास के अंतःसंबंधों पर लिखते हैं, "साहित्यिक रचनाएं इतिहास के भीतर होती हैं और इतिहास का निर्माण भी करती हैं। रचना का अस्तित्व इतिहास के भीतर होता है, इतिहास के बाहर नहीं। कृतियों की उत्पत्ति में इतिहास की सक्रिय भूमिका होती है और पाठकों द्वारा उनके अनुभव तथा मूल्यांकन का इतिहास उनके जीवन का इतिहास होता है। कलाकृतियाँ अपने सामाजिक संदर्भ की उपज होती हैं, लेकिन महत्वपूर्ण कलाकृतियां अपने संदर्भ से परे भी सार्थक सिद्ध होती हैं। इसलिए किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए उससे संबंधित जातीय परंपराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक स्थितियों और परस्थितियों को समझना आवश्यक है।
प्रमुख दर्शन
मार्क्सवादी या यथार्थवादी दर्शन
मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अंतर्गत माना जाता है कि साहित्य किसी समाज की उत्पादन प्रणाली का ऊपरी ढाँचा है जिसकी व्याख्या बुनियादी ढाँचे अर्थात उत्पादन प्रणाली के माध्यम से ही की जा सकती है। इतिहास दर्शन में आम तौर पर समाजशास्त्रीय दृष्टि को मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित माना जाता है। मार्क्स ने समाज रचना और उसकी विकास प्रक्रिया में द्वंद्व की भूमिका को गहराई से विवेचित किया है। सामाजिक सृष्टि होने के नाते साहित्य पर इस सामाजिक द्वंद्व का असर पड़ना स्वाभाविक है। मार्क्सवाद साहित्य के वर्गीय स्वरूप, प्रयोजन और विचारधारात्मक रूप को पहचानते हुए साहित्य के इतिहास को समाज के वर्ग-संघर्ष के इतिहास से जोड़कर देखता है। हालांकि समाजशास्त्रीय दर्शन को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दायरे से सीमित करना उचित नहीं है। समाजशास्त्रीय दर्शन समाज और साहित्य के विकासशील संबंध को स्थापित करता है जिसे केवल भौतिकवादी विकास के दायरे में सीमित नहीं किया जा सकता है। मार्क्सवादी दर्शन इतिहासकार की अंतर-दृष्टि, विवेक और उसके इतिहासबोध को महत्व नहीं देती है जबकि इसके बिना इतिहास लेखन के मूर्त होने की कल्पना नहीं की जा सकती है। साहित्य के इतिहास में साहित्य और समाज का संबंध, परंपरा और रचनाकार के संबंध, इतिहासकार की अंतर्दृष्टि, विवेक और उसके इतिहासबोध की सम्यक जानकारी आवश्यक है।
समाजशास्त्रीय दर्शन
समाजशास्त्रीय दर्शन की मूलभूत मान्यता यह है कि साहित्य एक सामाजिक निर्मिति है। इतिहासकार का कर्तव्य साहित्य में अंतर्निहित सामाजिक या लोक तत्वों का उद्घाटन कर उसकी मूल प्रेरणा का विश्लेषण एवं जनहित की कसौटी पर उसका मूल्यांकन करना है। रामचंद्र शुक्ल 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में साहित्यिक रचनाओं में निहित लोकमंगल या लोकहित का उद्घाटन करते हैं और उसकी मूल प्रेरणा का भी मूल्यांकन करते हैं। उनके इतिहास में 'लोकमंगल की चेतना' आदि से अंत तक विद्यमान है।
विधेयवादी या प्रत्यक्षवादी दर्शन
आगस्त कॉम्त के विधेयवादी दर्शन का इतिहास लेखन में पहला प्रयोग इप्पोलाइत अडोल्फ तेन ने किया और उनके माध्यम से हिंदी साहित्येतिहास लेखन में यह दृष्टिकोण प्रविष्ट हुआ। इस दृष्टि की मूल मान्यता है कि 'साहित्य समाज का दर्पण' होता है। इसके अनुसार साहित्य का समाज पर प्रभाव पड़ता है। किसी भी साहित्य के इतिहास के लेखन के लिए उससे संबंधित जातीय परंपराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण और परिस्थितियों का विवेचन और विश्लेषण किया जाता है। विधेयवादी इतिहासकार साहित्य संबंधी तथ्य एकत्र करने के अलावा तत्कालीन सामाजिक जीवन का अध्ययन करता है, साथ ही समाज और साहित्य के बीच कार्य-कारण संबंध स्थापित करता है। वह वैज्ञानिकता के नाम पर प्राकृतिक विज्ञान की प्रणाली को साहित्य के इतिहास लेखन में लागू करता है। रामचंद्र शुक्ल के 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में कुछ सीमा तक इसी दृष्टि से इतिहास लेखन हुआ है। हालांकि इस दृष्टिकोण से इतिहास लेखन में साहित्यिक परंपरा का समुचित मूल्यांकन संभव नहीं हो पाता है। साहित्य निर्माण में परंपरा का भी योगदान होता है। इस दृष्टि की दूसरी सीमा यह है कि रचनाकार के निजी व्यक्तित्व और क्रियाशीलता की उपेक्षा होती है। लेखक सामाजिक यथार्थ को रचना में प्रतिबिंबित ही नहीं करता है बल्कि उसकी पुनर्रचना भी करता है। रामचंद्र शुक्ल द्वारा 'कबीर' का मूल्यांकन इसी सीमा के चलते समुचित तौर पर नहीं हो पाया है। इस दृष्टिकोण की तीसरी सीमा यह है कि रचना के शिल्प के विकास का विवेचन नहीं हो पाता है।
वैज्ञानिक दर्शन
इसे इतिहासकार की निरपेक्ष दृष्टि भी कहा जाता है। इसमें इतिहासकार तथ्यों की वैज्ञानिक और क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुति और व्याख्या करता है। तार्किकता के गुण के कारण कुछ विद्वानों ने मार्क्सवादी दर्शन को भी वैज्ञानिक दर्शन माना है। हालांकि मार्क्सवादी दर्शन निरपेक्ष दृष्टि नहीं होती है। गणपति चंद्र गुप्त का 'हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास' इसका उदाहरण माना जा सकता है।
अन्य दर्शन
दलित और स्त्री दृष्टिकोण के आगमन के पश्चात इतिहास लेखन में भी परिवर्तन आया। सुमन राजे ने 'हिंदी साहित्य का आधा इतिहास' लिखकर बताया कि अब तक का इतिहास लेखन पुरुषवादी दृष्टिकोण से लिखा गया है। आदिकाल के अंतर्गत थेरीगाथाओं को स्थान देकर उन्होंने अपने इतिहासबोध में स्त्री दृष्टिकोण का समावेश किया। इसी दृष्टिकोण के कारण उन्होंने रीतिकाल को अपने इतिहासबोध का हिस्सा ही नहीं बनाया। दलित दृष्टिकोण के अंतर्गत धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिषराय तथा जयप्रकाश कर्दम इत्यादि लेखकों ने भी इतिहास के कुछ प्रसंगों को उठाया है। इनका तर्क है दलित ही दलितों की समस्या को समझ सकता है क्योंकि 'स्वयं वेदना' और 'संवेदना' में अंतराल समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी दृष्टिकोण से इन्होंने प्रेमचंद की रचनाओं जैसे 'कफन' और 'रंगभूमि' पर प्रश्नचिह्न भी लगाए हैं।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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