मीराँबाई की पदावली
पद 11-20
Mirabai Ki Padavali
सं. परशुराम चतुर्वेदी
- म्हा मोहन रो रूप लुभाणी ।
- सुन्दर बदना कमल दल लोचन , बाँकाँ चितवन नेणाँ समाणी ।
- जमना किनारे कान्हा धेनु चरावाँ , बंशी बजावाँ मीट्ठाँ वाणी ।
- तन मन धन गिरधर पर वाराँ , चरण कँवल बिलमाणी ॥11 ॥
भावार्थ : मीरां कहती है कि मैं अपने आराध्य प्रियतम श्रीकृष्ण के रूप पर मोहित हो गई हूँ । उन प्रियतम श्रीकृष्ण का वदन ( मुख ) सुन्दर है , कमल पत्र के समान उनके नेत्र हैं तथा उनकी दृष्टि बांकी है जो कि मेरे नेत्रों में समा रही है । वह प्रियतम कृष्ण युमना नदी के किनारे गायें चराते रहते हैं और मधुर स्वर लहरी में बंशी बजाते रहते हैं । मीरां कहती है कि मैं अपना शरीर , मन और धन ( अपना सर्वस्व ) गिरधर कृष्ण पर न्योछावर करती हूँ तथा उनके चरण - कमलों में रम गई हूँ ।
- साँवरा णन्द णंदेन , दीठ पड्याँ माई ।
- डार्यों सब लोकलाज सुध बुध बिसराई ।
- मोर चन्द्रमा किरीट मुगुट छब सोहाई ।
- केसर री तिलक भाल , लोणण सुखदाई ।
- कुण्डल झलकाँ कपोल अलकाँ लहराई ।
- मीणाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई ।
- नटवर प्रभू भेष धर्मों रूप जग लो भाई ।
- गिरधर प्रभू अंग अंग मीराँ बल जाई ।।12 ।।
भावार्थ : मीरां कहती है कि अरी सखी , नंद जी के पुत्र साँवले श्रीकृष्ण जब से मुझे दिखाई दिये ( मेरी दृष्टि में पड़े ) तब से मैं सब लोक - लाज का त्याग कर अपनी सुध - बुध खो बैठी हूँ । भाव यह है कि मैं उनकी प्रेम दीवानी हो गई हूँ और लोक मर्यादा को भूलकर उन्मत्त हो गई हूँ । उन प्रियतम श्रीकृष्ण ने मोरपंखों के रंग बिरंगे चन्द्रकों वाला सुन्दर चमकीला मुकुट सिर पर धारण कर रखा है , जो कि अत्यधिक शोभायमान हो रहा है । ललाट पर उन्होंने केसर का तिलक लगा रखा है जो कि देखने वालों की आँखों को बहुत ही अच्छा लगता है । उनके कानों में कुण्डल झलक रहे हैं और घुंघराले बाल लहरा रहे हैं । उनकी शोभा ऐसी लग रही है कि मानो मछलियाँ तालाब को छोड़कर मगर से मिलने के लिए दौड़ रही हों । रसिक शिरोमणि प्रभु कृष्ण ने ऐसा वेश धारण कर रखा है , जिसे देखकर सभी लोग ललचा जाते हैं । मीरां कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर कृष्ण मेरे अंग - अंग में समाये हुए हैं और मैं उन पर न्योछावर होना चाहती हूँ ।
राग नीलाम्बरी
- नेणोँ लोभाँ अटकाँ शक्यौँ णा फिर आया ।।
- रूम - रूम नखसिख लख्यौं , ललक ललक अकुलाय ।
- म्याँ ठाढ़ी घर आपणे मोहन निकल्या आय ।
- बदन चन्द परगासतौँ , मन्द मन्द मुसकाय ।
- सकल कुटुम्बाँ बरजताँ बोल्या बोल बनाय ।
- नेणां चंचल अटक ना मान्या , परहथ गयाँ बिकाय ।
- भलो कह्याँ काँई कह्याँ बुरो री सब लया सीस चढ़ाय ।
- मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बिना पल रह्याँ ना जाय ।।13 ।।
