ज्ञान - विरह कौ अंग

साखियां
ज्ञान - विरह कौ अंग
Gyaan Virah Kau Ang
Gyaan Virah Kau Ang

दीपक पावक आँणियाँ , तेल भी आँण्या संग | तौन्यूँ मिली करि जोइया , उड़ि उड़ि पड़ै पतंग ।।1।।

भावार्थ : कबीर दास जी कहते हैं जैसे दीपक में तेल और आग मिल जाते हैं तो प्रकाश होने लगता है । उसी प्रकार जीवात्मा रूपी दीपक , ज्ञान रूपी अग्नि और स्नेह रूपी तेल को मिलाकर जो ज्योति प्रज्ज्वल्लित होगी , उसमें सांसारिकता रूपी वासना का पतंगा जलकर नष्ट हो जायेगा । 

मारया हे जे मरेगा , विन सर थोथी भालि । पड्या पुकारे ब्रिछ तरि , आजि मरै कै काल्हि ।।2।।

भावार्थ : जिसे परमात्मा ने मारा है वह बिना तीर और भाले के स्वत : ही मर जाता है । अर्थात् परमात्मा के प्रेम रूपी बाण के लगते ही वह संसार रूपी वृक्ष के नीचे कराहने लगता है । इस पीड़ा में वह जल्दी से जल्दी जीवन मुक्त होने की कामना करता है । 

हिरदा भीतरि दौं बलै धूवाँ प्रगट न होइ । जाके लागा सौ लखै के जिंहि लाई सोइ ।।3।।

भावार्थ : सामान्य अग्नि से धुँआ प्रकट होता है लेकिन हृदय में विरह की जो अग्नि जल रही है , उससे धुँआ भी प्रकट नहीं होता । इसे दो ही जान सकते हैं या तो जिसके हृदय में आग लगी हो या जिसने आग लगाई हो । 

झल ऊठी झोली , खपरा फूटिम फूटि जोगी था सो रमि गया , आसणि रही विभूति ।।4।।

भावार्थ : साधक की तपस्या के चरम का वर्णन करते हुये कबीर कहते हैं कि ज्ञान अग्नि प्रज्वलित होने से शरीर रूपी झोली जल गई और अज्ञान रूपी खपरा टूट - फूट गया । इस प्रकार आत्मा की परम ब्रह्म से मुलाकात हुई और आसन पर केवल राख रह गई । 

अगिन जु लागी नीर मैं कूंद जलियाँ झारि । उत्तर दक्षिण के पंडिता , रहे विचारि विचारि ।।5।।

भावार्थ : माया रूपी नीर में ज्ञान रूपी अग्नि के प्रदीप्त होने से पाप रूपी कीचड़ जल कर समाप्त हो गया । इस अद्भूत कृत्य को देखकर उत्तर से दक्षिण के तमाम ज्ञानी विचार करते रह गये लेकिन यह रहस्य नहीं समझ पाये । 

दौं लागि साइर जल्या , पंधी बैठे आई । दाधी देह न पालव , सतगुर गया लगाय ।।6।।

भावार्थ: ज्ञान रूपी अग्नि के उदय से वासना रूपी सागर में आग लग गई जिसे देखने के लिये वैराग्य रूपी पक्षी आ गये । साधक स्वीकारता है कि इस ज्ञान अग्नि को गुरु ने प्रकट किया है इसलिए अब जले हुये शरीर को पुनः पल्लवित नहीं होने दूंगा । भाव यह है कि आत्मा को बार - बार शरीर धारण से मुक्त करा लूंगा । 

गुर दाधा चेला जल्या , विरहा लागी आगि । तिणका वपुड़ा ऊबऱ्या , गलि पूरे कै लागि ।।7।।

भावार्थ : गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान अग्नि द्वारा शिष्य का अज्ञान जल गया जिससे उसके अन्तर्मन में संसार से वैराग्य रूपी विरह अग्नि जागृत हो गई । शिष्य की तिनके के समान आत्मा ब्रह्म के साथ लगकर पूर्णत : ब्रह्माकार हो गई । 

अहेड़ी दौं लाइ था , मृग पुकारे रोइ जा बन में क़ीला करी , दाझत है बन सोइ ।।8।।

भावार्थ : सांसारिक वासना के शिकारी रूपी गुरु ने इस वासनायुक्त संसार रूपी वन में ज्ञानी रूपी अग्नि लगा दी है । इससे अज्ञानी जीव रूपी मृग हाहाकर कर रहे हैं कि जिस वन में हमने सांसारिक सुख भोगा वह अब जलकर नष्ट हो रहा है । भाव यह है कि गुरु के ज्ञान से विषय वासना रूपी संसार जल कर नष्ट हो रहा है और शिष्य की और आत्मा का कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो रहा है ।

पाणीं मांहैं प्रजली , भई अप्रबल आगि । बहती सलिता रहि गई , मंछ रहे जल त्यागि ।।9।।

भावार्थ : संसार रूपी जल में ज्ञान रूपी अग्नि इतनी तीव्रता से फैल गई कि उससे सारे माया बंधन नष्ट - भ्रष्ट हो गये । माया रूपी सरिता का प्रभाव रुक जाने से मछलियों ने जल त्याग करके मुक्ति प्राप्त की ।

समंदर लागी आगि , नदियाँ जलि कोइला भई । देखि कबीरा जागि , मंछी रुषाँ चढ़ि गई ।।10।।

भावार्थ : संसार रूपी समुद्र में ज्ञान रूपी अग्नि लग गई है , जिससे वासना रूपी नदियाँ जलकर कोयले के समान हो गई हैं । कितनी ही आत्मा रूपी मछलियों ने इस संसार को त्यागकर ब्रह्म रूपी वृक्ष पर चढ़कर मुक्ति प्राप्त की । इस प्रकार हे आत्मा ! सांसारिक विषयों को त्यागकर ही तू ब्रह्म को प्राप्त कर सकती है । 

विशेष : इस उलटबासी में विरोधाभास अलंकार है ।

विरोधाभास अलंकार

वास्तविका विरोध न होते हुए भी जहाँ विरोध की प्रतीति हो वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है । विरोधाभास शब्द का अर्थ है - विरोध का आभास देने वाला ।

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