साखीसुमिरण कौ अंगSumiran ko ang
कबीर कहता जात
हूँ , सुणता है
सब कोइ । राम कहें
भला होइगा , नहिं
तर भला न होइ ।।1।।भावार्थ : कबीर कहते
हैं कि ये एक महान्
तथ्य है जिसे सब सुनें
कि राम नाम का स्मरण
करने से ही आत्मा का
भला होगा । अन्यथा नहीं
।
कबीर कहै मैं कथि गया , कथि गया ब्रह्म महेश । राम नाँव ततसार है , सब का उपदेस ।।2।।
भावार्थ : कबीर कहते
हैं कि मैंने
सत्य को कहा है जिसे
ब्रह्म और शिव ने भी
कहा है , वह यही है
कि राम नाम ही परम
तत्व है और सभी उपदेशों
का सार है ।
तत तिलक तिहूँ
लोक मैं राम नाँव निज
सार । जब कबीर मस्तक
दिया , सोभा अधिक
अपार ।।3।।
भावार्थ : कबीर ने
राम नाम को ही आत्मतत्व
कहा है । यही तीनों
लोकों का तिलक है ।
जब इस तिलक को सिर
माथे धारण किया
जाता है तो आत्मा की
शोभा और बढ़ जाती है
।
विशेष : रूपक अलंकार
।
जब एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप किया जाए अर्थात् जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु का रूप दिया जाए तो वहाँ रूपक अलंकार होता है ।
भगति भजन हरि नाँव है , दूजा दुक्ख अपार । मनसा बाचा कर्मनां , कबीर सुमिरण सार ।।4।।
भावार्थ : भगवान का
भजन ही संसार
से उतरने की
नाव है । अन्यथा पूरा
संसार असीम दुखों
से भरा है । इसलिये
सभी को मन , वचन और
कर्म से राम नाम का
स्मरण करना चाहिए
।
कबीर सुमिरण सार है , और सकल जंजाल । आदि अंति सब सोधिया दूजा देखी काल ।।5।।
भावार्थ : कबीर ने
हरि सुमिरण को
संसार का एकमात्र
सार कहा है । इसके
बिना पूरा संसार
बंधन या जंजाल
है । कबीर कहते हैं
कि मैंने प्रारंभ
से लेकर अंत
तक समस्त खोज
लिया और अंत में इस
निष्कर्ष पर पहुँचा
हूँ कि हरि स्मरण के
अलावा संसार में
जो कुछ भी है वह
सब काल ( मृत्यु
) ही है ।
च्यंता तौ हरि नाँव की और न चिंता दास । जे कुछ चितवै राम बिन , सोइ काल की पास ।।6।।
भावार्थ : सच्चा भक्त सदैव राम
नाम का चिंतन
करता है । उसे किसी
बात की चिंता
नहीं रहती , जो
लोग हरि का नाम छोड़कर
कोई और चिंतन
करते हैं तो वह अपना
अंत समीप पाते
हैं ।
पच सँगी पिव पिव करै , छठा जु सुमिरे मन । आई सूति कबीर की , पाया राम रतन ।।7।।
भावार्थ : पंच ज्ञानेन्द्रियाँ
रूपी सुंदरियाँ पपीहे
की भाँति पीपी
करें और छठवाँ
मन भी उनके साथ हो
तो भी उनको तृत करने
में आत्म संतोष
प्राप्त नहीं हो सकता , जो
आत्मसंतोष कबीर की
सूक्ति से राम रूपी रत्न
के रूप में प्राप्त होता है ।
विशेष : रूपक अलंकार
।
जब एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप किया जाए अर्थात् जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु का रूप दिया जाए तो वहाँ रूपक अलंकार होता है ।
मेरा मन सुमिरैं राम कूँ , मेरा मन रामहिं आहि । अब मन रामहिं ह्वै रह्या , सीस नवावों काहि ।।8।।
भावार्थः मेरा मन
राम के स्मरण
में इतना रम गया है
कि अब वह राम ही
बन गया है । जब
आत्मा - परमात्मा में
भेद समाप्त हो
जाता है तो उपासक को
परमात्मा के समक्ष
सीस झुकाने की
आवश्यकता नहीं पड़ती
।
तूं तूं करता तूं भया , मुझ में रही न हूँ । वारी फेरी बलि गई , जित देखौं तित तू ।।9।।
भावार्थ : जब साधक
परमात्मा रूपी तूं
तूं में एकाकार
हो जाता है तो उसका निज अहंकार