भावार्थ : मीरां भक्ति भाव से कहती हैं कि ये मेरे रूप- माधुरी के लोभी नेत्र एक बार प्रियतम कृष्ण की छवि पर अटक गए , तो फिर वापिस नही आ सके । मेरा रोम - रोम उनके नख - शिख की शोभा देखकर बार - बार देखने के लिए आकुल व्याकुल बना रहता है । एक बार मेरे घर में प्रियतम मोहन अपने आप आ गए , उस समय वे अपने मुख रूपी चन्द्रमा को प्रकाशित करते हुए मंद - मंद मुस्कराने लगे । तब मेरे परिवार के सब लोगों के द्वारा मना करने पर भी वे मधुर वचनों में ( मधुर बातें बनाकर ) मुझसे बोलते रहे । मेरे चंचल नेत्र मेरा कहा नहीं मानते हैं , अब तो ये पराये हाथ ( प्रियतम कृष्ण के हाथ ) उनकी रूप माधुरी के लालच में बिक गए हैं । इस संसार में अच्छी बात कहने पर भी कोई नहीं मानता है , परन्तु बुरी बात को सब लोग सिर पर चढ़ा लेते हैं अर्थात् सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं । मीरां कहती है कि हे चतुर गिरधर प्रियतम ! अब मुझसे आपके बिना एक पल भी नहीं रहा जा सकता ।
राग कामोद
- आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी ।
- चित्त चढ़ी म्हारे माधुरी मूरत , हिवड़ा अणी गड़ी ।
- कब री ठाढ़ी पंथ निहारौँ , अपने भवन खड़ी ।
- अटक्याँ प्राण साँवरो प्यारो , जीवन मूर जड़ी ।
- मीराँ गिरधर हाथ बिकाणी , लोग कह्याँ बिगड़ी ॥14 ॥
भावार्थ : मीरां ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण की मधुर मूरत को अपने हृदय में बसाया है । वे अपनी सखी से कह रही है कि सखी मेरे नेत्रों श्रीकृष्ण की माधुरी झलक के दर्शन की आदत पड़ गई है । मेरे हृदय में श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति स्थापित हो गई है जो हृदय में बहुत गहराई तक चुभ गई है । मैं न जाने कब से अपने आराध्य की प्रतीक्षा में हूँ । मेरे प्राण श्रीकृष्ण में अटके हुए हैं । श्रीकृष्ण के प्रति मेरे इस समर्पण को लोग चाहे भटकना कहें या बिगड़ना , मैं तो श्रीकृष्ण के हाथों में अपना सर्वस्व समर्पित कर चुकी हूँ । इस पद में मीरां का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण उजागर हुआ है ।
- नेणाँ वणज बसवाँ री , म्हारा साँवराँ आवाँ ।
- नेणाँ म्हारौँ साँवरा राज्याँ , डरता पलक ना लावाँ ।
- म्हारा हिरदाँ बस्याँ मुरारी , पलपल दरसण पावाँ ।
- स्याम मिलन सिंगार सजावाँ , सुख री सेज बिछावाँ ।
- मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर , बार - बार बलिजावा । ॥15 ॥
भावार्थ : मीरांबाई ने इस पद में अपनी सखी से कहा है कि मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण को मैं अपने कमल के समान कोमल नेत्र रूपी घर में बसाउँगी । मेरे नेत्रों में मेरे प्रियतम का बास है , इसलिए मैं पलक नहीं झपकती हूँ जिससे कहीं श्रीकृष्ण मेरे दर्शन से दूर नहीं हो जाएँ । भाव यह है कि मीरां अपने प्रियतम को सदैव देखते रहना चाहती है इसलिए वे पलक भी नहीं झपकना चाहती । मीरां कहती है कि श्रीकृष्ण मेरे हृदय में है , इसलिए मैं नित्य उनके दर्शन करती हैं और उनसे मिलन सुख के लिए सदैव शृंगार कर सुख रूपी सेज बिछाती हैं । मीरा आगे कहती है कि चतुर प्रभु श्री कृष्ण ही मेरे प्रियतम हैं । मैं पर उन बार बार न्योछावर होती हूँ ।