नहीं रहता।जब आत्मा प्रदक्षिणा करती हुई परमात्मा पर न्योछावर हो जाती है तो उसे सर्वत्र परमात्मा
के दर्शन होने
लगते हैं ।
कबीर निरभै राम जपि , जब लग दीवै बाति । तेल घट्या बाती बुझी , तब सोवैगा दिन राति ।।10।।
भावार्थ : साधक को
निर्भीकता के साथ
जब तक जीवन है तब
तक भगवान का
भजन करना चाहिए
। क्योंकि आयु
रूपी तेल घटते
ही जीवन रूपी
बाती बुझ जायेगी
और जीव सदा के लिये
सोता रहेगा ।
कबीर सूता क्या करे , जागि न जपै मुरारि । एक दिनां भी सोवणाँ , लंबे पाँव पसारि ।।11।।
भावार्थः साधक - अज्ञानता
रूपी सोने में
जीवन न खोये बल्कि ईश्वर
का स्मरण करें
क्योंकि मृत्यु सोने
के समान है
, जिसमें अंत में
समाना ही है ।
कबीर सूता क्या
करै , काहे ने देखै जागि
। जाका संग
तैं बीछुड़या , ताही
के संग लागि
।।12।।
भावार्थ : संसार में
भ्रमण को कबीर सोने के
रूप में संबंधित
करते हुये कह रहे हैं
कि मनुष्य को
विवेकपूर्ण ज्ञान से
जानकर यह सोचना
चाहिए कि यह आत्मा परमात्मा
से बिछुड़ी है
। अतः इसे संसार में
न लगाकर परमात्मा
के पीछे लगाना
चाहिए ।
कबीर सूता क्या करै , उठि न रोवै दुक्ख । जाका बासा गोर मैं , सो क्यूं सोवै सुक्ख ।।13।।
भावार्थ : सांसारिक प्राणी से
कबीर कहते हैं
कि इस अज्ञानता
रूपी संसार को
भोगना सोने के समान है
। अतः हे मनुष्य , तू सोने के बजाय
ज्ञान रूपी जागरण
कर प्रभु का
स्मरण कर यह संसार कब्र
के समान है और जिसका
कब्र में वास हो वह
कैसे सो सकता है ?
विशेष : सांग रूपक
अलंकार ।
सांग रूपक ( स+अंग = अंगों सहित ) में उपमेय में उपमान का आरोप अवयवों ( अगों ) सहित होता है । जब उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाए अर्थात् जब उपमेय को उपमान बनाया जाए और उपमान के अंग भी उपमेय बताए जाएं तब सांग रूपक होता है
कबीर सूता क्या
करें , गुण गोविंद
के गाइ । तेरे सिर
परि जम खड़ा
, खरच कदे का खाइ ।।14।।
भावार्थ : मानव को
सांसारिक भोग में
जीवन बिताने के
बजाय प्रभु स्मरण
में लगना चाहिए
। मृत्यु रूपी
यमराज तेरे सिर
पर ऐसे खड़ा
है जैसे तुमने
उसकी जीवन रूपी
पूँजी खर्च कर डाली हो ।
कबीर सूता क्या करै, सूताँ होइ अकाज | ब्रम्हा का आसण खिस्या , सुणत काल की गाज ।।15।।
भावार्थ : कबीरदास कहते हैं
कि प्रभु स्मरण
से विमुख होना
सोने के समान है और
सोने से जो हानि होती
है , उसका पता
तब चलता है जब काल
की गर्जना सुनाई
पड़ती है । काल की
गर्जन से ब्रह्म
का भी आसन खिसक जाता
है ।
केसो कहि कहि कूकिये ना सोइये असरार । रात दिवस क कूकनै ( मत ) कबहू लगे पुकार ।।16।।
भावार्थ : प्रभु स्मरण
से विमुख व्यक्तियों
को सावधान करते
हुये कबीर कहते
हैं कि ईश्वर
कह - कहकर सदैव
कूकते रहना चाहिए
क्योंकि रात दिवस
की यह कूक कभी न
कभी तो परमात्मा
के कानों में
पड़ेगी ही भाव यह है
कि संसार में
लगातार सोने की बजाय अपनी
मुक्ति के लिए प्रभु स्मरण
करते रहना चाहिए
।
जिहि घटि प्रीति न प्रेम रस , फुनि रसना नहीं राम । ते नर इस संसार में उपजि भये बेकाम ।।17।।
भावार्थ : जिसके चित्त
में प्रेम और
भगवत भक्ति नहीं
है उन मनुष्यों
का संसार में
जनम लेना व्यर्थ
ही है । अर्थात् बिना प्रेम
, प्रीत और राम की भक्ति
के मनुष्य जीवन
की सार्थकता नहीं