राग मुल्मानी
- असा प्रभु जाण न दीजै हो ।
- तन मन धन करि वारणै , हिरदे धरि लीजै हो ।
- आव सखी मुख देखिये , नैणाँ रस पीजै हो ।
- जिह जिह बिधि रीझे हीर , सोई विधि कीजै हो ।
- सन्दर स्याम सुहावणा , मुख देख्याँ जीजै हो ।
भावार्थ : मीरां कहती है कि ऐसे परम मनोहारी भक्त वत्सल प्रभु कृष्ण को मैं जाने नहीं दूँगी । मैं उन्हें तन - मन धन समर्पित करके अपने हृदय में बसा लूँगी । मीरा अपनी सखी से कहती है कि श्रीकृष्ण के आते ही अपने नेत्रों के द्वारा उनके मुख देखकर मैं रूप- माधुरी का पान करूँगी । जिस - जिस तरीके से श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे वह सब उपाय करूंगी । मैं उनके श्याम सलोने रूप के मुख सौंदर्य को देखकर जीवित हूँ । मीरा कहती है कि मीरा के प्रभु अत्यंत सहज हैं , जो सहजता से मुझ पर रीझते हैं । यह मेरा परम सौभाग्य है ।
राग मालको
- म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री ।
- नाच नाच म्हाँ रसिक रिझावाँ , प्रीति पुरातन जाँच्या री ।
- स्याम प्रीत री बाँध घूँघर्यां मोहन म्हारो साँच्यौँ री ।
- लोक लाज कल री मरजादाँ , जग माँ नेक ना राख्याँ री ।
- अनन्त पल छन ना बिसरावा , मारा हरि रँग राच्याँ री ।।17 ।।
भावार्थ : मीरां कहती है कि मैं अपने गिरधर गोपाल के आगे नृत्य करती रही । इस प्रकार नृत्य कर - कर के मैं अपने आराध्य को रिझाती हूँ । मेरी और कृष्ण की प्रीत पुरानी है । भाव यह है कि यह प्रीत जन्म - जन्मान्तर की है । कृष्ण मेरे सच्चे प्रियतम हैं इसलिए अपने कुल और लोक लाज की मर्यादाओं की परवाह न करते हुए मैं पूरी तरह श्रीकृष्ण के रंग में रंग गई हूँ ।
राग झिझ
- म्हारौँ री गिरधर गोपाल दूसरौँ नाँ कोई ।
- दूसराँ नाँ कूयाँ साधाँ सकल लोक खोई ।
- भाया छाँड्याँ , बन्धा छाँड्याँ सगाँ सोई ।
- साधाँ ढिंग बैठ बैठ , लोक लाज खोया ।
- भगत देख्याँ राजी ह्याँ , जगत देख्यौँ रोई ।
- अँसुवाँ जल सींच सींच प्रेम बेल बोई ।
- दधि मथ घृत काढ़ लयाँ डार दया छोई ।
- राणा विष रो प्यालो भेज्याँ पीय मगन होई ।
- मीरा री लगन लग्यौँ होणा हो जो हूयाँ ॥18 ॥
भावार्थ : मीरां ने इस पद में कृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को प्रकट किया है । वे कहती हैं कि इस संसार में मेरे केवल श्रीकृष्ण हैं और कोई दूसरा नहीं हैं । उन्होंने कहा कि मैंने सारा संसार देख लिया है । संसार में सब स्वार्थी हैं । इस बात को जानकर ही मैंने सभी लौकिक बंधन रिश्ते छोड़ दिये हैं । अब मैं सत्संग में बैठकर प्रभु भक्ति में लीन रहती हूँ । इससे मैंने झूठी लोक लाज को छोड़ दिया है । इस जीवन में मुझे भगवान भक्ति से प्रसन्नता होती है लेकिन स्वार्थी संसार द्वारा निंदा की बात सुनकर रोना आता है । मैंने दु : ख और वेदना के आँसुओं से श्रीकृष्ण के प्रति अपनी प्रेम रूपी बेल को सींचा है । जिस प्रकार दही में से छाछ को अलग करके घृत को ग्रहण किया जाता है , उसी प्रकार मैंने संसार में सारतत्व को ग्रहण कर लिया है । इस भक्त रूप में बाधा स्वरूप राणा जी ने जो जहर का प्याला भेजा था , उसे मैंने श्रीकृष्ण के प्रसाद रूप में ग्रहण किया और कृष्ण में मगन हो गई । मीरां कहती है कि मेरी पूरी लग्न श्रीकृष्ण के प्रति है और जो कुछ भी होगा वह उनकी इच्छा से ही होगा ।
राग पटमंजरी
- माई साँवरे रँग राँची ।
- साज सिंगार बाँध पग घूँघर , लोकलाज तज नाँची ।
- गयाँ कुमत लयाँ साधाँ संगम स्याम प्रीत जग साँची ।
- गायाँ गायाँ हरि गुण निसदिन , काल ब्याल री बाँची ।
- स्याम विना जग खारौँ लागाँ , जग री बातोँ काँची ।
- मीराँ सिरि गिरधर नट नागर भगति रसीली जाँची ।।19 ।।
भावार्थ : मीरां ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आस्था एवं समर्पण को व्यक्त किया है । मीरां कहती हैं कि वह पूरी तरह कृष्ण भक्ति में रम चुकी है । इसलिए सारी लोक - लाज की परवाह किये बिना मैं कृष्ण को रिझाने के लिए अपना शृंगार करके घुंघरू बांध के नृत्य करती हूँ । मुझमें सांसारिकता के प्रति लगाव की जो कुमति थी , वो अब समाप्त हो चुकी है । मैंने सत्संग को अपना लिया है , जिससे मैं जान गई हूँ कि संसार में कृष्ण ही सच्चे हैं और उनके प्रति प्रीति सच्ची है । मैंने दिन - रात प्रभु गुण गाकर मृत्यु रूपी दंश से अपना बचाव किया है । मीरां कहती है कि कृष्ण के बिना संसार अप्रिय लगता है और संसार के सारे सुख भी झूठे लगते हैं । मीरां ने श्रीगिरधर गोपाल की रसीली भक्ति को ही उचित माना है ।
राग गुणकली
- मैं तो गिरधर के घर जाऊँ ।
- गिरधर म्याँरों साँचो प्रीतम , देखत रूप लुभाऊँ ।
- रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ , ज्यूँ त्यँ वाहि लुभाऊँ ।
- जो पहिरावै सोई पहिरू , जो दे सोई खाऊँ ।
- मेरी उणरी प्रीत पुराणी , उण विन पल न रहाऊँ ।
- जहँ बैठावे तितही बैठँ , बेचे तो बिक जाऊँ ।
- मीराँ के प्रभु गिरधर नागर , बार - बार बलि जाऊँ ।। 20 ।।
भावार्थ : इस पद में मीरां श्रीकृष्ण के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त कर रही है । वे कहती हैं कि मैं तो रात्रि होते ही अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास चली जाती हूँ और सुबह होते ही लौट आती हूँ । मैं रात - दिन उनके साथ खेलती हूँ और उन्हें रिझाती हूँ । मेरे सर्वस्व श्रीकृष्ण हैं वो मुझे जैसे रखेंगे , जो पहनायेंगे , जो खाने को देंगे मैं वही स्वीकार कर लूँगी , क्योंकि मेरा उनका जन्म - जन्मांतर का संबंध है । मीरां कहती है कृष्ण मुझसे जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूँगी । इस प्रकार वे अपने प्रभु श्रीकृष्ण पर अपने आपको न्योछावर करती है ।
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