है ।
कबीर प्रेम न
चषिया , चषि न लीया साब ।
सूने घर का पाहुणा ज्यूँ
आया त्यूं जाव
।।18।।
भावार्थ : जिस व्यक्ति
ने अलौकिक ब्रह्म
के प्रेम को
आत्मसात नहीं किया
। उस व्यक्ति
का संसार में
आना उसी प्रकार
है जिस प्रकार
सूने घर में मेहमान आता
है तो बिचारा
ज्यों कि त्यों
बिना सम्मान प्राप्त
किये लौट जाता
है । अतः आत्मा को
इस लोक में आकर
परमात्मा की अनुभूति
अवश्य करनी चाहिए
।
विशेष : लुप्तोपमा अलंकार ।
जब चारों अंगों में से कोई भी एक अंग नहीं रहता तब वहाँ लुप्तोतमा होती है । जो अंग लुप्त होता है उसको पहले रखकर लुप्तोतमा का पूरा नाम दिया जाता है उपमेय लुप्त होने पर उपमेय लुप्तोतमा , उपमान लुप्त होने पर उपमान लुप्तोतमा , साधारण धर्म लुप्त होने पर साधारण धर्म लुप्तोतमा , वाचक लुप्त होने पर वाचक लुप्तोतमा ।
पहली बुरा कमाई करि , बाँधी विष की पोट । कोटि करम फिल पलक मैं , ( जब ) आया हरि की ओट ।।19।।
भावार्थ : कबीर ने
यहाँ राम नाम स्मरण की
महत्ता स्पष्ट की
है । पहले और इस
जनम में जो बुरे कर्म
किये हैं , उनकी
" यह पोटरी विष
की पोटरी के
समान घातक है
, किन्तु भगवान की
शरण में आते ही करोड़ों
दुष्कर्मों के फल
एक क्षण में
दूर हो जाते हैं ।
कोटि क्रम पेलै
पलक मैं , जे
रंचक आवै नाऊँ
। अनेक जुग
जे पुन्नी करै
, नहीं राम बिन ठाऊँ ।।20।।
भावार्थ : प्रभु के
थोड़े से स्मरण
से करोड़ों बुरे
कर्मों का फल प्रभावहीन हो जाता है और
राम नाम के स्मरण के
अभाव में युग
- युग तक पुण्य
करने से भी मुक्ति प्राप्त
नहीं होती ।
जिहिं हरि जैसा जाँणियाँ , तिन कूँ तैसा लाभ । ओसों प्यास न भाजई , जब लग धसै न आभ ।।21।।
भावार्थ : साधक परमात्मा
को जिस रूप में देखता
है उनको वैसा
ही फल प्राप्त
होता है , किन्तु
कबीर भगवान के
निर्गुण निराकार रूपी
जल को ही पूर्ण तृप्ति
का साधन मानते
हैं । अन्य तो ओसकण
हैं , जिनसे कभी
प्यास नहीं बुझ
सकती ।
राम पियारा छाँड़ि
करि , करै आन का जाप
। वेस्वाँ केरा
पूत ज्यँ , कहैं
कौन सूँ बाप ।।22।।
भावार्थ : कबीर ने
निर्गुण राम को सच्चा ब्रह्म
माना है । वे मानते
हैं कि आत्मा
परमात्मा का ही
अंश है और आत्मा यदि
परमात्मा से विमुख
होकर किसी का ध्यान करती
है तो उसकी स्थिति वेश्या
के पुत्र के
समान होगी , जो
किसी को अपना पिता नहीं
कह सकता ।
कबीर आपण राम
कहि , औराँ राम
कहाइ । जिहि मुखि राम
न ऊचरे , तेहि
मुख फेरि कहाइ
।।23।।
भावार्थ : कबीर ने
स्वयं राम स्मरण
एवं औरों से राम स्मरण
कराते हुये यह मत प्रकट
किया है कि जिन मुखों
से राम नहीं
निकलता उनसे बार
- बार राम का कीर्तन कराना
चाहिए ।
जैसे माया मन रमै , यूँ जे राम रमाइ । ( तौ ) तारा मंडल छाँडि छरि , जहाँ केसो तहाँ जाइ ।।24।।
भावार्थ : कबीर ने
कहा कि जिस प्रकार यह
मन सांसारिक माया
में रमता है उसी प्रकार
यदि राम में रमा दिया
जाये तो यह जीव अनेक
ब्रह्माण्डों के भ्रमण
जाल से मुक्त
होकर परमात्मा को
प्राप्त कर सकता है ।
लूटि सकै तौ लूटियौ , राम नाम है लूटि । पीछे ही पछिताहुगे , यहु तन जैसे छूटि ।।25।।
भावार्थ : कबीर ने
राम नाम की भक्ति को
महत्व देते हुये
कहा कि मनुष्य
के लिये यही
सच्ची भगवद्भक्ति है
। इसे जितना
लूट सको लूट लो अन्यथा
अंत समय में जब यह
शरीर छूट जायेगा
तो इसे नहीं
लूट पाओगे तब
पछताना पड़ेगा ।
लूटि सकै तौ
लूटियौं , राम नाम
भंडार । काल कंठ तैं
गहैगा , रूंधै दसूं
दुवार ।।26।।
भावार्थ : कबीर ने
राम भक्ति रूपी
लूट को जितना
चाहो उतना लूटने
का आह्वान किया
है क्योंकि जब
शरीर के दसों द्वार बंद
हो जायेंगे और
मृत्यु गला दबा देगी तो
फिर भक्ति का
अवसर नहीं मिलेगा
।
विशेष : रूपक तथा
मानवीकरण अलंकार ।
रूपक अलंकार
जब एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप किया जाए अर्थात् जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु का रूप दिया जाए तो वहाँ रूपक अलंकार होता है ।
जहाँ पर अमूर्त भावों का मूर्तीकरण कर और जड़ पदार्थों का चेतनवत् वर्णन किया जाता है वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है । मानवीकरण अलंकार का प्रयोग जड़ का चैतन्यीकरण , अमूर्त भावना का मूर्तिकरण , चेतन का मानवीकरण के रूप में होता ।
लम्बा मारग दूरि
घर , बिकट पंथ
बहु मार । कहौ संतौ
क्यूं पाइये , दुर्लभ
हरि - दीदार ।।27।।
भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त
करना अत्यन्त दुर्लभ
है क्योंकि साधक
परमात्मा से बहुत
दूर है । परमात्मा तक पहुँचने
का रास्ता अत्यन्त
कठिन है इसलिये
भगवत दर्शन अत्यन्त
दुर्लभ हैं ।
गुण गायें गुण ना कटै , रटै न राम वियोग । अह निसि हरि ध्यावै नहीं , क्यूँ पावै दुर्लभ जोग ।।28।।
भावार्थ : आत्मा राम
के वियोग में
राम का गुणगान
करे तो त्रिगुणात्मक
माया कट सकती है लेकिन
जो रात - दिन
राम से विमुख
हैं वे इस राम नाम
के गुणगान की
भक्ति के दुर्लभ
जोग को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
कबीर कठिनाई खरी
सुमिरता हरि नाम । सूली
ऊपरि नट विद्या
, गिरुं त नाहीं ठाम ।।29।।
भावार्थ : कबीर ने हरि नाम स्मरण को काफ़ी चुनौतीपूर्ण माना है । यह रस्सी के ऊपर झूलते नट के समान है । उससे पथभ्रष्ट होने पर साधक कहीं का नहीं रहता । अर्थात् जो सांसारिक माया को त्यागकर हरि स्मरण में लगे हैं उन्हें अत्यंत सावधानी से साधना करनी चाहिए अन्यथा न तो संसार के रहेंगे न संसार से मुक्त हो पाएंगे।
कबीर राम ध्याइ लै, जिभ्या सौं करि मंत। हरि सागर जिनि बिसरै, छीलर देखी अनंत।।30।।
भावार्थः कबीर कहतें हैं मनुष्य जीभ से राम का स्मरण एकाग्र होकर कर । कहीं तू दूसरी ताल तलैया देखकर हरि रूपी सागर को मत भूल जाना ।
कबीर राम रिझाइ
लै मुखि अमृत
गुण गाई । फूटा नग
ज्यूँ जोडि मन
, संधे संधि मिलाई
।।31।।
भावार्थ : कबीर कहते
हैं कि मनुष्य
को परमात्मा का
गुणगान करके अपने
चित्त को शुद्ध
कर लेना चाहिए
। क्योंकि यह
मन सांसारिक विषय
वासनाओं से खण्ड
- खण्ड हो गया है ।
अत : इसे सांसारिक
विषय आसक्तियों से
रिक्त करके संधियों
को मिलाकर पूरा
नग कर लेना चाहिए ।
कबीर चित्त चमकिया, चहूँ दिसी लागि लाइ। हरि सुमिरण हाथूं घड़ा बेगे लेहु बुझाइ।।32।।
भावार्थः चित्त में ज्ञान की चमक होने से चारों तरफ सांसारिक विषय वासनाओं की अग्नि जलती हुई दिखाई दे रही है।प्रभु सुमिरण रूपी घड़ा लेकर साधक इस आग को बुझाकर परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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